Friday, April 19, 2024

वे शाहीन बाग़ के बच्चों को रौशनी के फूल देते हैं

लहूलुहान मंज़र में टूट जाने के बजाय उम्मीद के फ़ूल खिलाने में मुब्तिला रहने वाले लोग कैसे होते होंगे,  यह देखना है तो शाहीन बाग़ जाइए। उन युवाओं को देखिए जो बच्चों को हालात के ट्रोमा से बचाने के लिए किताबों, कूची और रंगों की दुनिया में ले गए हैं। जिन बच्चों को अपने `सामान्य` दिनों में ऐसी दुनिया नसीब न हुई हो, उनके लिए अनिश्चितता भरीं आंदोलन की रातें ही रौशनी के ख़्वाब ले आई हैं।

जिस सड़क पर शाहीन बाग़ की महिलाएं धरने पर बैठी हैं, वहीं मंच के एक तरफ़ की बंद दुकानों के चबूतरों पर बच्चों के मुस्तक़बिल को संभालने की एक सुंदर मुहिम ज़ारी है। चरागों की लौ को आँधियों से बचाने की मुहिम। मुझे सीढ़ियों पर मिलीं वॉलेंटियर नूर ने विनम्रता के साथ रोका, अभी आपको इंतज़ार करना होगा। ऊपर काफ़ी बच्चे हैं। कुछ पढ़ रहे हैं, कुछ पेंटिंग कर रहे हैं।

वे डिस्टर्ब होंगे। मैंने कहा, कोई बात नहीं, हो सके तो आप ही मुझे इस सब के बारे में थोड़ी जानकारी दीजिए। कुछ देर बातें करने के बाद उन्हें लगा कि मुझे ऊपर भेज देना चाहिए। ऊपर ले जाकर उन्होंने मुझे जिस युवक के हवाले किया, वे उसामा ज़ाकिर थे।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अंग्रेजी के अध्यापक। जामिया में क़रीब एक महीना पहले 15 दिसंबर को पुलिस ने दमन की कार्रवाई की थी तो लाइब्रेरी को भी निशाना बनाया था। इस बीच शाहीन बाग़ इलाक़े में शुरू हुआ महिलाओं का धरना एक बड़े आंदोलन में तब्दील होता चला गया। उसामा और वसुंधरा वगैरह उनके कुछ साथी यहाँ बच्चों की वलनरेबिलिटी को लेकर परेशान हो उठे। यह पूछने पर कि क्या यहाँ किताबें लेकर बैठने की बात जामिया के बाहर सड़क पर शुरू की गई लाइब्रेरी को देखकर दिमाग़ में आई, उसामा ने कहा, हम यहाँ बच्चों को देखकर विचलित हो उठे। माँएं धरने पर हैं, पहले ही मुश्किल हालात से जूझते बच्चे इस नयी मुश्किल में आ फंसे। सोचिए, बच्चे आशंका से भरे माहौल में नारे लगाते रहें और भय से जूझते रहें तो उनकी मानसिक स्थिति क्या होगी। हम बहुत कुछ तो नहीं कर सकते थे पर 1 जनवरी को एक कोने में कुछ किताबें लेकर बैठे, कुछ रंग और ब्रश। जिस तरह बच्चों ने उत्साह दिखाया, अब हमें यह पूरा पैसेज छोटा पड़ रहा है।

मैने देखा, बच्चे तरह-तरह की किताबें पढ़ रहे थे। कुछ बच्चे चित्र बनाने में लीन थे और कुछ बच्चे किसी शख़्सियत से बातचीत में मुब्तिला थे। बच्चों की बनाई गई तस्वीरें और पोस्टर दीवारों पर टंगे हुए थे जिनमें बहुत से गंभीर मुद्दे सहज ढंग से शामिल हो गए थे। मसलन, ऑस्ट्रेलिया के जंगल की आग, जेएनयू और सद्भाव की ज़रूरत। वो चीज़ें भी जिन्होंने उनके घरों को बेचैन कर रखा है। उसामा ज़ाकिर ने बताया कि बच्चों के साथ किसी टॉपिक पर डिस्कशन के बाद उन्हें पेंटिंग के लिए प्रेरित किया जाता है। उन्होंने बताया कि किस तरह ऑस्ट्रेलिया के जंगल की आग शाहीन बाग़ के बच्चों को रुला दे रही थी और उनका दुख चित्रों में उतर रहा था।

कमाल की बात यह है कि किसी अपील के बिना ही विभिन्न क्षेत्रों के उस्तादों ने इस मुहिम पर ध्यान दिया। अनुरूपा जैसी पपेट स्पेशलिस्ट बच्चों के बीच पहुंची। मुंबई से प्रियंवदा अय्यर बच्चों के लिए क्रिएटिव चीजें ले आईं। देश के विभिन्न हिस्सों से लेकर रॉयल कॉलेज ऑफ लंदन और दूसरी जगहों से यहां आ रही शख़्सियतें बच्चों के बीच आ रहे हैं। बहुत से स्टोरी टेलर, रिसर्च स्कॉलर, बच्चों के काउंसलर्स यहां स्वेच्छा से सेवा देने आए हैं। मनन, ज़ोया, यूनुस, शहबाज़ बहुत से हिन्दू-मुसलमान युवा यहां काम कर रहे हैं। कई मीडिया साइट्स की सुर्ख़ियों में आए उन 70 साल के बुजुर्ग से तो सभी परिचित हो ही चुके हैं जिन्होंने यहीं बच्चों के बीच प्रेमचंद के उपन्यासों से शुरुआत की है और उनकी पढ़ने की भूख बढ़ती जाती है।

बच्चों को संविधान, डेमोक्रेसी, सद्भाव के बारे में बता रहे उसामा और उनके साथियों का मानना है कि बच्चे स्कूल पहुंचेंगे तो वे अपने सहपाठियों के साथ बहुत सारे दुष्प्रचार और भ्रम को लेकर प्यार और विश्वास के साथ बात कर सकेंगे। दुष्प्रचार की पहुंच बहुत ज़्यादा है, यह ध्यान दिलाने पर ये युवा कहते हैं कि हिटलर की रैली में 7 लाख लोग शामिल हुए थे पर आख़िरकार लोगों की समझ लौटी। हिन्दुस्तान में भले ही दुष्प्रचार का बड़ा असर दिखाई देता हो पर अक़्सरियत अच्छे लोगों की ही है।

बच्चों का यह छोटा सा स्पेस कविता पोस्टरों से सजे होने की वजह से भी आकर्षक है। यहां रोहित वेमुला के सुंदर पोस्टर हैं और दूसरे नायक-नायिकाओं के भी। यूनुस के इलस्ट्रेशंस के साथ उसामा ज़ाकिर और शहबाज़ रिज़वी की कविताओं के पोस्टर ख़ासतौर पर दिल में जगह बनाते हैं।

यह देखना भी दिलचस्प है कि जब आंदोलन स्थल पर बच्चों के लिए खाने-पीने की चीज़ें बांटी जा रही होती हैं, तब भी पढ़ने और दूसरी रचनात्मक चीज़ों में व्यस्त बच्चे यहां से जाने के लिए तैयार नहीं होते। शुरू में बहुत से बुज़ुर्ग इस बात से परेशान होते थे पर अब उनकी चिंता है कि इस इलाक़े के बच्चों के लिए यह मुहिम आंदोलन के बाद के दिनों में भी ज़ारी रहे।

(जनचौक के रोविंग एडिटर धीरेश सैनी की रिपोर्ट।)

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