Friday, March 29, 2024

राहुल सांकृत्यायन के भोजपुरी नाटक ‘मेहरारुन के दुरदसा’ के संदर्भ में स्त्री विमर्श

राहुल सांकृत्यायन एक, अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे। उन्होंने, भरपूर यात्रायें की। चार खंडों में उनकी आत्मकथा मेरी जीवन यात्रा बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक संकलन है। विशेषकर उनकी तिब्बत से जुड़ी यात्राएं। उनकी आत्मकथा पढ़ना एक बेहद रोचक अनुभव है। दर्शन जैसे गूढ़ विषय पर सरल भाषा और शैली में, लिखी गयी उनकी पुस्तक, दर्शन दिग्दर्शन, भाषा विज्ञान पर पाली साहित्य का इतिहास और इतिहास पर मध्य एशिया का इतिहास, इन विषयों पर उनकी अकादमिक पकड़ का एहसास कराती हैं।

जय यौधेय, और वोल्गा से गंगा जैसे उपन्यास और कहानी संग्रह उनके विलक्षण ज्ञान और कथा विन्यास को प्रतिबिंबित करते हैं। राहुल पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव रहा है। उन्होंने, कार्ल मार्क्स, वी आई लेनिन और माओत्से तुंग की जीवनियां भी लिखी। उन्होंने विज्ञान पर भी एक किताब लिखी है। लेख आदि तो बहुत से उनके द्वारा लिखे गए हैं। 

ऐसी प्रतिभा के जन्मदिन पर राहुल सांकृत्यायन के लिखे भोजपुरी नाटक ’मेहरारुन क दुरदसा’ की एक समीक्षा जो प्रीति चौधरी द्वारा स्त्री काल पत्रिका में लिखी गयी है, को प्रस्तुत कर रहा हूं। स्त्री विमर्श में, स्त्री चेतना, नारीवाद के आधुनिक स्वर, फेमिनिज्म और ‘जेंडर इक्वलिटी’ जैसे शब्दों के प्रचलन में आने से बहुत पहले का लिखा यह नाटक इस शोध परक लेख का आधार है। 

राहुल सांकृत्यायन आज़मगढ़ के रहने वाले थे। वहां के गांव कनैला में एक सनातन ब्राह्मण परिवार ने उनका जन्म हुआ था। पर उनकी मृत्यु एक बौद्ध की तरह हुई। उन्होंने तत्कालीन पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में स्त्रियों की दशा पर बेहद पैनी नज़र डाली और भोजपुरी में यह नाटक लिखा था। इसी नाटक के आधार पर प्रीति चौधरी का यह लेख आधारित है। 

राहल सांकृत्यायन की स्त्री चेतना:

राहुल सांकृत्यायन के भोजपुरी नाटक ’मेहरारुन के दुरदसा’को पढ़ने पर लगा, इस नायाब कृति तक पहुंचने में इतनी देर क्यों कर दी। यह भी लगा कि निकोल पेटमैन, सूजन मोलर ओकिन को पढ़ उनके नज़रिये की वाह-वाह करते रहे, पर अपनी मिट्टी से उपजी स्त्री विमर्श की देशज न्यायप्रिय आवाज़ों तक नहीं पहुँचे। खैर देर आये दुरुस्त आये। प्रेमचंद की कई कहानियों  जैसे-सुभावती और महादेवी वर्मा की रचना शृंखला की कड़ियां, में स्त्री चेतना की देशज मौजूदगी मिलने पर हमारे पास अपना कुछ भी कहने-दिखाने को मिला और हमने भारतीय परंपरा में उन श्रोतों तक पहुँचने का प्रयास किया जहाँ उपेक्षित समुदायों की आवाज़ दर्ज है।

राहुल सांकृत्यायन के नाटक मेहरारुन के दुर्दशा पढ़कर लगा पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में शानदार स्त्री विमर्श चल रहा है। वैसे सच्चाई भी यही है। औरतों की बातों में खासकर सखियों के बीच जहां वे खुलकर बोलती हैं उनकी क्रिटिकल दृष्टि मुखर हो उठती है। किसान और मजदूर स्त्रियों की आँखें अन्याय और शोषण की बारीक परतों को बखूबी पहचानती हैं। आपसी हँसी, ठिठोली और लोकगीतों में स्त्रियों की सवालिया निगाहों और आपत्तियों की जोरदार अभिव्यक्ति होती रही है।

