दिल्ली के अफसर ने किया भरोसे का खून

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नई दिल्ली। यह कितनी भयावह स्थिति है कि जिस व्यक्ति पर समाज सबसे अधिक भरोसा करता हो वह हैवानियत की चरम पराकाष्ठा को भी पार कर जाए। हां, बात हो रही है दिल्ली के महिला एवं बाल विकास विभाग के उप-निदेशक प्रेमोदय खाखा की, जो बुराड़ी का निवासी है। दरिंदगी का आलम यह है कि प्रेमोदय ने अपने दोस्त के निधन के बाद उसकी छोटी 14 वर्षीय पुत्री को यह कहकर अपने घर रखने के लिये ले लिया कि वह उसकी अच्छी परवरिश करेगा, क्योंकि बच्ची को अपने पिता के जाने के बाद कई बार ‘‘पैनिक अटैक’’ होते थे। वह इस बच्ची का मुंह-बोला मामा भी बन गया। बच्ची की मां वज़ीराबाद की रहने वाली थी।

हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एक मां को किसी परिवार पर कितना अधिक भरोसा रहा होगा कि वह अपनी जवान होती बेटी को उनके घर रहने के लिए भेज दे। भरोसा इसलिये और भी अधिक हो गया होगा कि व्यक्ति महिला एवं बाल विकास विभाग में आला अधिकारी है, वह भी एक-दो साल से नहीं, 10 वर्षों से अधिक समय से। मामला पुलिस के संज्ञान में आता भी नहीं क्योंकि 5 महीने से ड्रग्स देकर यौन उत्पीड़न झेल रही बच्ची अवसाद का शिकार हो चुकी थी।

बच्ची के शरीर पर कई जख्म भी दिखाई पड़ते थे। यह तो इत्तेफ़ाक की बात थी कि बच्ची का गर्भ ठहर गया था और उसका गर्भपात कराने के लिए तब अस्पताल में भर्ती कराया गया जब प्रेमोदय की पत्नी ने उसका गर्भ नष्ट करने के लिए गोलियां दीं और वे बेअसर हो गईं। डाॅक्टर से बात करते वक्त बच्ची (अब 17 वर्ष की हो चुकी है) ने सारी बात बताई। पता चला कि प्रेमोदय का पूरा परिवार इस अपराध में शरीक था।

मामले पर दिल्ली और केंद्र के बीच राजनीति

घटना सामने आने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रेमोदय का निलंबन करवाया और पुलिस से कहा कि उसकी तुरंत गिरफ्तारी की जाए। पाॅक्सो ऐक्ट और कई अन्य धाराएं लगाई गईं हैं। प्रेमोदय की पत्नी पर सहयोग करने का आरोप लगा है। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालिवाल ने दिल्ली सरकार और पुलिस (जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है) को नोटिस भी जारी किया। पर उनका कहना है कि उन्हें बच्ची और उसकी मां से मिलने नहीं दिया गया, ताकि वे जान सकें कि बच्ची को बेहतर चिकित्सा मिल रही है या नहीं। लेकिन एनसीपीसीआर के अध्यक्ष को मां से मिलने की अनुमति दे दी गई।

स्वाति मालिवाल अस्पताल के सामने भूख हड़ताल पर बैठ गईं और बोलीं कि जब तक उन्हें मिलवाया नहीं जाता, वह हटेंगी नहीं। उन्होंने यह भी सवाल किया कि आरोपी को गिरफ्तार करने में देरी क्यों की गई और बच्ची को तत्काल एम्स में भर्ती क्यों नहीं किया गया। जाहिर है कि इस घटना में केंद्र और राज्य के बीच राजनीति चल रही है, क्योंकि आम चुनाव में कुछ ही महीने बाकी हैं। मालिवाल इस घटना को बहुत ही भयानक घटना मानती हैं। पर उनके आयोग को कितना अधिकार है और वह कितना स्वायत्त है, यह तो आगे समझ में आयेगा।

