Thursday, April 18, 2024

जिसकी धुन में राग-रागिनी ही नहीं हिस्ट्री-ज्योग्राफ़ी भी

राग-रागिनी के नोट्स बनाना और उसे रियाज़ के ज़रिये अपने मौसिक़ी में उतार लेना एक बात है, मगर राग-रागिनी को उस माहौल उस साज़-ओ-अंदाज़ में देखने-परखने की ज़िद, जिसमें वे बने थे, बिल्कुल एक जुनून का मामला है। इस जुनून को एक क़िस्म की आवारगी की दरकार होती है; एक ऐसी आवारगी, जिसमें चांद को चाद की तरह देखे जाने की मांग हो; जिसमें ज्योग्राफ़ी वाले चांद के साथ-साथ बच्चों के मामा और आशिक़ों के महबूब वाले चांद की महसूसियत से एक मुकम्मल चांद बनाने की सनक हो। जब ये जुनून, आवारगी और सनक एक साथ मिलकर रियाज़ की लम्बी ख़ामोशी में हौले से दाखिल होते हैं, तो एक ग़ज़ब रंग औऱ तरंग वाली तरन्नुम का एक अक्स उभर आता है, असल में इसी अक्स को ख़य्याम कहते हैं।

ख़य्याम महज संगीतकार नहीं हैं, बल्कि गीत पर इतिहास, भूगोल, संस्कृति और सियासत के स्वर की पोशाक रच देने वाले एक अद्भुत रचनाकार हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके गीतों में राग-रागिनियों या लोक गीतों की बारीक़ सिलवटें ही नहीं हैं, बल्कि एक-दो या तीन मिनट में सदियों की करवटें भी हैं। उनकी इस क्रिएटिविटी को दो वाक़यों से समझने की कोशिश की जा सकती है।

पहला वाक़या साल 1957-58 का है। राजकपूर अपनी फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ बना रहे थे। इस फ़िल्म के ठीक पहले राजकपूर की फ़िल्म आवारा भारत ही नहीं रूस में भी धूम मचा चुकी थी। आवारा के संगीतकार शंकर-जयकिशन थे और यह जोड़ी उस समय के फ़िल्मी संगीत की हिट जोड़ी थी। मगर, राजकपूर को एक ऐसे संगीतकार की तलाश थी, जिसकी पकड़ सिर्फ़ संगीत पर होना काफ़ी नहीं था, बल्कि उसकी समझ फ़िल्म के कथानक की भी हो। राजकपूर को पता चला कि उनके आस-पास एक ऐसा संगीतकार है, जिसे सिर्फ़ राग-रागिनी का ही गहरा बोध नहीं, बल्कि उसका इतिहास-भूगोल और मनोवैज्ञानिक बोध भी अनूठा है। बातचीत में पता चला कि ‘फिर सुबह होगी’ की कहानी मशहूर उपन्यासकार फ़्योदोर दोस्तोवस्की के उपन्यास‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’ पर आधारित है और ख़य्याम साहब ने उसे शिद्दत से पढ़ा है।

राजकपूर को जब ख़य्याम साहब से पूरा इत्मिनान हो गया, तो राजकपूर ने उस फ़िल्म के संगीत की ज़िम्मेदारी ख़य्याम साहब के हवाले कर दिया।‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’ का नायक भले ही रैस्कोलनिकोव था, लेकिन फ़िल्म के नायक भोली सूरत वाले भारतीय कलाकार राजकपूर थे। भारतीय परिवेश में रैस्कोलनिकोव और राजकपूर के बीच के किरदार से नये संदर्भ में कथानक को संगीत से मज़बूती देना था, उसे उभारकर सामने लाना था। ख़य्याम साहब ने यह काम बख़ूबी किया। इसके लिए उन्होंने ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ को एक बार नहीं बार-बार पढ़ा।     