फिलहाल हमें अपना ध्यान राहुल सांकृत्यायन के नाटक ’मेहरारुन के दुरदसा’ पर केंद्रित करना है। तो शुरू करते हैं। इस नाटक में कुल आठ पात्र हैं जिनमें पुरुषों और स्त्रियों का बराबर का अनुपात है। इसमें लछिमी नामक स्त्री गाँव के मुखिया की बेटी है जबकि जसोदरा और सीता, लछिमी की सखियां हैं, और रामकली लछिमी की महतारी यानि माँ है।

यूं तो नाटक पाँच अंकों का है पर जैसे भारतीय

संविधान की आत्मा का पता उसकी प्रस्तावना से लग जाता है, वैसे ही राहुल सांकृत्यायन की स्त्री चेतना का पता नाटक के शुरुआती गीत से ही चल जाता है। इस गीत में जो मसले उठे हैं शेष नाटक उसी का विस्तार है। लछिमी, सीता और जसोदरा तीन युवतियां यदि आपसी बातचीत में समाज में स्त्रियों के दोयम दर्जे और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार की इतनी साफ पहचान करती हैं, जिसे हम पितृसत्तात्मकता के अन्दर व्याप्त पुरुष वर्चस्व की परतें उघाड़ना कह सकते हैं।

इस गीत में जन्म के साथ ही लड़की-लड़के के भेदभाव से जो बात उठी है वह धन-संपत्ति पर पुरुष वर्चस्व, स्त्री को घर की चारदीवारी में कैद करने, वैधव्य की त्रासदी, विधुर पुरुष के तुरंत ब्याह रचाने या फिर पत्नी के जीवित रहते ही दूसरी स्त्री घर ले आने, विवाहेतर संबंध बनाने, औरत को सीधे आग में झोंक देने जैसे व्यवहारों का जिक्र करते हुए तत्कालीन समाज में व्याप्त स्त्री दुर्दशा का उल्लेख है। चलिए नजर डालते हैं इस 16 पंक्तियों के भोजपुरी गीत पर

एके माईबपवा से एक ही उदरवा में,

दूनो के जनमवाँ भइल, रे पुरुखवा।

पूतके जनमवा में नाच आ सोहर होला,

बेटिके जनम परे सोग, रे पुरुखवा।।1।।

धनवा धरतिया प बेटवा के हक होला,

बिटिया के किछुवो ना हक, रे पुरुखवा।

मरदा के खइला-कमइला के रहता बा,

तिरिया के लागेला केवाड़ रे पुरुखवा।।2।।

खेवे के रणपवा जिनिगया भर परी ओके,

लइकें जे मरदा मुअल, रे पुरुखवा।

तिरिया के मुवले त बतिये कवन पूछा,

जिअते सवतिया ले आवे, रे पुरुखवा।।3।।

आँखियैके देखतै पतुरिया ले रखले बा,

भार-गारी देला दिन-रात, रे पुरुखवा।

ओहिर ने खसुरवा मरदवा के किछु नाहीं,

तिरिया के भकसी झोंकावे, रे पुरुखवा।।4।।

इस गीत के बाद तीनों सहेलियों में संवाद शुरू होता है। इसमें जसोदरा नामक स्त्री के घर भतीजा हुआ है। यह भतीजा तीन भतीजियों के बाद हुआ है तो जसोदरा और उसकी माँ की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं है। ग्रामीण परिवेश में ऐसे माहौल में सामूहिक हर्षोल्लास होता है पर चूंकि ये नाटक है, वो भी राहुल सांकृत्यायन का, उसका एक अभीष्ट है। उसे समाज में लड़का-लड़की में होने वाले भेदभाव को उठाना है सो प्रमुख पात्र लछिमी बिना ज्यादा वक्त गंवाये नाटक के पाँचवें संवाद में ही सीधे मुद्दे पर आ सवाल की गोली दागती है। ’’आ तीनों भतिजिया जब भइल रहलीं तब्बो एइसेन खुसियाली भइल रहे?