फिलहाल, प्रेमोदय व उसकी पत्नी सीमा रानी 6 सितम्बर तक न्यायिक हिरासत में हैं। उनपर आईपीसी की धारा 376-2 और 509 तथा पाॅक्सो कानून लगाया गया है। पर सवाल तो यह है कि ऐसा दरिंदा इतने महत्वपूर्ण पद पर, वह भी महिलाओं और बच्चों से जुड़े विभाग में, कैसे नियुक्त किया गया? क्या उसके पूर्व इतिहास को बेहतर तरीके से खंगाला नहीं गया था? इसका जवाब केजरीवाल सरकार को भी देना होगा।

उच्च पदों पर कैसे बैठे अपराधी?

पिछले दिनों जब विश्व कुश्ती संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन कैसरगंज के सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे थे, और जब लोगों ने इस व्यक्ति के अपराध का रिकॉर्ड देखा, तो उनके होश उड़ गए थे। इस संसद पर दाउद इब्राहिम के लोगों को शरण देने के लिए टाडा लग चुका है। इस पर बाबरी मस्जिद विध्वंस, आपराधिक धमकी देने, जबरन वसूली करने, अपहरण, हत्या और हत्या के प्रयास के आरोप लग चुके हैं। करीब 40 ऐसे मामलों की जानकारी तो लोगों को है ही। सीजेआई रहे रंजन गोगोई को भी यौन उत्पीड़न के आरोप से मुक्त कर दिया गया, पूरी सच्चाई आज तक सामने नहीं आई।

2018 में मुज़फ्फरपुर का बालिका आश्रम मामला जब सामने आया था तो पता चला कि सेवा संकल्प एवं विकास समिति नामक एक बड़े एनजीओ का अध्यक्ष और कई अन्य स्वयंसेवी संगठन चलाने वाला बृजेश ठाकुर राज्य के शीर्षस्थ अधिकारियों का मित्र रहा है। इसी तरह बड़ा व्यापारी और ब्रिटेन में 198 सबसे धनी लोगों में गिना जाने वाला राज कुंद्रा भी महिलाओं का शोषण करता था।

कहने का मतलब यह है कि ऐसे दरिंदे अपने परिचय, पैसा, राजनीतिक संपर्क और नौकरशाहों के साथ सांठ-गांठ के माध्यम से संस्थाओं के उच्च पदों पर पहुंच जाते हैं, जबकि ईमानदार और सच्ची मेहनत के बल पर आगे बढ़ने वालों के समक्ष कई अड़चने खड़ी की जाती हैं। कुल मिलाकर इस व्यवस्था में पूरी गुंजाइश है कि लम्बे समय तक ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के लोग टिके रहें।

ऐसे दरिंदे व्यवस्था में कैसे पनपते हैं?

ऐसे बलात्कारी और दरिंदे इसी समाज द्वारा पोषित होते हैं और संरक्षण भी पाते हैं। इसलिए, पहली बात तो यह है कि संवेदनशील मामलों में जिम्मेदारी सम्भालने वालों, महिलाओं और बच्चों के मामलों के देखने वाले पदों पर आसीन लोगों और जनता का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने वालों या फिर न्यायपालिका के उच्च पद पर आसीन लोगों की, नियुक्त से पूर्व चरित्र और व्यवहार की पुख़्ता जांच होनी चाहिये। वे जिस भी विभाग या क्षेत्र में रहें, जनता के बीच, खासकर महिलाओं के बीच उनकी छवि कैसी थी या उन्होंने ऐसे कौन से काम किये थे जिससे उन्होंने सम्मान और जनता का विश्वास हासिल किया- यह सब अच्छी तरह देखा जाना चाहिये।

