मोदी सरेंडर करेंगे या फिर राहुल का सामना?

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साजिशों और षड्यंत्रों से देश नहीं चलाया जा सकता है। 140 करोड़ का भारत तो कतई नहीं। एक सीमा तक ही ये साजिशें काम आती हैं उसके बाद तो उनका फेल होना निश्चित है। राहुल गांधी परिघटना का मोदी-शाह और संघ के लिए यही सबक है। मोदी-शाह और संघ को पहले से पता था कि उनके रास्ते का राहुल सबसे बड़ा कांटा हैं। एक दौर में उन्हें पप्पू साबित करने के लिए संघ और मोदी सत्ता ने हजारों करोड़ रुपये खर्च किए। और सोशल मीडिया से लेकर तमाम प्लेटफार्मों पर इसको पूरा करने के लिए लाखों प्रयोग किए गए।

सोशल मीडिया पर मीम और कार्टूनों के निर्माण तो गोदी मीडिया को झूठ-सही तमाम किस्म के फैब्रिकेटेड कंटेंट जनरेशन के काम में लगा दिया गया। एक दौर तक यह सब कुछ कामयाब भी होता दिख रहा था। लेकिन कहते हैं कि सच सौ परदे फाड़ कर बाहर आ जाता है। वही हुआ। राहुल के व्यक्तित्व की गहराई और उनकी संजीदगी के साथ-साथ देश के लिए उनका विजन जब सामने आने लगा तो तस्वीर बदलने लगी। इस कड़ी में राहुल गांधी की चार हजार किमी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निर्णायक साबित हुई। उसने उनके व्यक्तित्व को एक नये मुकाम पर पहुंचा दिया। 

यह एक ऐसा समय था जब देश के मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ जनता में विक्षोभ था और उसके द्वारा फैलाई जा रही नफरत और घृणा की आग को न केवल रोकने की जरूरत थी बल्कि किसी ऐसे प्यार और संवेदना के बर्फ की जरूरत थी जो उसे ठंडा कर सके। और जनता के घावों पर मलहम रख सके। राहुल ने वही किया। पूरे देश में राहुल नाम की एक उम्मीद की किरण दिखने लगी। और इसमें यह बात निहित थी कि जैसे-जैसे राहुल का कद बढ़ता जाएगा मोदी देश के आकाश के पटल से तिरोहित होते जाएंगे। लिहाजा दोनों के बीच यह वाइस-वरसा का रिश्ता था। इस बात को मोदी भी अच्छी तरह से जानते थे। लिहाजा राहुल के बढ़ते कद को रोकने के लिए उन्होंने एक और षड्यंत्र रचा। जिसमें राहुल गांधी को न केवल संसद से बाहर बल्कि उन्हें कभी चुनाव न लड़ने देने की बात शामिल थी। इस लिहाज से डिब्बे में बंद मानहानि के केस को फिर से खोल दिया गया।

जिस पूर्णेश मोदी ने गुजरात हाईकोर्ट में जाकर खुद अपने केस में ट्रायल को रोकने के लिए स्टे लिया था उसी ने उसे वैकेट कराकर फिर से चलवाने की हरी झंडी हासिल कर ली। और फिर लोअर कोर्ट से राहुल गांधी के खिलाफ फैसला आ गया। देश के सभी लोग अब यह जान गए हैं कि फैसला देने वाले जज साहब माया कोडनानी के वकील रहे हैं जिनका गुजरात दंगों में खुला हाथ था और उसके लिए उनको सजा भी मिली थी। लोगों को उम्मीद थी कि राहुल के साथ होने वाले इस अन्याय को गुजरात हाईकोर्ट दुरुस्त कर देगा। लेकिन ये क्या?