तब्बो तोहरा घर में सोहर गवाइल रहै?’’ सीधी सी बात है कि हमें यहाँ मानना होगा कि लछिमी को यह बखूबी मालूम होगा कि 1944 में पुत्री के पैदा होने पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सोहर नहीं गाया जाता था पर उसे तो स्त्री के मनुष्य होने और उसके साथ हो रही गैर बराबरी की चीड़ फाड़ करनी थी तभी वह यह सवाल करती है और इस सवाल पर जब उससे यह कहा जाता है कि वह किस अनजान जगह से आयी है जहाँ उसे ये मामूली बात भी नहीं पता कि बेटी के जन्म पर सोहर नहीं गाते हैं, तो वह फूट पड़ती है। 

’’मेहरारू के जनमला पर सोहर न गवाला, खुसिहाली ना मनावल जाता, बलकु उलटे घर मापट सोग उदासी छा जाला। मालूम होला जनु घर के केहू मरि गइ बा।

…तोहरा कब्बो मन में ना आवै, काहे बेटा-बेटी

भै मरद-मेहरारू के ई दु आँख से देखला जाला।’’ 

वो कहते हैं ना कि गुलामी की आधी लड़ाई उसी दिन जीत ली जाती है जब गुलाम अपनी गुलामी को पहचान लेता है। जब लछिमी ने मर्द-औरत को दो आँख से देखे जाने की पहचान कर ली है वो बड़ी शिद्दत से इस असमानता की शिनाख्त करती है। लछिमी यही नहीं करती वो उन ऐतिहासिक कुरीतियों पर भी प्रहार करती है जो सती प्रथा जैसे अमानवीय कृत्यों को महिमा मंडित करती है। लछिमी यहाँ सवाल उठाती है कि जब जरा सा जलने पर इतना कष्ट होता है तो कोई स्त्री जानबूझकर आग में कूद कर खुशी-खुशी जान कैसे दे सकती है? राहुल यहाँ कन्या वध पर भी स्त्रियों के अपने दृष्टिकोण की बात करते हैं और उसकी पुरजोर निंदा करवाते हैं।

यही नहीं वह कई कुरीतियों का हवाला देते हुए विभिन्न तरीकों से अब तक वह पुरुषों द्वारा डेढ़ अरब औरतों के मारे जाने की भी बात करते हैं। वह पितृ सत्ता के उस नियंत्रण की बात करते हैं जहाँ परिवार और समाज में पुरुष के वर्चस्व के चलते माँ स्वयं अपनी बेटी को नमक चटा कर मार डालती है। यहां उस परतंत्रता की पहचान है जहां स्त्री पुरुष/पति के सामने कोई सामर्थ्य नहीं रखती। पुरुष की अवज्ञा का मतलब है, जान से हाथ धोना। लछिमी से कहलाये गये संवाद,

’’आज के दुनिया में मेहरारू हाथ-गोड़ बान्धि के मरद के सामने पटकि दीहल गइल बा। मकर आपन कुछ नइखे।’’ 

यानी उसका अपना कुछ नहीं है ये अहसास ही नारीवादी परिप्रेक्ष्य का प्रस्थान बिंदु है। यहाँ सीमोन द बोअवा का कथन याद करें कि ’”औरत पैदा नहीं होती बनायी जाती है’’ की चेतना यहां भी दिखती है। राहुल सांकृत्यायन के इस नाटक में धर्म की वाहिका मानी जाने वाली स्त्री से ही धर्म की विवेचना करा कर धर्म के माध्यम से स्त्री के शोषण की बारीक परत को भी उघाड़ने का प्रयास कर उस पर प्रहार किया गया है। धार्मिक पोथियों के मर्दों द्वारा लिखे जाने की बात कह उसे स्त्री विरोधी (जौना में मरद लोग हमनी के खेलाव हनि हनि के कलम चलौले बा) साबित किया है।