ऐसी ही दूसरी मिसाल फ़िल्म रज़िया सुल्तान के संगीत और गाने की है। कमाल अमरोही की यह फ़िल्म 1983 में आयी थी और लगभग दस साल पहले उनकी फ़िल्म पाकीजा आयी थी,जिसके गाने हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास में  मील का पत्थर हैं। कमाल अमरोही ने रज़िया सुल्तान के संगीत के लिए ख़य्याम को चुना। कमाल अमरोही ने ख़्याम को बताया कि फ़िल्म का हीरो, बहुत बड़ा योद्धा है, मगर तन्हाई के आलम में वह ख़ूब गाता है। ख़य्याम के सामने चुनौती यह थी कि फ़िल्म के नायक का संगीत से कोई लेना-देना भी नहीं है, वह रफ़-टफ़ है, फिर भी वह गाता है। ऐसे गाने वालों में कोई औपचारिक सिंगर तो फ़िट नहीं बैठता, फिर ख़य्याम ने ऐसे सिंगर की तलाश शुरू कर दी। पचासों को आज़माया गया, इन्हीं में से एक कब्बन मिर्ज़ा भी थे। कब्बन मिर्ज़ा से पूछ-ताछ से पता चला कि उन्होंने संगीत कहीं से सीखा नहीं है, गाना सुनाने के नाम पर वह लगातार कोई न कोई लोकगीत सुना रहे थे।

आख़िरकार उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। मगर इस फ़िल्म  के हीरो को जिस मर्दाने आवाज़ की दरकार थी, वह कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ पर जाकर ही पूरी होती थी। इसी एक वजह से कमाल अमरोही को कब्बन मिर्ज़ा भा गये। ख़य्याम के सामने इस अनौपचारिक आवाज़ को औपचारिक धुन पर कसने की चुनौती थी। उन्होंने सबसे पहले तो कब्बन मिर्ज़ा को कई महीने ट्रेनिंग दी, इसके बाद रज़िया सुल्तान के दौर को समझने-बूझने के लिए दर्जनों किताबें पढ़ीयीं, उस दौर में बजाये जाने वाले इंस्ट्रूमेंट और प्रचलित राग के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि पैदा की और फिर जब जां निसार अख़्तर के बोल और कब्बन मिर्ज़ा की रौबदार आवाज़ ख़य्याम की धुन की शान पर चढ़े, तो‘रज़िया सुल्तान’का  गाना,‘आयी ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे’अद्भुत हो गयी। अद्भुत संयोग ही है कि रज़िया सुल्तान का आशिक़ एक हब्शी था और कब्बान मिर्ज़ा का ताल्लुक भी उस सीदी समुदाय से था, जो कभी अफ़्रीका से बतौर हब्शी ग़ुलाम भारत लाये गये थे। सीदियों का ज़ंजीर का मातम और नौहे बहुत मशहूर थे। कब्बन मिर्ज़ा भी दरअस्ल एक नौहाख्वां ही थे। मगर ख़य्याम ने अपने दो गाने गवाकर नौहे गाने वाले कब्बन मिर्ज़ा को अमर कर दिया। दरअस्ल, ख़य्याम ख़ुद ही ताज़िंदगी मुश्किल चुनौतियों की ज़ंजीरों से संगीत की झन्कार निकालते रहे।

ख़य्याम की यह झंकार बार-बार ऐसी आवाज़ से टकराकर निकलती रही, जो फ़िल्मों की उस दुनियां को मंज़ूर नहीं, जिसका हिस्सा ख़ुद ख़य्याम साहब थे। उन्होंने चलन से सीधे-सीधे बग़ावत तो मोल कभी नहीं ली, मगर उनका संगीत कभी बच्चों को सुलाने वाला नहीं, नौजवानों को फुसलाने वाला नहीं और बुज़ुर्गों में बेचैनी पैदा कर देने वाला नहीं था, बल्कि बहकती रुचि को बार-बार रास्ते पर ले आने की लगातार ज़िद करती उस बयार की तरह था, जो ज़िद करते हुए भी ज़िद्दी नहीं दिखती, जो शराब और शबाब के बीच से गुज़रते हुए भी ज़िंदगी के होने के मायने तलाशने की मांग करती है और बार-बार यह स्थापित करती है कि सगीत सिर्फ़ इंस्ट्रूमेंट और सधे हुए रियाज़ का तालमेल भर नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा है और जो ख़य्याम के गाने सुनने के दौरान हासिल होता है। ख़य्याम शायद इसी मायने में अनूठे थे कि उनका संगीत, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और संस्कृति-सियासत की उस धुन से बनता था, जो ज़िंदगी की भावना के तार ही नहीं छूता, बल्कि संवेदना में बार-बार स्पंदन भी पैदा करता है।

(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री निर्माता उपेंद्र चौधरी ने लिखा है।)   


जनचौक से जुड़े

3 COMMENTS

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
3 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...