प्रतीकात्मक पेंटिंग।

स्कूल और छात्र के बीच महज मध्यस्थ नहीं है अध्यापक

महामारी ने हमारी सामूहिक सोच को अव्यवस्थित कर दिया है। और यह मान लिया गया है कि दुनिया बिखर चुकी है। मैं खुद से एक जरूरी सवाल पूछता हूंः हम खुद को एक अध्यापक के बतौर कैसे परिभाषित करें? सचमुच में ‘कर्मचारी’ या ‘पेशेवर’? हम वही करते हैं जो अकादमिक जगत के नौकरशाह हमें करने का निर्देश देते हैं। इस तरह से शिक्षा आभासी संचार तक सीमित कर दी जाती है जिसमें सरकारी पाठ्यक्रम और हर तरह की परीक्षाओं को पूरा कराना होता है।

और अब हम टेक्नो सैवी बनने का प्रशिक्षण ले रहे हैं : जूम या गूगल मीट अब नये संरक्षक बन कर उभरे हैं। हालांकि, हमारे जैसा समाज जो भयावह तरीके से विभाजित है और ‘डिजिटल विभाजनों’ के तौर पर अक्सर दिखने वाले गुस्से के बावजूद हम लोगों ने तकरीबन ऑनलाइन शिक्षा को सामान्य बना रखा है। हम शायद ही कभी शिक्षा के इस रूटीन वाली, आत्माविहीन टेक्नो प्रबंधकीय रवैये के बाहर देख पाते हैं।

एक अध्यापक के तौर पर क्या हमारी आवाज है? क्या हम सब लोगों के खड़े होकर यह कहने की संभावना है कि हम सिर्फ सरकारी पाठ्यक्रमों और छात्रों के बीच के मशीन मध्यस्थ नहीं हैं? क्योंकि हम दोस्त भी हैं, एक दूसरे से संचार करने वाले और घावों को भरने वाले भी हैं? और खासतौर से जब मानसिक बेचैनी, आर्थिक कमजोरी, मौत का डर और अस्तित्व की अनिश्चितता के चलते एक नकारात्मक कंपन पैदा हुआ है जिसने हमारे छात्रों समेत सभी को अपनी चपेट में ले रखा है। तब क्या हमें उन्हें केवल बीए/एमए की परीक्षा की तैयारियां करवानी चाहिए?

क्या यह जरूरी नहीं है कि हमें उन्हें लेवी स्ट्रॉस पर एक तकनीक लेक्चर या फिर चुंबकीय क्षेत्र के सिद्धांत पर एक चैप्टर और फिर इन संतप्त आत्माओं से जुड़ने और महामारी ने हमारे सामने जो अस्तित्व की परीक्षा का खतरा पैदा किया है उससे सामूहिक तौर पर लड़ने की दिशा में तैयार करने के लिए- आधुनिकता की आत्मुग्धता से बाहर आएं, खुद को गर्वीले विजेता की जगह एक विनम्र पथिक की तरह देखें, अपने भीतर बसी अस्तित्व की अनिश्चितताओं को स्वीकार करें और जीवन की एक ऐसी व्यवस्था विकसित करें जो बड़े इकोसिस्टम से जुड़कर हमारी मदद कर सके? 

बहरहाल, मैं जानता हूं कि यथार्थ कठिन है। जाॅन कीटींग की तरह का एक अध्यापक का होना असंभव है जैसा कि उन्हें ‘डेड पोयेट सोसायटी’ फिल्म में अभूतपूर्व तरीके से संवेदनशील दिखाया गया है। मैं यह भी जानता हूं कि टैगोर जैसे शिक्षक भी ‘द पोयेट स्कूल’ में बुलाया जाना पसंद करते। ऐसा स्कूल मिलना कठिन है। मैं इस बात से भी वाकिफ हूं कि हमारे विश्वविद्यालय के ‘विशेषज्ञ’ और ‘शोधकर्ता’ मुझे यह बतायेंगे कि शिक्षण एक तटस्थ काम है जो विशिष्ट अकादमिक ज्ञान को प्रसारित करता है। और इसका आत्म के विकास से कोई लेना-देना नहीं है।

इसीलिए, जो चीज मैं आम तौर पर देखा हूं वह यह कि एक थका-मादा अध्यापक है जो सरकारी स्कूल में शोरगुल से भरी कक्षा में एक कृत्रिम सा अनुशासन बनाने की कोशिश कर रहा है। यह विक्षुब्ध शिक्षक पहले से ही जनगणना/चुनाव की जिम्मेदारी या मिड-डे मील के प्रबंधन के कामों के नीचे दबा पड़ा है। एक अच्छा दिखने वाले स्कूल में अध्यापक वह बात तलाश रहा है जिससे बच्चे एक अलग सी दिखने वाली सांस्कृतिक पूंजी के साथ ‘टाॅपर’ बन जायें। यूजीसी निर्देशित ‘प्रकाशनों’ के भारी बोझ से दबा एक काॅलेज का शिक्षक अपनी अगली प्रोन्नति के इंतजार में है। और, तेजी से आगे बढ़ने वाली दुकानों जिनका मूल्य बाजार संचालित लाभ के तर्क से ज्यादा नहीं है, में एक अध्यापक की हैसियत ‘तकनीकी कौशल’ के व्यापारी की ही है।

