Friday, April 19, 2024

बलराज साहनी की पुण्यतिथि पर विशेष: बामकसद और खूबसूरती से जी गई, बेहतरीन जिंदगी

बलराज साहनी एक जनप्रतिबद्ध कलाकार, हिन्दी-पंजाबी के महत्वपूर्ण लेखक और संस्कृतिकर्मी थे। जिन्होंने अपने कामों से भारतीय लेखन, कला और सिनेमा को एक साथ समृद्ध किया। उनके जैसे कलाकार बिरले ही पैदा होते हैं। अविभाजित भारत के रावलपिंडी में 1 मई, 1913 को एक रूढ़िवादी परिवार में जन्मे बलराज साहनी की शुरूआती तालीम गुरुकुल में हुई, जहां उन्होंने हिन्दी और संस्कृत की पढ़ाई की। आला तालीम के वास्ते वे लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज पहुंचे और यहां से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से एमए किया। बचपन से ही उन्हें अभिनय और लेखन दोनों में ही समान तौर पर दिलचस्पी थी।

कॉलेज में तालीम के दौरान उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया, तो अंग्रेजी जबान में कविताएं भी लिखीं। कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में उनकी कई रचनाएं प्रकाशित हुईं। साल 1936 में बलराज साहनी की पहली कहानी ‘शहजादों का ड्रिंक’ हिन्दी की मशहूर पत्रिका ‘विशाल भारत’ में छपी। उस वक्त उनकी उम्र महज 23 साल थी। इसके बाद यह सिलसिला चल निकला। ‘विशाल भारत’ के अलावा उस समय की चर्चित पत्रिकाओं ‘हंस’, ‘अदबे लतीफ’ आदि में भी उनकी कहानियां नियमित तौर पर छपने लगीं। ‘गैर जज्बाती डायरी’ और ‘फिल्मी सरगुजश्त’ संग्रह की उनकी अनेक रचनाएं ‘नई कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुईं।

पढ़ाई पूरी करने के बाद बलराज साहनी ने लाहौर में कुछ दिन पत्रकारिता भी की। लेकिन यहां उनका मन नहीं रमा। साल 1937 में वे गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के विश्व भारती विश्वविद्यालय ‘शांति निकेतन’ चले गए। जहां उन्होंने दो साल तक हिन्दी का अध्यापन किया। अध्यापन, बलराज साहनी की आखिरी मंजिल नहीं थी। उनकी आंतरिक बेचैनी उन्हें महात्मा गांधी के वर्धा स्थित आश्रम ‘सेवाग्राम’ तक ले गई। यहां उन्होंने ‘नई तालीम’ में सहायक संपादक की जिम्मेदारी संभाली। पर यहां भी वे ज्यादा लंबे समय तक नहीं रहे, बीबीसी लंदन के अंग्रेज डायरेक्टर-जनरल लाइनल फील्डन महात्मा गांधी से मिलने उनके आश्रम पहुंचे, तो वह बलराज साहनी की योग्यता से बहुत प्रभावित हुए और उनके सामने बीबीसी की नौकरी की पेशकश की। जिसे उन्होंने मंजूर कर लिया।

‘बीबीसी लंदन’ में बलराज साहनी ने साल 1940 से लेकर 1944 तक हिन्दी रेडियो के उद्घोषक के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्होंने खूब भारतीय साहित्य पढ़ा। कुछ रेडियो नाटक और रिपोर्ताज भी लिखे। साल 1944 में वे लंदन से वापस भारत के लिए रवाना हुए। लंदन से उनके साथ आलमी जंग के तजुर्बे तो आए ही, मार्क्सवाद की शुरूआती तालीम भी उन्हें वहीं हासिल हुई। मार्क्स और लेनिन की उन्होंने मूल किताबें पढ़ीं और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को एक वैचारिक, रौशनी के तौर पर तस्लीम किया। वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए। थिएटर और सोवियत फिल्में देखीं।

