Friday, March 29, 2024

न्याय की गुहार के साथ हाईकोर्ट पहुंचा “इलाहाबाद”

जनचौक ब्यूरो

नई दिल्ली। इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने के यूपी सरकार के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी है। कोर्ट में दायर याचिका में फैसले को न केवल जल्दबाजी में उठाया गया कदम बताया गया है बल्कि उसके औचित्य और आधार पर भी सवाल उठाया गया है। साथ ही याचिका इस बात को याद दिलाती है कि न ही इलाहाबाद के लोगों की ये कोई लोकप्रिय मांग थी। और न ही उसके लिए कोई आंदोलन हुआ था। यहां तक कि स्थानीय प्रशासनिक स्तर पर इससे संबंधित प्रस्ताव पारित करने की औपचारिकता भी नहीं पूरी की गयी।

याचिका में इस बात को साफ-साफ कहा गया है कि इलाहाबाद और प्रयाग दो अलग-अलग इलाके थे और दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व था। याचिका में इलाहाबाद के नाम के पीछे के इतिहास को बताया गया है उसके साथ ही उसके तार्किक आधार पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

याचिका में कहा गया है कि बोर्ड ऑफ रेवेन्यू ने फैसले को बहुत जल्दबाजी में लिया और उसके लिए समाज के बड़े हिस्से की राय जानने या फिर उससे संपर्क करने की कोई कोशिश नहीं की गयी। जो इस तरह के मामलों के लिए जरूरी संवैधानिक प्रावधानों का खुला उल्लंघन है।

याचिका का प्रतिनिधित्व कर रहे एडवोकेट कमल कृष्ण राय ने सरकार की जल्दबाजी का नमूना पेश करते हुए बताया कि बोर्ड ऑफ रेवेन्यू ने 15 अक्तूबर कोक नाम में बदलाव का प्रस्ताव पास किया। उसके अगले ही दिन यानी 16 अक्तूबर को कैबिनेट ने उसे पारित कर दिया। उसके बाद रेवेन्यू के प्रधान सचिव और सचिव ने उससे संबंधित राजाज्ञा जारी कर दी। फिर 20 अक्तूबर को जिलाधिकारी ने इलाहाबाद से प्रयागराज करने का नोटिफिकेशन जारी कर दिया। यानी सैकड़ों साल पुराने एक शहर को महज चार दिन में बदल दिया गया।

याचिका में कैबिनेट द्वारा नाम बदलने के लिए बताए गए आधारों पर भी सवाल उठाया गया है। उसमें कहा गया है कि सरकार ने उचित गजट की बजाय कुछ ऐसी अप्रासंगिक चीजों का सहारा लिया गया है जिनका कोई मतलब नहीं है। याचिका में 1986 में यूपी सरकार के भाषा विभाग की ओर से प्रकाशित इलाहाबाद से जुड़े उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गजट का हवाला दिया गया है। और कहा गया है कि कैबिनेट उस पर विचार करना भी जरूरी नहीं समझी।

इलाहाबाद भारतीय राज्य के उत्तर प्रदेश का एक मेट्रोपोलिटन शहर और राज्य के सबसे ज्यादा आबादी वाले जिले का भी इसे गौरव हासिल है। इसके साथ ही देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले जिलों में 13 वें स्थान पर आता है। शहर को राज्य की न्यायिक व्यवस्था की राजधानी करार दिया गया है।

अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए याचिका में इतिहास के कई प्रसंगों और प्रासंगिक तथ्यों का हवाला दिया गया है। इसमें अकबरनामा के हवाले से मुगल बादशाह अकबर द्वारा इलाहाबाद की स्थापना की बात कही गयी है। अब्द-अल-कादिर बदायूनी और निजामुद्दीन अहमद के हवाले से बताया गया है कि अकबर ने 1583 के आस-पास एक सामरिक लोकेशन से प्रभावित होकर न केवल एक किला बनाया बल्कि उसका नाम इलाहाबास या इलाहाबाद रखा।

बदायूनी ने बताया कि जब बादशाह अकबर ने 1975 में प्रयाग का दौरा किया तो उन्होंने इलाहाबास नाम से एक नया शहर बसाया। इसमें आगे इस बात का जिक्र किया गया है कि “इलाहाबास” इलावास का विकृत रूप है। जिसकी व्याख्या कुछ इस रूप में की जाती है कि इला पुरुरवा की मां थीं और आवास एक संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है रहने का स्थान। यानी कि इला के रहने का स्थान। एक समय के बाद आम बोलचाल में ये इलाहाबाद हो गया। 

मुगलों और फिर अंग्रेजों के दौर में इसकी प्रासंगिकता और उसके महत्व पर पूरा प्रकाश डाला गया है। 1858 में इलाहाबाद उत्तर-पश्चिम प्राविंस की राजधानी बना और एक दिन के लिए भारत की भी राजधानी था। इसके अलावा ये शहर 1902 से लेकर 1920 तक यूनाइटेड प्राविंस की राजधानी था। और आजादी की लड़ाई का तो पूरा केंद्र ही बना रहा।

