एक रोशनी जो जुगनू की चमक साबित हुई

यूक्रेन पर रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद भारत सरकार ने जो रुख लिया, उससे दुनिया भर के कूटनीतिक विशेषज्ञ चौंके। संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा के लिए पश्चिमी देशों की तरफ से लाए गए प्रस्ताव पर भारत मतदान में शामिल नहीं हुआ। इससे लगे झटके को पश्चिमी राजधानियों में साफ महसूस किया गया। मंत्रियों और कूटनीतिकों के बयानों के बाद आखिरकार अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस पर टिप्पणी की। उन्होंने भारत को इस मुद्दे पर shaky (यानी डांवाडोल या भयाक्रांत) कह दिया। 

बहरहाल, दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों में भारत के इस रुख से उम्मीदें जगीं। जहां उम्मीदें जगीं, उनमें चीन भी है। चूंकि अब चीन और रूस के बीच एक स्पष्ट और ठोस धुरी उभर चुकी है, इसलिए समझा जा सकता है कि वहां जगी आशाओं का एक व्यापक संदर्भ था। दुनिया के इन हिस्सों में कहा गया कि भारत के रुख से एक ओपनिंग (नई शुरुआत) की संभावना जगी है। 

यानी आशा पैदा हुई, 

  • बीते डेढ़ दशक से भारत अमेरिकी धुरी से खुद को जोड़ने की जिस राह पर चला है, उससे वह अब हट सकता है। या कम से कम अमेरिकी प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने की अपनी गति पर अब ब्रेक लगा सकता है।
  • संभावना जताई गई कि अगर भारत ने ऐसा किया, तो वह फिर से उस परिघटना का हिस्सा बन सकता है, जिसकी वजह से बहुध्रुवीय दुनिया अब अस्तित्व में आ रही है। इस सदी के आरंभ में जब BRICS (ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका) RIC (रूस- भारत- चीन) जैसे नए अंतरराष्ट्रीय मंच उभरे थे, तब समझा गया था कि सोवियत संघ के विघटन के बाद बनी एकध्रुवीय दुनिया (यानी संपूर्ण अमेरिकी वर्चस्व वाली दुनिया) का विकल्प उनसे उभर सकता है। लेकिन खास कर भारत और ब्राजील की आंतरिक राजनीतिक स्थितियों में आए बदलाव ने 2010 के दशक में उस संभावना पर विराम लगा दिया।
  • फिलहाल, संभावना यह बनी कि जिस समय चीन-रूस की धुरी उभरने के कारण अमेरिकी साम्राज्यवाद के एकछत्रीय वर्चस्व के अंत की पटकथा लिखी जा रही है, उस समय भारत भी साम्राज्यवाद के उपरांत की दुनिया के निर्माण में अपनी खास भूमिका निभाएगा। उपनिवेशवाद से संघर्ष में जिस देश की समृद्ध विरासत रही हो, उससे ऐसी अपेक्षा निराधार नहीं है।

लेकिन यूक्रेन संकट के सिलसिले में दुनिया भर में जिस तेज रफ्तार से कूटनीति हुई और विभिन्न देशों को अपने-अपने पाले में लाने की जो कोशिशें हुईं हैं, उनके बीच भारत ने किसी नई ओपनिंग की संभावना पर जल्द ही विराम लगा दिया है। इसके आरंभिक संकेत जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वार्ताओं से मिले। ऑस्ट्रेलिया और जापान दोनों अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डायलॉग (क्वैड) का हिस्सा हैं, जिसमें भारत भी शामिल है। 

किशिदा और मॉरीसन के साथ मोदी की बातचीत के बाद जो आधिकारिक जानकारियां सामने आईं, उनसे यह जाहिर हुआ कि भारत अमेरिका की क्वैड रणनीति का हिस्सा बने रहने के प्रति कृतसंकल्प है। रूस के मामले में लिए गए अपने रुख के बचाव में भारत की तरफ से यह कहा गया कि क्वैड को अपना ध्यान एशिया-प्रशांत क्षेत्र पर ही केंद्रित रखना चाहिए। यानी इसमें शामिल देशों को अन्य क्षेत्रों से जुड़े मामलों पर भारत के रुख को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे तमाम संकेत हैं कि क्वैड में शामिल देश- और अन्य पश्चिमी मुल्क भी- भले ही मायूस मन से, लेकिन भारत के रूस से विशेष ऐतिहासिक और रक्षा संबंधी रिश्तों को समझते हुए यूक्रेन मामले में उसके रुख को स्वीकार करने पर तैयार हो गए हैं।

इस संकेत के बावजूद चीन के विदेश मंत्री वांग यी 24-25 मार्च को भारत आए। चीनी सूत्रों के हवाले से मीडिया में आई खबरों में कहा गया था कि वांग की इस यात्रा का मकसद भारत का मूड भांपना है। यानी वे यह जानना चाहते थे कि क्या यूक्रेन संकट पर भारत ने जो रुख अपनाया है, उसके पीछे भारत की कोई नई और व्यापक रणनीतिक समझ है, या यह सिर्फ एक मामले में अपने विशेष हित की रक्षा के लिए उठाया गया एक तरह का ट्रांजैक्शनल (लेन-देन की भावना से प्रेरित) कदम है? 

जब चीनी विदेश मंत्री भारत आए, तो उन्हें यह साफ संदेश मिला कि यूक्रेन मामले में भारत के रुख का एक सीमित संदर्भ ही है। नई दिल्ली में हुई चर्चाओं पर भारत-चीन का आपसी विवाद छाया रहा। यह साफ हुआ कि भारत की मुख्य चिंता चीन के साथ सीमा विवाद है, जो पिछले दो साल में और अधिक तीखा हो गया है। ये बात पहले भी स्पष्ट थी और वांग की यात्रा के दौरान उस पर और रोशनी पड़ी कि सीमा विवाद पर भारत और चीन की समझ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। ये अंतर क्या है, इस पर गौर करना जरूरी हैः

  • भारत ने इसे बेलाग कहा कि जब तक सीमा पर तनाव बना हुआ है और दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी हैं, तब तक बाकी मोर्चों पर दोनों देशों के संबंध सामान्य नहीं हो सकते।
  • जबकि चीनी पक्ष का जोर इस बात पर था कि 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बीजिंग यात्रा के बाद बाकी संबंधों को सीमा विवाद का बंधक ना बनाने की जो नीति अपनाई गई थी, उसे फिर से अमल में लाया जाए। यानी सीमा विवाद को सुलझाने की वार्ता चलती रहे, लेकिन साथ ही व्यापार, अंतरराष्ट्रीय सहयोग, और BRICS, RIC और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे मंचों के जरिए दोनों देश साझा वैश्विक रुख अपनाने की तरफ आगे बढ़ें। राजीव गांधी की चीन यात्रा के समय अपनाई गई नीति नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक जारी रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने भी इस नीति का अनुपालन किया था।  

यह निर्विवाद है कि सीमा विवाद 2008 के बाद से अधिक गंभीर रूप लेता गया। ये वही साल है, जब भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया था। मोदी के शासन काल में पहले डोकलाम विवाद हुआ, जिसे पहले के मौकों की तरह हल कर लिया गया। लेकिन मई 2020 में लद्दाख सेक्टर में चीनी फौजों के आगे आकर जम जाने से सीमा विवाद ने एक बेहद गंभीर रूप धारण कर रखा है। इसी दौरान गलवान घाटी की घटना हुई, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए। हालांकि भारत सरकार ने दो टूक कहा है कि भारत की एक इंच भी जमीन पर चीन ने कोई नया कब्जा नहीं जमाया है, लेकिन उसकी यह राय भी रही है कि सीमा पर चीन ने जिस बड़े पैमाने पर सेना का जमावड़ा किया है, उससे वहां तनाव की स्थिति है। वैसे भारत में मीडिया रिपोर्टों और अनेक रक्षा विशेषज्ञों की तरफ से लगातार यह बात कही गई है कि मई 2020 के बाद चीनी सेना उस इलाके तक आ जमी है, जहां उसके पहले तक भारतीय सुरक्षा बल गश्त लगाते थे। 

अनेक रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि चीनी सेना लद्दाख सेक्टर में अब उस बिंदु तक आ गई है, जिसे 1959 में भारत को सौंपे नक्शे में चीन ने ‘सीमा’ बताया था। तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झाओ एनलाई ने ये नक्शा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया था। लेकिन नेहरू सरकार ने उसे अस्वीकार कर दिया। भारत मैकमोहन लाइन को सीमा मानने के अपने रुख पर अडिग रहा। कहा जाता है कि इस मतभेद की वजह से ही तब सीमा वार्ता टूट गई थी। नेहरू सरकार ने काल्पनिक मैकमोहन लाइन तक के इलाके तक फॉरवर्ड पोस्ट की बनाने की नीति अपनाई, जो अंततः 1962 में भारत-चीन युद्ध का कारण बना।

रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक देपसांग जैसे इलाकों पर अपना कब्जा पाकिस्तान के साथ बने अपने आर्थिक और सैनिक हितों की रक्षा के लिए चीन जरूरी मानता है। इसलिए उसने अब औपचारिक रूप से एकतरफा ढंग से 1959 के नक्शे को सीमा बताना शुरू कर दिया है। इसी नीति के तहत चीनी सेना दो साल पहले आगे बढ़ी। नतीजतन, जिन नए क्षेत्रों में चीनी फौज दो साल पहले आई, चीन सरकार उसे वहां से पीछे हटाने को अब बिल्कुल तैयार नहीं है। चीनी नीतियों के पर्यवेक्षक 2020 में चीन की नीति में आए बदलाव के सिलसिले में अक्सर तीन कारणों का जिक्र करते हैं: 

  • क्वैड में भारत की बढ़ रही भूमिका से चीन परेशान था। दरअसल, 2008 के बाद से जैसे-जैसे भारत अमेरिका के करीब होता गया, चीन का भारत के प्रति रुख सख्त होने लगा। आखिरकार उसने भारत पर दबाव बढ़ाने का फैसला किया। 
  • 2019 में पुलवामा घटना के बाद भारत ने जिस तरह पाकिस्तान की सीमा के अंदर जाकर बालाकोट पर हवाई हमला किया, उसे चीन ने अपने लिए खतरे का संकेत माना। चीन में राय बनी कि भारत अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का ख्याल नहीं कर रहा है। ऐसे में वह भविष्य में चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) पर भी हमले कर सकता है, जहां चीन का लगभग 60 बिलियन डॉलर का निवेश है। चीन में यह राय भी बनी भारत कभी चीन में भी ऐसी कार्रवाई कर सकता है।
  • पांच अगस्त 2019 को भारत ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया। उसके साथ ही लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। लद्दाख के एक बड़े क्षेत्र पर चीन का दावा रहा है। चीन का आरोप रहा है कि भारत ने एकतरफा ढंग से लद्दाख की यथास्थिति को बदल दिया है। इस तरह उसने अक्साई चिन और लद्दाख के अन्य इलाकों पर चीनी दावे को निष्प्रभावी करने की कोशिश की है। 

अगर लद्दाख क्षेत्र में सैनिक मौजूदगी बढ़ाने और वहां एकतरफा ढंग से 1959 का नक्शा लागू करने की चीनी कोशिशों की सचमुच यही वजहें हैं, तो समझा जा सकता है कि चीन किसी अन्य क्षेत्रीय या वैश्विक समीकरण के लिए अपने ये कदम वापस नहीं खींचेगा। जबकि भारत के लिए लद्दाख में बने नए हालात को स्वीकार करने का मतलब यह है कि भारत 1959 के नक्शे को स्वीकार कर ले। इसके परिणाम पूरब यानी अरुणाचल प्रदेश की तरफ भी हो सकते हैं। स्पष्टतः यह ऐसी स्थिति है, जिस पर दोनों पक्षों में सहमति बनना आसान नहीं है। ऐसे में वांग की यात्रा के दौरान बात तभी आगे बढ़ती, अगर दोनों में से कोई एक पक्ष अपना रुख बदलने को तैयार होता। चूंकि ऐसा नहीं हुआ, इसलिए संभवतः यही संदेश मिला कि यूक्रेन संकट पर भारत का रुख उसकी पूरी विदेश नीति में किसी बुनियादी बदलाव का संकेत नहीं है। 