महिला एवं बाल विकास विभाग के मामले में खास तौर पर यह भी देखा जाना चाहिये कि निदेशक व उप-निदेशक के पदों पर ऐसी महिलाओं की नियुक्ति हो जो इस क्षेत्र में पथ प्रदर्शक रही हों। दूसरे, आम लोगों को भी यह समझना होगा कि कोई विश्वास करने योग्य केवल पद के आधार पर नहीं होता; बल्कि कई बार उल्टा ही होता है- उच्च पदों पर बैठे लोगों पर उंगली उठाने से लोग डरते हैं और ये दंड-मुक्ति के हकदार बन जाते हैं। यही नहीं, आम व्यक्ति अगर सवाल उठाए, तो हर तरह के हेरा-फेरी का इस्तेमाल करके खुद को बचा लिया जाता है और उत्पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है।

यह हमने इस वर्ष की दो दर्दनाक घटनाओं में देखा है- चिल्ड्रेन काॅलेज की छात्रा श्रेया, जिसके चरित्र पर कीचड़ उछाला गया और आरोपी प्रिंसिपल दबाव बनाकर केस को मऊ ट्रांसफर करवा ली तथा दोषमुक्त हो गई। दूसरा, भोजपुरी अदाकारा आकांक्षा दुबे का मामला है- जिसको ‘फास्ट’ औरत बताकर बदनाम किया गया और हत्या की जगह आत्महत्या का केस दर्ज किया गया। भाजपा विधायक कुल्दीप सिंह सेंगर को सज़ा होने से पहले उत्पीड़िता का परिवार ही तबाह हो गया था।

जितने ऊंचे पद पर आरोपी, जनदबाव उतना हो भारी

उच्च पदों पर बैठे लोगों पर जल्दी भरोसा करना ठीक नहीं है, यह नसीहत हमें बार-बार मिलती है। यही संदेश था ‘मी टू’ आन्दोलन का। हमारे मन में जो मिथक है कि महिलाएं सही होती हैं, वह भी कई बार टूटा है। आप देखेंगे कि पितृसत्तात्मक समाज में औरत का दिमाग भी पुरुष-वर्चस्व की सोच से ग्रस्त हो सकता है। वे बलात्कारियों को बचा सकती हैं, उनका सहयोग कर सकती हैं, और स्वयं लड़कियों को सप्लाई भी कर सकती हैं।

लड़कियों का अपहरण कर या उन्हें बरगलाकर वेश्यावृत्ति में धकेलने वाली भी अक्सर औरतें होती हैं, जो पैसों के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाती हैं। ऐसी औरतों को भी सख़्त सज़ा मिलनी चाहिये। नैतिक आधार पर देखा जाए तो सीमा रानी भी उतनी ही दोषी है जितना उसका पति।

पाॅक्सो कानून काफी सख़्त है और उसमें उम्रकैद भी हो सकती है। तुरंत गिरफ्तारी का प्रावधान भी है। पर देखा गया कि इस मामले में गिरफ्तारी में काफी समय लगाया गया। यह इसलिए जरूरी होता है कि आरोपी उत्पीड़ित बच्चे और उसके परिवार को डरा सकता है या नुकसान पहुंचा सकता है, साक्ष्य के साथ छेड़-छाड़ भी कर सकता है। बृजभूषण शरण के केस में नाबालिग बच्ची के साथ ऐसा ही हुआ। उसने केस वापस ले लिया।

इसलिए यह जरूरी है कि दिल्ली महिला आयोग ही नहीं, तमाम महिला संगठन और महिला अधिवक्ता इस केस पर नज़र रखें। लड़की व उसकी मां को सुरक्षा दिलाने की लड़ाई में प्रियंका गांधी को भी आगे आना होगा, तभी वह विपक्ष में कांग्रेस की साख भी रख सकेंगी। वर्तमान समय में महिला आंदोलन के समक्ष बड़ी चुनौती है, क्योंकि बलात्कारी और राजनीतिक संरक्षण-प्राप्त दरिंदे न्याय के लम्बे हाथों से भी बच निकल रहे हैं। उनका महिमामंडन भी हो रहा है क्योंकि 2024 के आम चुनाव में उनकी जरूरत कइयों को होगी। सावधान रहने की जरूरत है और आवाज़ उठाने की भी।

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)

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