याचिका में बेहद अलंकारिक ढंग से इसकी तारीफ करते हुए बताया गया है कि ये न केवल ऐतिहासिक शहर है बल्कि ये खुद अपने आप में इतिहास है। इसलिए इलाहाबाद के नाम को बदलने का फैसला राष्ट्र के इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का प्रयास है। इलाहाबाद का अपना ऐतिहासिक महत्व है और उसके नाम के बदलने के फैसले को निश्चित तौर पर देश के लोग स्वीकार नहीं करेंगे।

साथ ही याचिका में इस बात का भी जोरदार तरीके से खंडन किया गया है कि अकबर ने प्रयाग का नाम बलकर इलाहाबाद किया था। इसमें बताया गया है कि प्रयाग और मुगल बादशाह अकबर का नया शहर इलाहबास (इलाहाबाद) दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। प्रयाग और इलाहाबाद उसी तरह से दो अलग इकाइयां हैं जिस तरह से फैजाबाद और अयोध्या हैं। जैसे फैजाबाद की शहरी सीमा अयोध्या तक जाती है उसी तरह से इलाहाबाद की शहरी सीमा प्रयाग तक पहुंचती है और उसके साथ ही भेद धुंधले पड़ जाते हैं।

वास्तव में प्रयाग कभी एक शहर था ही नहीं। वो एक यज्ञस्थल था। प्रयाग का नाम अभी उसी तरह से बरकरार है। सच ये है कि प्रयाग और प्रयाग घाट के नाम से दो रेलवे स्टेशन हैं जो सीधे संगम से जुड़े हुए हैं और तीर्थयात्रियों के लिहाज से अभी भी काम करते हैं।

इतिहासकार बदायूनी के हवाले से एक और बात सामने आती है जिसमें बताया गया है कि जब बादशाह अकबर को हिंदुओं के लिए संगम के महत्व के बारे में बताया गया तो उन्होंने उस स्थान का नाम तुरंत बदलकर इलाहबास करने का फैसला कर लिया। यानी ईश्वर का निवास। इसके जरिये वो वास्तव में हिंदू भावनाओं का सम्मान कर रहे थे।

मुगल बादशाह अकबर ने कभी भी प्रयाग का नाम नहीं बदला बल्कि प्रशासनिक सहूलियत के लिहाज से उसने नये शहर की स्थापना की। बाद में शाहजहां के काल में ये इलाहाबाद और फिर अंग्रेजों के शासन में एलाहाबाद हो गया।

याचिका में एक सवाल बेहद मजबूती के साथ उठाया गया है कि न तो कहीं से इसकी मांग उठती है और न ही उसकी जरूरत समझी जाती है। लेकिन सूबे का रेवेन्यू विभाग उसका हवाला देकर प्रस्ताव पास करता है जो पूरी तरह से झूठ है। प्रस्ताव में कहा गया है कि इसकी भीषण मांग थी। बोर्ड आफ रेवेन्यू का प्रस्ताव कुछ ऐसे आधार हीन तथ्यों पर आधारित है जो इतिहास की कसौटी पर किसी भी तरीके से खरे नहीं उतरते हैं।

याचिका में साफ तौर पर कहा गया है कि इलाहाबाद का नाम बदलने की वजह बिल्कुल राजनीतिक है। इतिहास की त्रुटि बदलने से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। दरअसल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विभिन्न शहरों और इलाकों के नाम बदलने में लगे हुए हैं। इसी कड़ी में याचिका में एक उदाहरण गोरखुपर का दिया गया है जहां उन्होंने उर्दू बाजार का नाम हिंदी बाजार कर दिया है। और ये सब कुछ केवल उनके व्यक्तिगत अहम को तुष्ट करने के लिए किया जा रहा है।

संविधान भी नागरिकों के लिए अपनी समृद्ध धरोहरों को संरक्षित करने की बात करता है। याचिकाकर्ता उसी कर्तव्यवोध के साथ इस कोर्ट के सामने पेश हुआ है।

याचिका में कहा गया है कि हर शहर की अपनी एक पहचान होती है और नाम उसका अभिन्न हिस्सा होता है। लिहाजा उसको उससे कभी अलग नहीं किया जा सकता है। इस सिलसिले में कई उदाहरण दिए गए हैं। मसलन आगरा का मतलब ही ताजमहल का शहर, दिल्ली का मतलब भारत की राजधानी। इसी तरह से दूसरे शहरों की अपनी पहचान उनके नाम से जुड़ गयी है। इलाहाबाद एक ऐतिहासिक स्थल है। ऐसे में उसके नाम को बदलने का मतलब इतिहास को बदलना है जो कभी हो ही नहीं सकता। बताया जा रहा है कि इस नाम को बदलने में 40 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। ऐसे में इसकी जरूरत ही क्या है? जनता का पैसा इस तरह के गैरजरूरी और अवैध मामलों में नहीं खर्च किया जा सकता है।

याचिका में कहा गया है कि भारत का संविधान अपने प्रस्तावना में भाईचारे को बढ़ावा देने की बात करता है और भारत को एक सेकुलर रिपब्लिक बताता है। लेकिन ये बात समझ में नहीं आती है कि कैसे इलाहाबाद का नाम प्रयाग करने से भाईचारे को बढ़ावा मिलेगा। जबकि सच्चाई ये है कि ये बीमार सांप्रदायिक राजनीति का नतीजा है। जो अंत में वर्गों और समुदायों के बीच नफरत को बढ़ाने का काम करेगा।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles