जन्मदिवस पर विशेष: इंक़लाब, तब्दीली और उम्मीद के शायर मजाज़

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दीगर शायरों की तरह मजाज़ की शायराना ज़िंदगी की इब्तिदा, ग़ज़लगोई से हुई। शुरुआत भी लाजवाब हुई,

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूं न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए

इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए

इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में

सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।

लेकिन चंद ही ग़ज़लें कहने के बाद, मजाज़ नज़्म के मैदान में आ गए। आगे चलकर नज़्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया। अलबत्ता बीच-बीच में वे जरूर ग़ज़ल लिखते रहे। मजाज़ की तालीम अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में हुई।

अलीगढ़, उस वक़्त इंक़लाबी ख़यालात रखने वाले तालिब-ए-इल्मों और उस्तादों का गढ़ बना हुआ था। अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन, जांनिसार अख़्तर, हयातुल्लाह अंसारी, जज़्बी, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे उर्दू अदब के बड़े नाम उस समय एक साथ, वहां तालीम ले रहे थे।

इस अदबी माहौल का असर मजाज़ की शख़्सियत पर भी पड़ा और यही वह ज़माना था जब उन्होंने ‘इंक़लाब’, ‘नज़र-ए-खालिदा’ और ‘रात और रेल’ जैसी अपनी मक़बूल नज़्में लिखीं। अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज़ नौजवानों दिलों की धड़कन बन गए। उनके शे’र, हर एक की ज़बान पर आ गए।

अपनी तालीम पूरी करने के बाद, मजाज़ दिल्ली चले गए। जहां उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में एक-दो साल मुलाज़मत की। लेकिन उन्हें यह नौकरी रास नहीं आई, लिहाज़ा वे वापस लौटकर लखनऊ आ गए। लखनऊ उस वक़्त तरक़्क़ीपसंद अदीबों का अड्डा बना हुआ था। सज्जाद ज़हीर, डॉ. रशीद जहां, डॉ. अब्दुल अलीम, एहतिशाम हुसैन, हयातुल्लाह अंसारी, अहमद अली जैसे आला दर्ज़े के अदीब यहां एक साथ सरगर्म थे। मजाज़ भी इस ग्रुप में शामिल हो गए।

लखनऊ में मजाज़ ने सिब्ते हसन और अली सरदार जाफ़री के साथ मिलकर पहले ‘परचम’ और साल 1939 में ‘नया अदब’ रिसाला निकाला, जो बाद में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का मुख्यपत्र बन गया। बहरहाल ‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने मजाज़ को एक नई पहचान दी। मजाज़ का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निज़ाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था।

‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन गई। नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज़्म में उनके ख़यालात की अक्कासी की है। ‘आवारा’ नज़्म पर यदि ग़ौर करें, तो इस नज़्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतिजाज और बग़ावत के सुर भी हैं। यही वजह है कि ‘आवारा’ नौजवानों की पंसदीदा नज़्म बन गई। आज भी यह नज़्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है।

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूं

जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं

ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं

ए-ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं।

‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फ़िदा नहीं थी, मजाज़ के साथी शायर भी इस नज़्म की तारीफ़ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए। उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफ़री ने लिखा है, “यह नज़्म नौजवानों का ऐलान-नामा थी और आवारा का किरदार उर्दू शायरी में बग़ावत और आज़ादी का पैकर बनकर उभर आया है।’’ इस नज़्म के अलावा मजाज़ की ‘शहर-ए-निगार’, ‘एतिराफ़’ वगैरह नज़्मों का भी कोई जवाब नहीं। ख़ास तौर पर जब वे अपनी नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को ख़िताब करते हुए कहते थे,

जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर

अजल भी कांप उठे वो शबाब पैदा कर

तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर

जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर।

तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज़्बा पैदा करती थी। उनमें अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुज़रने का जज़्बा जाग उठता था। वे अपने वतन पर मर मिटने को तैयार हो जाते थे। वतनपरस्ती और मुल्क के जानिब मुहब्बत जगाती उनकी एक और मक़बूल नज़्म ‘हमारा झंडा’ के चंद अश्आर हैं,

शेर हैं चलते हैं दर्राते हुए

बादलों की तरह मंडलाते हुए

लाख लश्कर आएं कब हिलते हैं हम

आंधियों में जंग की खिलते हैं हम

मौत से हंस कर गले मिलते हैं हम

आज झंडा है हमारे हाथ में।

मजाज़ जिस दौर में लिख रहे थे, उस दौर में फै़ज़ अहमद फ़ै़ज़, अली सरदार जाफ़री, मख़दूम, मुईन अहसन जज़्बी आदि भी अपनी शायरी से पूरे मुल्क में धूम मचाए हुए थे। लेकिन वे इन शायरों में सबसे ज़्यादा मक़बूल और दिलपसंद थे। मजाज़ की ज़िंदगानी में उनकी नज़्मों का सिर्फ़ एक मजमूआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साज़-ए-नौ’ के नाम से भी शाए हुआ। ‘आहंग’ में मजाज़ की तक़रीबन साठ नज़्में शामिल हैं और सभी नज़्में एक से बढ़कर एक।

फ़ैज़ ने मजाज़ की क़िताब ‘आहंग’ की भूमिका लिखी थी। भूमिका का निचोड़ है,‘‘मजाज़ की समूची शायरी शमशीर, साज़ और जाम का शानदार संगम है। ग़ालिबन इसी वजह से उनका कलाम ज़्यादा मक़बूल भी है।’’ अपनी इसी भूमिका में फै़ज़ उनकी शायरी का मूल्यांकन करते हुए आगे लिखते हैं,‘‘मजाज़ इंक़लाब का ढिंढोरची नहीं, इंक़लाब का मुतरिब (गायक) है। उसके नग़में में बरसात के दिन की सी सुकूनबख़्श खुनकी है और बहार की रात की सी गर्मजोश तास्सुर आफ़रीनी !’’