यानी अब यह कहने का ठोस आधार है कि यूक्रेन संकट पर भारत का रुख एक अपवाद भर है। इससे पश्चिमी देशों को चाहे जितनी नाराजगी हुई हो, लेकिन एशिया-प्रशांत की अपनी रणनीतिक मजबूरियों के कारण अमेरिकी खेमे के ये देश भारत के खिलाफ प्रतिबंध जैसी कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए कि उनकी एशिया-प्रशांत रणनीति भारत के बिना खोखली साबित हो जाएगी। अतः उनकी कोशिश यूक्रेन संकट पर मतभेद को एक अपवाद मान कर भारत को अपनी धुरी से जोड़े रखने की होगी।

उसका व्यावहारिक मतलब यह होगा कि इस समय जो नए अंतरराष्ट्रीय समीकरण उभर रहे हैं और जिस तरह की नई वैश्विक परिस्थितियों की संभावना ठोस रूप ले रही है, भारत न सिर्फ उससे बाहर रहेगा, बल्कि कई मौकों पर उसके विरोध में खड़ा भी दिखेगा। ऐसा इसके बावजूद होगा कि चीन-रूस की धुरी फिलहाल भारत के प्रति नरम रुख अपनाते हुए यह संदेश देने की कोशिश में जुटी रहेगी कि भारत अपनी विदेशी नीति संबंधी ऐतिहासिक विरासत के कारण कभी भी अमेरिका की साम्राज्यवादी परियोजना का अभिन्न अंग नहीं बनेगा। लेकिन यह स्थिति लंबे समय कायम रहेगी, यह बात भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती। 

इस बीच यूक्रेन पर रूस की सैनिक कार्रवाई के बाद बीते एक महीने में जो हुआ है, उसे अब अधिक स्पष्ट रूप में सूत्रबद्ध किया जा सकता है। इस दौरान ये बातें साफ हुई हैं:

  • विश्व व्यवस्था दो खेमों में बंट गई है। एक तरफ वे देश हैं, जो रूस पर प्रतिबंध लगाने की अमेरिकी मुहिम का हिस्सा बने हैं। दूसरी तरफ जो देश हैं, उन्हें दो श्रेणी में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी उन देशों की है, जिन्होंने रूस की निंदा करने से इनकार कर दिया है। दूसरी श्रेणी उन देशों की है, जिन्होंने ‘एक संप्रभु देश पर हमले’ की निंदा तो की है, लेकिन जिन्होंने प्रतिबंध लगाने के अभियान से अपने को अलग रखा है। 
  • रूस की निंदा के लिए संयुक्त राष्ट्र में लाए गए प्रस्तावों के पक्ष में दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों ने मतदान किया है, लेकिन प्रतिबंध लगाने वाले देशों की संख्या एक तिहाई से ज्यादा नहीं है। 
  • रूसी हमले ने इस बात को रेखांकित कर दिया है कि अमेरिका अब अपनी सैन्य ताकत के जरिए सारी दुनिया पर अपनी मनमानी चलाने में सक्षम नहीं है। इसके साथ ही 9/11 (अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमले) के बाद उसने ‘एकतरफा सैनिक कार्रवाई’ और ‘खतरे का पूर्वानुमान होते ही हमला बोल देने’ की जो नीतियां अपनाई थीं, उनकी सीमा सबके सामने आ गई है।
  • बहरहाल, अमेरिका को असली झटका वित्तीय क्षेत्र में लगा है। रूस की अर्थव्यवस्था को पंगु बना देने की उसकी मंशा सफल होती नहीं दिखी है। बल्कि रूस को विश्व वित्तीय व्यवस्था से अलग करने के लिए उसने जो प्रतिबंध लगाए हैं, उलटे उससे अमेरिकी मुद्रा डॉलर के वर्चस्व पर चोट पहुंची है।
  • अपनी प्रतिबंध की नीति के तहत अमेरिका ईरान, वेनेजुएला, अफगानिस्तान आदि जैसे देशों के डॉलर में रखे गए धन को पहले ही जब्त कर चुका था। तब ये मुद्दा उतनी गंभीरता से नहीं उठा। लेकिन रूस पर ऐसी कार्रवाई से दुनिया में अमेरिका में धन निवेश और डॉलर को सुरक्षित मुद्रा मानने की धारणा की जड़ पर प्रहार हुआ है। नतीजा यह है कि de-dollarization की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है। दुनिया भर के देशों में आपसी कारोबार के भुगतान में डॉलर पर निर्भरता घटाने और डॉलर में लगे अपने धन को निकालने की सोच अधिक गहराई तक पैठ गई है। 
  • कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक पहले उनका अनुमान था कि de-dollarization के ठोस रूप लेने में अभी 20 से 25 साल लगेंगे। लेकिन अभी जो ट्रेंड दिख रहा है, उसमें संभव है कि ऐसा पांच साल में हो जाए।
  • इन रुझानों का सीधा लाभ चीन को मिल रहा है। ये चर्चा रोजमर्रा के स्तर पर हो रही है कि चीन की मुद्रा युवान डॉलर के विकल्प के रूप में उभर सकती है। रूस ने युवान को उन स्थितियों के लिए अपना लिया है, जहां उसका संबंधित देश से मुद्रा की अदला-बदली का द्विपक्षीय समझौता नहीं हो पाया है। 
  • सऊदी अरब चीन से तेल के कारोबार में युवान को अपनाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है। अगर उसने ऐसा फैसला किया, तो यह डॉलर पर सबसे तगड़ी चोट होगी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 1971 में डॉलर और स्वर्ण के बीच संबंध को तोड़ते हुए डॉलर को प्रतिमान (स्टैंडर्ड) बनाने की पहल की थी। लेकिन यह असल में प्रतिमान तभी बना, जब 1974 में सऊदी अरब इसे तेल के कारोबार में अपनाया। अब वही सऊदी अरब तेल के ही कारोबार में डॉलर को ठुकराने के करीब है।
  • ये बात ध्यान में रखने की है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व के पीछे जितना योगदान उसकी सैनिक शक्ति का रहा है, उससे कहीं ज्यादा योगदान उसकी आर्थिक ताकत और वित्तीय वर्चस्व का रहा है। नई उभरती परिस्थितियों में इन तीनों मामलों में अमेरिकी वर्चस्व को जोरदार चुनौती मिल रही है। बल्कि यह माना जा रहा है कि उसके वर्चस्व के दिन अब लद चुके हैं।

जब दुनिया में घटनाक्रम की दिशा यह है, तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर इसमें भारत कहां खड़ा होगा? भारत की जो भौगोलिक स्थिति है, उसमें अमेरिकी रणनीति का मोहरा बनना कभी उसके माफिक नहीं समझा गया। तब भी नहीं, जब अमेरिकी वर्चस्व को एक निर्विवाद तथ्य माना जाता था। अब जबकि अमेरिका और उसके खेमे का लगातार हो रहा पराभव सबके सामने है, यह सवाल अधिक गंभीर हो गया है कि क्या उस खेमे से अपना भविष्य जोड़ना किसी के लिए बुद्धिमानी भरा निर्णय है? इस सवाल का किसी विचारधारा या आदर्श से संबंध नहीं है। यह सीधे तौर पर राष्ट्रीय हित से जुड़ा प्रश्न है। 

वैसे कभी भारत की पहचान विचारधारा प्रेरित विदेश नीति अपनाने वाले देश के रूप में स्थापित हुई थी। तब आज की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से भारत बहुत कमजोर था। लेकिन उसे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मजबूत आवाज समझा जाता था। आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को पहली बार ऐसी चुनौती मिल रही है, जिससे उसके कमजोर या समाप्त होने की वास्तविक संभावना है। यह विडंबना ही है कि चुनौती देने वाली ताकतों के बीच भारत का नाम शामिल नहीं है। इसीलिए इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा कि इस सिलसिले में जिस ओपनिंग की उम्मीद बंधी थी, उस पर अब विराम लग गया है। क्या यह भारत की प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय हित के अनुरूप है, यह सवाल भी हम सबके सामने है। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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