राहुल जी ने एक ही नाटक में स्त्री संबंधी इतने मुद्दों को एक साथ उठाया है कि यह अभियान प्रयोजक नाटक प्रतीत होता है और नाटक की स्वाभाविकता को कुछ हद तक प्रभावित कर उपदेशात्मक लगने लगता है। पर जैसा कि स्वयं राहुल कहते और मानते रहे कि उन्हें मिशनरी लेखन से आपत्ति नहीं। समाज बदलने की जिस चेतना से संपृक्त हो वे लेखन कर रहे हैं वहाँ वो सब कुछ नाटक के माध्यम से उड़ेल देना चाहते हैं। यहाँ स्त्रियों को न पढ़ाये जाने का मुद्दा भी है तो जमीन जायदाद में उसकी हकदारी का भी। यहां स्त्रियों की उस क्षमता के प्रति पूरा विश्वास व्यक्त किया गया है कि यदि उन्हें अवसर प्रदान किया जाए तो वे आगे बढ़ सकती हैं।

नाटक की एक पात्र जसोदरा कहती हैं ’’जे हमनी के बेटा लेखा पढ़ै के सुवि-हित होइल, आ मुंशी, दरोगा होये के मौका मिलित, त हमनी के केहू से पाछे ना रहती दीदी।’’ राहुल सांकृत्यायन यहाँ उस बात को भी रेखांकित करते हैं जिसके चलते स्त्रियों को पढ़ाने-लिखाने का प्रचलन बढ़ा। यह सब कुछ भारतीय नवजागरण काल में हुए सामाजिक सुधार के प्रयासों और आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन में महिला सहभागिता की उस भूमिका के तहत हुआ जिसमें माना गया कि एक शिक्षित स्त्री संपूर्ण परिवार को सुशिक्षित कर सकती है। परिवार की धुरी के रूप में एक सुनिश्चित भूमिका में ढालने के लिए स्त्रियों के बीच शिक्षा का जो प्रचार-प्रसार हुआ उसमें स्त्री की अपनी स्वायत्तता का मसला गायब था।

लछिमी कहती भी हैं कि ’’पढ़ल गलन लइका मुरुख लइकी से बियाह नइखै करै चाहत, एही से तिलक-दहेज लखा पढ़ोहू कै चाल गइल हा। यहाँ स्त्रियों का पढ़ना-लिखना एक सहायक भूमिका के लिए नियत किया गया। यहां महिला सशक्तिकरण का मुद्दा अनुपस्थित था वह पढ़ लिख कर एक अच्छी माँ, पत्नी और बेटी बनने हेतु प्रशिक्षित की जा रही थी। भारत के स्त्री वादी आंदोलन ने इस तथ्य की ओर सबका ध्यान बखूबी आकर्षित किया है। लछिमी जो नाटक में राहुल की जुबान है कहती है कि 

’’हमनी के भाग हमनी के हाथ में नइखे, हमनीके नाक छदाइल बा, जौनी में मरद सोना के नाथ पहिरौल बाड़े।’’ 

यहाँ स्त्री के नाक छेदने को उसकी रूप सज्जा से परे जा उसके निहितार्थ तक पहुँचने का प्रयास है। यह नथ, नाथने (बांधने) की प्रक्रिया है। नाटक की ही पात्र सीता जवाब में कहती है ’’रसरी के होइत, त हमनी तुरियो फेंकती, मदा मुरुखपन, हमनी सोना के लोभे ऊ नथेल नाकि में पहिरले फिरतानी।’’

यहाँ उस जागरूक स्त्री की चेतना बोलती है जो सोने के जेवरों के माध्यम से स्थापित नियंत्रण को बखूबी समझ रही है। देखा जाए तो आज के भूमंडलीकरण के दौर में भी स्त्रियां कई बार लिबरेशन के नाम पर उन्हीं बाजारी उपकरणों की शिकार हो रही हैं जो उन्हें व्यक्ति या नागरिक बनने की बजाय उपभोक्ता बनाने पर आमादा है। यहाँ त्यौहार, बाजार के नये मुहावरे के रूप में आया है जहाँ अक्षय तृतीया और करवाचौथ जैसे त्यौहार स्त्रियों को गहनों की खरीद पर तमाम तरह की छूटों का प्रलोभन दे उन्हें बाजार के शिकंजे में कसते हैं। यहाँ समर्थ स्त्रियां तो आराम से गहने बनवा रही