इसीलिए मुझे आलोचकों द्वारा याद दिलाया जाएगा कि अध्यापक समुदाय से किसी अलग गुणवत्ता की कल्पना करना बेकार है। यहां तक कि इस आपदा में भी वे दिखावा करेंगे कि सब कुछ सामान्य है और गणित या इतिहास पहले की ही तरह पढ़ाया जा सकता है। इस तरह से प्ले स्कूल के एक तीन साल के बच्चे को जबरदस्ती लैपटाॅप के सामने बैठाया जाएगा और उससे पहाड़ी के पीछे से उगते सूरज को चित्रित करने की ‘तकनीक’ को सीखने के लिए कहा जाएगा।

या दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के एक स्नातक छात्र से जूम पर एकदम सहज होकर प्रोफेसर से ‘पियरे बोर्दियो’ की बेहद रहस्यमयी  ‘पूंजी’ और ‘हैबिटस’ के सिद्धांत को समझने की अपेक्षा की जाएगी। यहां यह बात मायने नहीं रखती कि उसके पिता की नौकरी चली गई है या फिर उसकी चाची कोविड पाजिटिव पायी गयी हैं या फिर उसके नजदीकी दोस्त की मौत हो गयी है। काम पहले जैसा ही चलते रहना है। शिक्षक के लिए जरूरी है कि वह छात्रों की उपस्थिति और उनकी कुशलता का रजिस्टर ऑनलाइन बनाकर संबंधित प्राधिकारी को भेजता रहे। 

यहां तक कि इस उलझाऊ समय में भी हम क्यों नहीं अध्यापक के तौर पर अपनी भूमिका की पुनर्समीक्षा कर रहे हैं? एक संभावित कारण यह हो सकता है कि हम एक खतरनाक चक्रीय घेरे में फंस गये हैं। यहां एक समाज है जो अपने अध्यापक का मूल्य गिराता है- यह उनमें विश्वास नहीं करता है। जैसा कि यह सत्ता और पैसे की पूजा करता है। उसे लगता है कि स्कूल अध्यापक स्थानीय पुलिस स्टेशन के सब इंस्पेक्टर से भी कुछ कमतर है। या फिर उस लिहाज से एक आईएएस ऑफिसर को हर अधिकार है कि वह विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को कुछ पाठ तो सिखा ही दे।

दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज ही है जो दिमाग से बेहद तेज युवाओं को अध्यापन का कार्यभार चुनने के लिए हतोत्साहित करता है। इसके अलावा हमारे जैसे भ्रष्ट समाज में सभी तरह की ‘नेटवर्किंग’, राजनीतिक पहुंच और परिवारवाद अध्यापकों की भर्ती को प्रभावित करती है। यहां तक कि उपकुलपति की नियुक्तियां भी प्रभावित होती हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अक्सर ही अध्यापक के बतौर हम खुद को अनिश्चित, टूटा हुआ और चोटिल पाते हैं। ऐसे में कुछ और प्रयोग तथा खोज कर पाना बेहद कठिन हो जाता है। सच्चाई की रोशनी को आगे ले जायें और युवा पीढ़ी को रौशन करें। मौजूदा दौर के तौर-तरीके हमारी सर्जनात्मक क्षमताओं को नष्ट करते हैं।

ये अध्ययन की मशीनों की बेजान बनावटें हैं उसमें से हम सिर्फ दिये गये पाठ्यक्रम को ‘पूरा करने’ वाले और ऊपर की सत्ता को सभी तरह के आंकड़ों को भेजने वाले बन कर रह जाते हैं। और, अब जो नेशनल टेस्टिंग एजेंसी और एमसीक्यू पैटर्न पर होने वाली परीक्षाओं का दौर आ गया है, उसके बाद हमें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। केवल इतना ही पर्याप्त होगा कि छात्र के मस्तिष्क को सभी तरह के ज्ञान की सुपाच्य गोलियों से भर दें। दूसरे शब्दों में, हमें खुद से बहुत ज्यादा की उम्मीद नहीं करनी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हम इस महामारी के समय में शिक्षा को साॅफ्टवेयर तरीकों में सीमित कर देने से अधिक कुछ नहीं कर रहे हैं। 

फिर भी, मैं निराशा के साथ अपनी बात खत्म नहीं करना चाहता। इन सारी संरचनात्मक बाधाओं और तकनीकी प्रबंधकों या अकादमिक नौकरशाहों के आदेशों के बावजूद कुल मिलाकर अभी भी अपने बीच ऐसे अध्यापकों को खोज पाना असंभव नहीं है जो संभावनाओं की कला में अभी भी विश्वास करते हैं। उनके लिए पढ़ाना सिर्फ एक ‘तकनीक’ नहीं है। यह मूलतः एक कला है। एक अन्वेषण है।अपने तरह का मनन-चिंतन है। और संभव है कि आभासी कक्षाओं में भी वे कुछ और अधिक कर रहे होंगे सिवाय जीवविज्ञान और भूगोल के नोट्स नोट कराने के। वे तकलीफ से भरे अपने छात्रों के दिल छू रहे होंगे और उनके घावों पर मरहम लगा रहे होंगे। आइए, शिक्षक दिवस पर उन्हें सलाम पेश करें।

(अविजीत पाठक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित उनके इस लेख का अनुवाद सामाजिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार ने किया है।)

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