भारत आते ही वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बलराज साहनी एक रचनात्मक इंसान थे और उनकी जिंदगी का मकसद एक दम स्पष्ट था, सांस्कृतिक कार्यों के जरिए ही वे मुल्क की आजादी में अपना योगदान देना चाहते थे। देश में नवजागरण का एक अंग बनना चाहते थे। यही वजह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (इप्टा) दोनों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इप्टा में उन्होंने अवैतनिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया।

 इप्टा में बलराज साहनी की शुरूआत नाटक के निर्देशन से ही हुई। ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने नाटक ‘जुबैदा’ के निर्देशन की जिम्मेदारी, इप्टा में नये-नये आए बलराज साहनी को सौंपकर, सभी को चौंका दिया। बलराज साहनी ने भी उन्हें निराश नहीं किया, नाटक कामयाब हुआ। और इसी के साथ वे इप्टा के अहमतरीन मेंबर हो गए। यह वह दौर था, जब इप्टा से देश भर के बड़े-बड़े कलाकार, लेखक, निर्देशक आदि जुड़े हुए थे। इप्टा आंदोलन पूरे देश में फैल चुका था। राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण इस नाट्य आंदोलन का एक ही मकसद था, देश की आजादी।

बलराज साहनी ने अपने-आप को जैसे पूरी तरह से इसके लिए झोंक दिया था। एक समय ऐसा भी आया, जब बलराज साहनी इप्टा में नेतृत्वकारी भूमिका में आए। इप्टा की बंबई शाखा के वे महासचिव बन गए। उन्होंने नये-नये लोगों को इप्टा और उसकी विचारधारा से जोड़ा। लोक शाइर अन्ना भाऊ साठे, पवाड़ा गायक गावनकर और लोक गायक अमर शेख बलराज साहनी की ही खोज थे। उन्होंने ना सिर्फ इन सब की प्रतिभा पहचानी, बल्कि उन्हें इप्टा में एक नया मंच भी प्रदान किया। वैचारिक तौर पर उन्हें प्रशिक्षित किया।  

बलराज साहनी ने ‘जादू की कुर्सी’, ‘क्या यह सच है बापू ?’ जैसे नाटक भी लिखे। ‘जादू की कुर्सी’ राजनीतिक व्यंग्य था, जिसमें आजाद भारत की पहली सरकार की नीतियों का मजाक उड़ाया गया था। नाटक, उम्मीद से ज्यादा कामयाब हुआ। अलबत्ता बाद में बलराज साहनी को अपने इस नाटक के लिए अफसोस भी हुआ। अपनी किताब ‘बलराज साहनी पर बलराज साहनी : एक आत्मकथा’ में उन्होंने यह बात खुले दिल से तस्लीम की, ‘‘मैं विचार से भी बहुत शर्मिंदा महसूस करता हूं कि मुझ जैसे मामूली आदमी ने नेहरू जैसे महान विद्वान का मजाक उड़ाने की जुर्रत की थी !’’ अपनी राजनीतिक गतिविधियों और वामपंथी विचारधारा के चलते बलराज साहनी कई बार जेल भी गए, लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा नहीं छोड़ी। वे हालांकि पार्टी के कार्ड धारक मेंबर नहीं थे, लेकिन पीसी जोशी की नजर में बलराज साहनी अपनी जिंदगी के आखिर तक ‘‘एक अपरिभाषित किस्म के’’ कम्युनिस्ट बने रहे।

इप्टा ने जब अपनी पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ बनाने का फैसला किया, तो बलराज साहनी को उसमें मुख्य भूमिका के लिए चुना गया। इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने के साथ-साथ उन्होंने सहायक निर्देशक की जिम्मेदारी भी संभाली। ‘धरती के लाल’, बंगाल में पड़े भयंकर अकाल के पसमंजर पर थी, जिसमें बलराज साहनी ने किसान की भूमिका निभाई थी। विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’, बलराज साहनी की एक और मील का पत्थर फिल्म थी। ‘धरती के लाल’ में ‘निरंजन’ और ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म में ‘शंभु महतो’ नाम के किरदार में उन्होंने जैसे अपनी पूरी जान ही फूंक दी थी।