हैं पर जो नहीं बनवा पा रहीं वो नैराश्य का शिकार बनती हैं। यहाँ जीवन में सुख का आशय मानसिक संतुष्टि और रिश्तों की सहजता में न होकर भौतिक संपन्नता और दिखावे में बदल चुका है। किसी बड़े सामाजिक लक्ष्य से संचालित होने के बजाय जिससे सामूहिक मुक्ति या सकारात्मक परिवर्तन की कामना हो जीवन व्यैक्तिकता में बदल गया है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना अनिवार्य है कि राहुल सांकृत्यायन अपने समस्त लेखन में जिस सामाजिक बदलाव की परिकल्पना से प्रेरित थे वह भूतपूर्व सोवियत संघ का साम्यवादी माॅडल था जो नब्बे के दशक में तिरोहित हो गया। राहुल सांकृत्यायन अपनी सोवियत संघ की यात्राओं में महिलाओं की स्थिति से विशेषकर प्रभावित थे और भारत में भी ऐसा ही महिला सशक्तिकरण चाहते थे।

दरअसल राहुल ने सोवियत संघ के उस उत्स को देखा था जो न्याय और बराबरी के सपने के ज़मीन पर उतारने जैसा था। यह अलग बात है कि राहुल जी को नहीं पता कि सोवियत संघ का साम्यवादी शासन किस तरह से लोकतांत्रिक चेतना का गला घोटने वाली शासन व्यवस्था में तब्दील हो गया और भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयताओं को।दमन के दम पर एकसूत्र में बांधने का जबरन प्रयास अंततः टूट गया। साम्यवादी व्यवस्था की शासन प्रणाली के रूप में, असफलता के उक्त उदाहरण से एक वैचारिकी के रूप में साम्यवाद के पतन से यह साबित नहीं होता कि मार्क्स जैसे सामाजिक राजनीतिक एवं दार्शनिक अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। आज भी समाज में अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाईं को तार्किक ढंग से समझने में मार्क्सवाद मदद करता है।

यदि दुनिया के मुट्ठी भर लोगों ने धरती की संपदा पर कब्जा कर रखा है तो इसकी व्याख्या पूंजीवादी की मूल प्रवृति के रूप में मार्क्सवाद ही करता है। मार्क्स से बेहद प्रभावित राहुल ने मार्क्स की जिस वैज्ञानिक चेतना को आधार बना इतिहास और समाज की पड़ताल की वह महत्वपूर्ण है और किसी भी राष्ट्र और समाज को आत्मालोचना के बेहतरीन औजार पकड़ाती है। आज भी यदि हम वास्तव में एक सर्वसमावेशी समाज की रचना करना चाहते हैं, सच में सबका विकास करना चाहते हैं तो समाज के उन उपेक्षित समुदायों पर विशेष ध्यान देना होगा जिनसे राहुल सांकृत्यायन का सीधा सरोकार था।

लेख की समाप्ति से पहले हम यह कहना चाहेंगे कि राहुल सांकृत्यायन भारत की उस मेधावी चिंतन परंपरा से जुड़े हैं जो बुद्ध और अंबेडकर तक पहुँचती है। यह ज्ञान और दर्शन की वह विलक्षणता है जो वास्तविक कर्म की ज़मीन पर उतर, देश और समाज की बेहतरी के लिए अपनी समिधा देती है। मेहरारुन के दुर्दशा नाटक का पाठ निश्चित रूप से स्त्री से होने वाली गैर बराबरी के कारणों की सटीक पहचान कर स्त्री चेतना और मुक्ति के पक्ष में आवाज़ बुलंद करता है, जिसे आज नारीवाद और स्त्री विमर्श के रूप में जाना जाता है।

संदर्भ सूची

1. बोउवा, सीमों द. (1949) द सेकेंड सेक्स, हरमाउंटवर्थ, पेंग्विन

2. कुक बारबरा, (2007) वूमन राइटिंग नेचर: ए फेमनिस्ट व्यु, लेंगिस्टन बुक्स:लैनहम

3. वूल्फ वर्जीनीया, 2012, अनुवाद मोजेज माइकेल,

अपना एक कमरा, नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन

4. वर्मा महादेवी, शृंखला की कड़ियां, प्रथम प्रकाशन,

1942

5. अभिनव कदम पत्रिका का राहुल सांकृत्यायन अंक, Sanjeev Chandan, Navin Kumar, Nirala Bidesia Preety Choudhari Jaya Nigam Anurag Yadav

आज 9 अप्रैल को राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिन पर उनका विनम्र संस्मरण।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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