भारतीय न्यायपालिका में पोस्ट-ट्रुथ युग

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नये साल के प्रारंभ के साथ ही जब 3 जनवरी को अडानी समूह की अपने शेयरों की क़ीमतों के मामले में हेराफेरियों के बारे में प्रसिद्ध हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का वक्त आया, उसके ठीक पहले इस लेखक ने फ़ेसबुक पर यह भविष्यवाणीमूलक टिप्पणी की थी कि “आज हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर जांच को ठुकराया जायेगा!”

इस टिप्पणी में कहा गया था कि “आज अडानी समूह के ग़ैर-क़ानूनी वित्तीय क्रियाकलापों पर प्रसिद्ध हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर हमारे सुप्रीम कोर्ट के महाज्ञानी मुख्य न्यायाधीश की बेंच फ़ैसला सुनाने वाली है। अब यह जग ज़ाहिर है कि हमारे वर्तमान ज्ञानी सीजेआई आज के पोस्ट ट्रुथ युग की एक विशेष उपज हैं।”

इसमें पोस्ट-ट्रुथ को परिभाषित करते हुए कहा गया था कि “हमारा पोस्ट-ट्रुथ है- धर्म-निरपेक्ष राज्य और जनतंत्र के सत्य के विपरीत धर्म-आधारित सांप्रदायिक राज्य और तानाशाही। क़ानून के शासन के विपरीत शासक की मनमर्ज़ी।”

जैसे किसी भी युग के सत्य को उसका परमार्थ कहा जाता है जो उस युग के सभी प्रमाता के रूपों में किसी न किसी रूप में अपने को प्रकट करता है। हमारे शैव धर्मशास्त्रों में इसे ही शंभु कहा गया है। उसी प्रकार जब हम किसी युग को पोस्ट-ट्रुथ अर्थात् असत्य का युग कहते हैं तो उस पोस्ट-ट्रुथ को ही उस युग का परमार्थ कहा जायेगा।

परमार्थ अर्थात् प्रमाता से परे अनादि रूप में स्थित समस्त चराचर पर व्याप्त अर्थ जो एक या अनेक रूपों में समस्त प्रमाताओं में प्रविष्ट होता है। समग्र प्रतीतियों का प्रमाता अथवा उनके अनुभवित होने का कारण।

हमारे अभिनवगुप्त की शब्दावली में- “परं परस्थं गहनाद् अनादिम्
एकं विशिष्टं बहुदा गुहासु।
सर्वालयं सर्वचराचरस्थं
त्वामेब शम्भुं शरणं प्रपद्ये।।” (परमार्थसार -1)

हम सभी जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में मोदी के भ्रष्टाचार की जांच से इंकार करने के बाद राम जन्मभूमि के मामले में बहुसंख्यक धर्म के प्रति पक्षपात करके नग्न रूप में न्यायपालिका में पोस्ट-ट्रुथ युग का प्रारंभ किया था। अभी हम उसी पोस्ट-ट्रुथ के युग में जी रहे हैं।

हमारे संविधान का अपना सत्य है मानवता, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा अर्थात् न्याय और धर्म-निरपेक्षता। और, इसका पोस्ट-ट्रुथ है- धर्म की प्रधानता, भेद-भाव, ग़ैर-बराबरी, स्वतंत्रताओं का हनन, नागरिक का दमन अर्थात् शोषण, जुल्म, सांप्रदायिक और जातिवादी भेद-भाव- समग्र रूप से फासीवाद।

ऐसे में वर्तमान काल को पोस्ट-ट्रुथ का काल कहने का तात्पर्य है कि प्रमाता के सारे संकेतक मानव-केंद्रिक सत्य के बजाय धर्म, सांप्रदायिकता और फासीवाद के असत्य की ओर धावित होने लगते हैं। इस युग का परमार्थ यह असत्य ही होता है।

इसी प्रसंग में, सुप्रीम कोर्ट के पिछले कई फ़ैसलों, ख़ास तौर पर धारा 370 पर सुनाए गए अविवेकपूर्ण फैसले की पृष्ठभूमि में हमने लिखा था कि “हमारे सीजेआई के मुखारबिंद से यही पोस्ट-ट्रुथ नाना रूपों में अविरल रूप में व्यक्त होता रहा है। आज उसी का एक और रूप देखने को मिलेगा।”

“सीजेआई पूरी मौज में आज हिंडनबर्ग रिपोर्ट की धज्जियां उड़ाते दिखाई देंगे, क्योंकि वे इस पोस्ट-ट्रुथ युग के ट्रुथ को व्यक्त कर रहे होंगे।”

उसी दिन, बाद में जब हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर सेबी की जांच के मामले में जब अंतिम फ़ैसला आया तो हुबहू हमारी आशंका के अनुरूप ही सुप्रीम कोर्ट ने अडानी के रक्षक सेबी को ही हिंडनबर्ग मामले की जांच को जारी रखने का आदेश दे दिया। उल्टे, एक दमनकारी शासन के चरित्र को ज़ाहिर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फ़रियादी को ही दंड सुनाने का भी फ़ैसला किया और सरकार से कहा कि वह हिंडनबर्ग रिपोर्ट की जांच करें कि उसके पीछे असली मंशा क्या थी!

इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने अडानी और सरकार, दोनों को अभय दिया, और अडानी की करतूतों पर सवाल उठाने वालों को एक कड़ी चेतावनी भी दे डाली।

कहना न होगा, आज हमारे सीजेआई भारतीय न्यायपालिका में पोस्ट-ट्रुथ युग के प्रमुख प्रतीक बन चुके हैं। भारत में फासीवाद की स्थापना में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका के इतिहास में रंजन गोगई के पद-चिह्नों पर चलने वाले दूसरे प्रमुख नाम के तौर पर डी वाई चंद्रचूड़ के नाम को भी याद रखा जायेगा।

(अरुण माहेश्वरी आलोचक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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