वहां भी पता चला कि बेंच अमित शाह के पूर्व वकील रहे जज की है। और उन्होंने बजाय उसको ठीक करने के उल्टे राहुल गांधी पर और तीखी टिप्पणी के साथ फैसला सुना डाला। और इस तरह से यह पहली बार साबित हुआ कि केवल राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं बल्कि सूबे की सभी न्यायिक संस्थाएं भी गुजरात मॉडल का हिस्सा बन चुकी हैं। बहरहाल अभी सुप्रीम कोर्ट जिंदा है और उसकी साख भी बरकरार है। लिहाजा राहुल के पक्ष में सोचने वालों के लिए यह भरोसा कायम था कि उन्हें वहां से न्याय मिलेगा। और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निराश भी नहीं किया। फैसला राहुल गांधी के पक्ष में आया। 

दरअसल एक चीज हमें समझनी होगी। कोई नेतृत्व हवा में नहीं विकसित होता है। उसकी ठोस जमीन होती है। उसकी अपनी सामाजिक शक्तियां होती हैं। वह जहां तक विस्तारित रहती हैं वहां तक उसके नेतृत्व का प्रभाव होता है। मोदी का नेतृत्व गुजरात से विकसित हुआ था। और दस साल रहते हुए उन्होंने गुजरात को अपने मॉडल पर खड़ा कर लिया था जिसमें सूबे को अपने कब्जे में रखने का उन्होंने हुनर सीख लिया था। और इस कड़ी में उन्होंने न केवल तंत्र बल्कि विचारधारा के हिसाब से भी उसे अपने फेटे में बांध लिया था।

और उसी पर खड़ा होकर उन्होंने कॉरपोरेट की मदद से राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन का सफर तय किया। आप याद करिए कांग्रेस के खिलाफ दस सालों की एंटी इंकबेंसी। और उसके ऊपर लगे तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप। और मीडिया से लेकर कॉरपोरेट का खुला विरोध। अन्ना आंदोलन ने उसको क्लिंच कर दिया। और दस सालों से मनमोहन के ‘मौन’ से परेशान देश को एक बोलता हुआ नेता चाहिए था। मोदी के रूप में उसे हासिल हो गया। लेकिन वह सिर्फ बोले, बोलते ही रहे और कुछ न करे। देश ने ऐसा भी तो नहीं चाहा था। 

अब यह देश और मोदी दोनों के लिए संक्रमण का काल है। नौ सालों में देशवासियों की उम्मीदों पर खरा उतरने को कौन कहे 75 सालों में जनता से लेकर नेताओं की मेहनत के बल पर खड़े लोकतंत्र को भी मोदी ने खतरे में डाल दिया है। संविधान और संसद को ताक पर रख दिया गया है। पीएम मोदी सदन में उपस्थित होकर प्रतिनिधियों के सवालों का जवाब देना अपनी तौहीन समझते हैं।

उन्हें लगता है कि वह संसद, राष्ट्रपति और संविधान से भी ऊपर हैं। किसी मजबूरी में कुछ औपचारिकताएं भले पूरा कर लेते हों वरना इन संस्थाओं को वह हमेशा ठेंगे पर रखते हैं। लेकिन संसद के इस घेरे में एक शख्स था जो लगातार उन्हें परेशान कर रहा था। और उन्हें हर तरह की जवाबदेही के लिए मजबूर करता था। जो मोदी प्रेस कांफ्रेंस में किसी पत्रकार के एक सवाल का सामना नहीं कर सकते।

उनसे संसद के भीतर सैकड़ों सांसदों के सवालों के जवाब की अपेक्षा करना बेमानी है। और ऊपर से एक ऐसा शख्स हो जिसकी शख्सियत उन पर भारी पड़ रही हो। सदन में उसकी मौजूदगी का मतलब है दोनों के बीच बराबर तुलना होना। एक तरफ अहंकार है तो दूसरी तरफ विनम्रता। एक तरफ नफरत और घृणा है तो दूसरी तरफ प्रेम। एक तरफ अडानी-अंबानी की यारी है तो दूसरी तरफ ट्रक ड्राइवरों, आम किसानों और गाड़ी के मैकेनिकों से मित्रता।

एक तरफ सैकड़ों प्रेस कांफ्रेंसों में हजारों पत्रकारों के सवालों का सामना करने वाला शख्स है तो दूसरी तरफ प्रेस कांफ्रेंस से भागने वाला राज्याध्यक्ष। एक तरफ ‘भारत जोड़ो’ है तो दूसरी तरफ सांप्रदायिकता और जाति समेत हर तरह के नस्लीय भेद की राजनीतिक खेती। ऐसे में दोनों व्यक्तित्व जब आमने-सामने होंगे तो जीत किसकी होगी किसी के लिए समझना मुश्किल नहीं है। और यह बात मोदी जी भी जानते हैं। इसीलिए उन्होंने तत्काल अमित शाह को इस बला से छुटकारा दिलाने के लिए कहा। और फिर लोअर कोर्ट से फैसला क्या आया 24 घंटे के भीतर स्पीकर बिड़ला साहब ने राहुल को सदन से बाहर कर दिया। रही-सही कसर सरकार ने उनका बंगला छीन कर पूरा कर दिया। 