दोनों ही फिल्मों में किसानों की समस्याओं, उनके शोषण और उत्पीड़न के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता और ईमानदारी से उठाया गया था। ये फिल्में हमारे ग्रामीण समाज की ज्वलंत तस्वीरें हैं। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’ हो या फिर ‘गर्म हवा’ बलराज साहनी अपनी इन फिल्मों में इसलिए कमाल कर सके क्योंकि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता इन किरदारों के प्रति थी। वे दिल से इनके साथ जुड़ गए थे। बलराज साहनी का पहला प्यार नाटक था। नाटक को वे सामाजिक बदलाव का एक बड़ा साधन मानते थे। लेकिन परिवार की आर्थिक परेशानियों के चलते उन्होंने फिल्मों में अभिनय करना शुरू कर दिया।

दीगर विधाओं की तरह वे फिल्मों में भी कामयाब साबित हुए। अपने पच्चीस साल के फिल्मी कैरियर में उन्होंने एक सौ पच्चीस से ज्यादा फिल्मों में अदाकारी की। जिसमें कई ऐसी फिल्में हैं, जिनमें उनकी अदाकारी भुलाई नहीं जा सकती। ‘काबुलीवाला’, ‘गर्म कोट’, ‘सीमा’, ‘हलचल’, ‘हकीकत’, ‘अनुराधा’, ‘हीरा मोती’, ‘सोने की चिड़िया’ बलराज साहनी की दीगर उल्लेखनीय फिल्में हैं।

आजादी के बाद एक वक्त ऐसा भी आया, जब इप्टा के काम में कुछ शिथिलता आई। ऐसे दौर में भी बलराज साहनी ने नाटक से नाता नहीं तोड़ा और अपने कुछ दोस्तों के साथ एक अव्यवसायिक ड्रामा ग्रुप ‘जुहू आर्ट थियेटर’ बनाया। इस ड्रामा ग्रुप से उन्होंने कुछ नाटक किए, लेकिन जैसे ही इप्टा के पुनर्गठन की तैयारियां शुरू हुईं, वे इस काम में सबसे पेश-पेश थे। बलराज साहनी एक अच्छे लेखक भी थे। अदाकारी के साथ-साथ उनका लेखन भी चलता रहा। साहित्य की तमाम विधाओं कहानी, कविता, नाटक, निबंध आदि में उन्होंने अपने हाथ आजमाए। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी जबान के साथ-साथ उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी में भी लेखन किया।

अपनी मातृभाषा की तरफ वे खुद नहीं आये थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी की संगत का ही असर था कि उन्हें भी अपनी मातृभाषा से प्यार हो गया। गुरुमुखी लिपि उन्होंने बाद में सीखी। एक बार वे अपनी जबान में पारंगत हुए, तो उन्होंने इसे ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया। फिल्मों की शूटिंग पर जाते, तो उनके साथ टाइप राइटर भी होता। खाली वक्त का इस्तेमाल वे लेखन में करते। उनकी कहानियां और लेख पंजाबी जबान की मशहूर पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ में नियमित छपते। सच बात तो यह है कि उनकी ज्यादातर किताबें बुनियादी तौर पर पंजाबी जबान में ही लिखी गई हैं, जो बाद में अनुवाद होकर हिन्दी में आईं।