वहीं सज्जाद ज़हीर की नज़र में ‘‘मजाज़ इंक़लाब, तब्दीली और उम्मीद का शायर है।’’ फै़ज़ अहमद फै़ज़, मजाज़ की ‘ख़्वाब-ए-सहर’ और ‘नौजवान ख़ातून से ख़िताब’ नज़्मों को सबसे मुकम्मल और सबसे कामयाब तरक़्क़ीपसंद नज़्मों में से एक मानते थे। फै़ज़ की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफ़ाक़ी जतला सकता है। ‘नौजवान ख़ातून से ख़िताब’ नज़्म, है भी वाक़ई ऐसी,

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर गर उठा लेती तो अच्छा था

ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन

तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।

इस नज़्म में साफ़ दिखलाई देता है कि मजाज़ औरतों के हुक़ूक़ के हामी थे और मर्द-औरत की समानता के पैरोकार। मर्द के मुक़ाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे। उनकी निगाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था। मजाज़ शाइर-ए-आतिश नफ़स थे, जिन्हें कुछ लोगों ने जानबूझकर रूमानी शायर तक ही महदूद कर दिया। यह बात सच है कि मजाज़ की शायरी में रूमानियत है, लेकिन जब उसमें इंक़लाबियत और बग़ावत का मेल हुआ, तो वह एक अलग ही तर्ज़ की शायरी हुई।

बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना

तिरी जुल्फ़ों का पेचो-खम नहीं है

ब-ई-सैले-गमो-सैले-हवादिस

मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है।

मजाज़ ने दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह ग़ज़लों की बजाए नज़्में ज़्यादा लिखीं। उन्होंने शायरी में मोहब्बत के गीत गाये, तो मज़दूर-किसानों के जज़्बात को भी अपनी आवाज़ दी। मज़दूरों का आह्वान करते हुए वे अपनी लंबी नज़्म ‘मज़दूरों का गीत’ में लिखते हैं,

मेहनत से ये माना चूर हैं हम

आराम से कोसों दूर हैं हम

पर लड़ने पर मजबूर हैं हम

मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

जिस सम्त बढ़ा देते हैं क़दम

झुक जाते हैं शाहों के परचम

सावंत हैं हम बलवंत हैं हम

मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

हम क्या हैं कभी दिखला देंगे

हम नज़्म-ए-कुहन को ढा देंगे

हम अर्ज़-ओ-समा को हिला देंगे

मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम।

मजाज़ ने अपनी नज़्मों में दकियानूसियत, सियासी गुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी और सामंतवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। उनकी नज़्मों में हमें आज़ादख़्याली, समानता और इंसानी हक़ की गूंज सुनाई देती है। ‘हमारा झंडा’, ‘इंक़लाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मज़दूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफ़िर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंग-ए-नौ’ वगैरह उनकी नज़्में इस बात की तस्दीक़ करती हैं। यह नज़्में कहीं-कहीं तो आंदोलनधर्मी गीत बन जाती हैं। मिसाल के तौर पर उनकी एक और मशहूर नज़्म ‘इंक़लाब’ देखिए,

छोड़ दे मुतरिब बस अब लिल्लाह पीछा छोड़ दे

काम का ये वक़्त है कुछ काम करने दे मुझे

फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब

उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब

ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम

रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम।

मजाज़ अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद दोनों को ही अपना दुश्मन समझते थे। उनकी नज़र में दोनों ने ही इंसानियत को एक समान नुकसान पहुंचाया है। मजाज़ ने अपनी नज़्मों में न सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत के हर तरह के ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की, बल्कि जब दुनिया पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ़ासिज्म का ख़तरा मंडराया, तो उसके ख़िलाफ़ भी वे ख़ामोश नहीं रहे। ऐसे शिकस्ता माहौल में उन्होंने न सिर्फ़ एक तफ़्सीली बयान दिया बल्कि एक नज़्म ‘आहंग-ए-नौ’ भी लिखी।

मजाज़ का यह तारीख़ी बयान साल 1943 में ‘नया अदब’ में शाए हुआ। उनके इस बयान को पढ़ने से मालूम चलता है कि वे कितने संजीदा और वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध थे। यक़ीन न हो, तो बयान के एक छोटे से हिस्से पर नज़र डालिए-

‘‘हम तरक़्क़ीपसंद अदीब अब तक अपने आर्ट से तलवार का काम लेते रहे हैं। हमने हर क़िस्म की नाइंसाफ़ी और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की है। फिर कोई वजह नहीं कि इंसानियत और तहज़ीब के सबसे बड़े दुश्मन फ़ासिज़्म के मुक़ाबले में हम अपनी तलवार म्यान में रख लें। हमारे नग़मों को आज दोबारा वतन की फ़िज़ाओं में गूंजना चाहिए। ताकि एकता, आत्मविश्वास और क़ुर्बानी के जज़्बात से मालामाल होकर, हम अपने रास्ते से हर उस रुकावट को हटा दें, जो अंधे सामराजी हमारी राह में खड़ी करते रहे हैं। और तमाम दुनिया के अवाम के साथ मिलकर इस जंग-ए-आज़ादी में इस तरह शरीक हों, जो हमारे अज़ीम मुल्क की गरिमा के अनुकूल है।’’

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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