अल्टीमेटली जस्टिस प्रीवेल्स। यानि आखिर में न्याय की जीत होती है। यहां भी यही हुआ। लेकिन इससे इतर नेतृत्व के विकास की अपनी गति होती है। वह जितनी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है उससे ज्यादा उसका सामाजिक शक्तियों के साथ रिश्ता होता है। उम्दा शख्सियत होने के बावजूद भी अगर सामाजिक शक्तियों का समर्थन नहीं हासिल है तो एक सीमा से आगे नेतृत्व नहीं बढ़ पाता है। तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता क्षेत्रीय स्तर तक इसीलिए सीमित रह जाते हैं क्योंकि उनके समर्थन का आधार भी सीमित होता है।

राहुल का नेतृत्व अगर राष्ट्रीय स्तर पर विकसित हो रहा है तो उसके पीछे सर्वप्रमुख कारण यह है कि मौजूदा समय में उसकी एक जरूरत है। और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विस्तार ने उसे हासिल करना राहुल के लिए आसान बना दिया है। सत्ता के खिलाफ विपक्ष की मजबूत होती सामाजिक शक्तियों के वह राष्ट्रीय प्रतिनिधि बन गए हैं। ये शक्तियां जैसे-जैसे मजबूत होती जाएंगी राहुल का कद उसी के हिसाब से बढ़ता जाएगा। 

और यह कैसे बढ़ रहा है उसको समझने के लिए आपको मौजूदा दौर का विश्लेषण करना होगा। मसलन मोदी-शाह जिस दिशा में देश और समाज को ले जाना चाहते थे उस दिशा में वह जाने के लिए तैयार नहीं है। मसलन मणिपुर का उनका प्रयोग फेल कर गया है। सूबे की अराजकता बताती है कि वहां स्टेट मशीनरी ने हथियार डाल दिए हैं।

देश के माहौल को सांप्रदायिकता की आग में झोंक देने के लिए मेवात का जो प्रयोग किया गया वह बिल्कुल उल्टा पड़ गया। जिन जाटों और गुर्जरों को हिंदू बनाकर मुसलमानों के खिलाफ लड़ाने का उन्होंने मंसूबा पाल रखा था उसने ऐसा करने से इंकार कर दिया। नतीजतन पूरा डिजाइन धरा का धरा रह गया।

ये सारी घटनाएं बताती हैं कि देश और समाज अब बीजेपी-मोदी के बताए रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं है। उसे घृणा और नफरत की नहीं बल्कि प्रेम और भाईचारे की दरकार है। पिछले नौ सालों में सत्ता ने उसको जो घाव दिए हैं उस पर मलहम की जरूरत है। और उसको पूरा करने के लिए एक शख्स सामने आ गया है जिसका नाम है राहुल गांधी। 

पूरे देश की निगाह इस बात पर टिकी है कि सु्प्रीम कोर्ट का फैसला कब लागू होगा। हजारों किमी दूर मौजूद एक छोटी कोर्ट के फैसले को स्पीकर बिड़ला ने 24 घंटे में लागू कर दिया था। संसद से चंद कदमों पर स्थित देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के फैसले को लागू करने में वह कितना वक्त लेते हैं? और अगर उसी तरह की तेजी नहीं दिखाते हैं या फिर कुछ हीला-हवाली करते हैं और इस तरह से राहुल गांधी को अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में होने वाली चर्चा से दूर रखा जाता है तो पूरे देश के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि ऐसा मोदी के इशारे पर हो रहा है। और वह इसलिए ऐसा करवा रहे हैं जिससे सदन के भीतर उनका राहुल से सामना न हो। और अगर डर इस स्तर तक पहुंच गया है तो समझा जा सकता है कि नेतृत्व के दंगल में मोदी ने सरेंडर कर दिया है। वह मैदान छोड़कर भाग गए हैं। और अब कब्जा करने के लिए राहुल के पास पूरी जमीन है।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

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