  ‘बसंत क्या कहेगा ?’ बलराज साहनी का पहला कहानी संग्रह है। वे आलेख भी नियमित लिखते थे। उनके आलेखों के कई संकलन प्रकाशित हुए। बलराज साहनी ने अपनी विदेश यात्राओं को भी कलमबद्ध किया। ‘पाकिस्तान का सफर’ और ‘मेरा रूसी सफरनामा’ उनके चर्चित सफरनामे हैं। ‘बलराज साहनी पर बलराज साहनी’ जहां उनकी आत्मकथा है, तो वहीं सिनेमा के अपने तजुर्बों पर उन्होंने ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ और ‘सिनेमा और स्टेज’ किताबें लिखी हैं। अपने अंतिम समय में वे एक उपन्यास ‘एक सफर एक दास्तां’ भी लिख रहे थे, जो कि अधूरा ही रह गया।

‘बलराज साहनी समग्र’ की भूमिका में बलराज साहनी के लेखन पर ताकीद करते हुए, भीष्म साहनी ने जैसे उनके पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को बयां कर दिया है,‘‘खरापन, असीम उदारता, जिंदगी से गहरा जुड़ाव, गहरी मानवीय संवेदना, विशाल दूरगामी दृष्टि, ये उनके लेखन के भी उतने ही प्रभावशाली गुण हैं, जितने उनके व्यक्तित्व के और जिस भांति आज भी उनके फिल्मी अभिनय को देखते हुए, हम उनके प्रखर व्यक्तित्व और गहरे संवेदन से प्रभावित होते हैं, वैसे ही उनकी साहित्यिक रचनाओं को पढ़ते हुए भी।’’

सिनेमा, साहित्य और थियेटर में एक साथ काम करते हुए भी बलराज साहनी सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे। सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में देशवासियों की मदद के लिए वे आगे-आगे रहते थे। महाराष्ट्र के भिवंडी में जब साम्प्रदायिक दंगा हुआ, तो वे दंगाग्रस्त इलाके गए और उन्होंने वहां दोनों कौमों के बीच शांति और सद्भावना कायम करने का अहमतरीन काम किया। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता में उनका गहरा यकीन था। सिनेमा, साहित्य और थियेटर के क्षेत्र में बलराज साहनी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ के अलावा उनकी किताब ‘मेरा रूसी सफरनामा’ के लिए उन्हें सोवियतलैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया।

बलराज साहनी एक सच्चे कलाकार थे और अपने देशवासियों से बेहद प्यार करते थे। अपने चर्चित लेख ‘आज के साहित्यकारों से अपील’ में उन्होंने देशवासियों के लिए पैगाम देते हुए लिखा है,‘‘हमारा देश अनेक कौमियतों का साझा परिवार है। वह तभी उन्नति कर सकता है, अगर हर एक कौम अपनी जगह संगठित और सचेत हो, और अपनी जगह भरपूर मेहनत और उद्यम करे। जैसे हर कौम, वैसे ही हर व्यक्ति समान अधिकार रखने वाला हो-आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक। भारतीय एकता और उन्नति का संकल्प लोकवाद और समाजवाद के आधार पर ही किया जा सकता है, न कि बड़ी मछली छोटी मछली को हड़प करने का अधिकार दे कर।’’

13 अप्रैल, 1973 को दिल का दौरा पड़ने से जब बलराज साहनी का निधन हुआ, तो उस वक्त उनकी उम्र महज 60 साल थी। उन्हें जितनी भी जिंदगी मिली, उन्होंने उसे भरपूर जिया। उनकी जिंदगी बमकसद और खूबसूरती से जी गई बेहतरीन जिंदगी थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी, बलराज साहनी के अजीज दोस्त थे।

तकरीबन चार दशक तक का उनका लंबा साथ रहा। बलराज साहनी के निधन पर उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कॉमरेड पीसी जोशी ने लिखा,‘‘बलराज साहनी का जीवन और उसका कार्य, तमाम प्रगतिशील व समाजवादी बुद्धिजीवियों के लिए और उनसे भी बढ़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसे ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील संगठनों के लिए तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों के लिए भी, प्रेरणा का स्त्रोत है और उसका दुःखद अंत हम सबके लिए एक सबक है।’’

(ज़ाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल मध्य प्रदेश के शिवपुरी में रहते हैं।)

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