Friday, April 19, 2024

इतिहास/ जन्मदिवस विशेष: सिख साम्राज्य के महानायक महान योद्धा हरि सिंह नलवा

प्रामाणिक इतिहास के बेशुमार पन्ने महाराजा रंजीत सिंह के ‘खालसाराज’ के महानायक-योद्धा हरि सिंह नलवा को बतौर जिंदा किदंवती पेश करते हैं। शूरवीरता के उनके सच्चे किस्से मिथकीय कथाओं का हिस्सा लगते हैं। लेकिन यकीनन ये सच इसलिए भी हैं कि वक्त के जिस काल में हरि सिंह नलवा हुए, तब इतिहास बाकायदा तथ्यों के आधार पर लिखा जाने लगा था और पूरी तार्किकता एवं वैज्ञानिक विधि के साथ।

भरोसेमंद अंग्रेज और भारतीय इतिहासकारों ने उन्हें दुनिया के चंद सर्वश्रेष्ठ और नायाब सेनाध्यक्षों में से एक माना है। संभवत: वह अकेले ऐसे हिंदुस्तानी योद्धा हैं जिनकी बहादुरी और जांबाज़ रणकौशल की मिसालें ब्रिटिश सहित अनेक सैन्य अकादमियों में दी जाती हैं। लिखित और मौखिक इतिहास साफ बताता है कि महाराजा रंजीत सिंह का सूरज चमकाने में सबसे बड़ा योगदान हरि सिंह नलवा का था। वह न होते तो सिख साम्राज्य सुदूर उतना नहीं फैलता, जितना तथा जैसा फैला।

नलवा के बगैर महाराजा रंजीत सिंह अधूरे रहते और उनका खालसाराज भी! बदकिस्मती से सिख साम्राज्य की इस महान और बेमिसाल शख्सियत की कोई पुख्ता निशानी हिंदुस्तान में नहीं है। पाकिस्तान में है। हमारे हुक्मरान पाकिस्तान से बहुत कुछ मांगते-कहते रहते हैं लेकिन इतना भर भी कभी नहीं कह पाए कि नलवा के समाधि-स्थल का बेहतर रखरखाव किया जाए। कतिपय कारणों से पाकिस्तान महाराजा रंजीत सिंह को जरूर महत्व देता है लेकिन हरि सिंह नलवा वहां उपेक्षित और हाशिए पर हैं। हां, कभी न बदले जाने वाले इतिहास में जरूर हैं-जैसे हिंदुस्तान में हैं। इतिहास की कुछ इबारतों को बदलना नामुमकिन होता है। खासतौर से तब जब वह नलवा सरीखे शूरवीरों से वबास्ता हों। जिनके शानदार कारनामें पीढ़ी-दर-पीढ़ी  दोहराए-सुनाए जाते हों…।           

हरि सिंह नलवा का जन्म अविभाजित पंजाब के गुजरांवाला में 28 अप्रैल 1791 में पिता सरदार गुरदयाल सिंह और माता धर्म कौर के घर हुआ था। 7 साल की उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया और मां ने उन्हें पाला। 10 साल की उम्र में उन्होंने सिख रिवायत के मुताबिक अमृतपान किया। दशम गुरु गोविंद सिंह के परिवार की कुर्बानी की गाथाएं उनकी रगों में दौड़ती थीं। नतीजतन खेलने-खाने की उम्र में उन्होंने अस्त्र-शस्त्र, मार्शल आर्ट और घुड़सवारी का विधिवत प्रशिक्षण लिया।                 

बसंतोत्सव महाराजा रंजीत सिंह के राज में एक बड़े उत्सव के तौर पर मनाया जाता था। 1805 का बसंत हरि सिंह नलवा की जिंदगी में ऐसे खिला कि वह आगे जाकर इतिहास का जिंदा मसौदा हो गए। बसंत पर लाहौर दरबार में ‘प्रतिभा खोज’ जैसा आयोजन किया जाता था। नलवा ने उसमें शिरकत की। उन्होंने भाला फेंकने, तीरंदाजी और घुड़सवारी का ऐसा जोहर-जलवा दिखाया कि महाराजा महज 13 वर्ष के बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर जाते हरि सिंह के जबरदस्त कायल हो गए। उन्होंने नलवा को तत्काल अपने दरबार में अपने सहायक का ओहदा दे दिया।

युद्ध रणनीति में वह महाराजा को सलाह दिया करते थे। एक साल के भीतर ही उन्हें फौज की एक टुकड़ी का सरदार बना दिया गया। करीबी लोग अचंभे में थे और अवाम बेयकीनी में कि महाराजा ने कैसे 800 फौजियों की कमान 14 साल के एक बालक के हाथों में सौंप दी। लेकिन इतनी कम उम्र में हरि सिंह नलवा ने हर मैदान-ए-जंग में पूरी शिद्दत के साथ अपना लोहा मनवाया। रफ्ता-रफ्ता वह रंजीत सिंह के सबसे करीबियों में शुमार हो गए।       

महाराजा रंजीत सिंह एक बार हरि सिंह नलवा के साथ शिकार पर थे तो अचानक जंगल में एक खूंखार बाघ ने हमला कर दिया। हमले की जद में पहले-पहल नलवा आए। उनका घोड़ा ठौर मारा गया। बाघ का हमला इतना अप्रत्याशित था कि हरि सिंह को तलवार निकालने का मौका भी नहीं मिला। वह दहाड़ते आदमखोर बाघ के सामने खाली हाथ मुकाबिल थे लेकिन बेखौफ। नलवा ने बेहद फुर्ती से दोनों हाथों से बाघ का जबड़ा पकड़ लिया और देखते ही देखते उसका लंबा-चौड़ा मुंह चीर डाला।

महाराजा रंजीत सिंह ने तब उन्हें कहा कि तुम राजा नल की तरह वीर हो। तब से हरि सिंह के नाम के साथ ‘नलवा’ जुड़ने लगा और उन्हें ‘बाघ मार’ भी कहा जाने लगा। कई तथ्यों से साबित होता है कि हरि सिंह नलवा की बदौलत महाराजा रंजीत सिंह का साम्राज्य लगातार विस्तृत हुआ। नलवा की अगुवाई में सिख साम्राज्य ने 1813 में अटक, 1814 में कश्मीर, 1816 में महमूदकोट, 1818 में मुल्तान, 1822 में मनकेरा, 1823 में नौशहरा आदि समेत 20 से ज्यादा युद्धों में दुश्मनों को परास्त किया और ऐतिहासिक विजय हासिल की।              

1836 में हरि सिंह नलवा ने जमरूद पर अपना कब्जा जमा लिया था। 1838 में महाराजा रंजीत सिंह के पोते नौनिहाल सिंह की शादी का आयोजन था। ब्रिटिश कमांडर इन चीफ भी आमंत्रित थे। उनकी सलामी के लिए समूचे पंजाब से सैनिक बुलाए गए। इसका फायदा उठाकर और यह कयास लगाकर कि हरि सिंह नलवा भी शादी में शिरकत के लिए अमृतसर चले गए हैं, दुश्मन ने हल्ला बोलने की रणनीति बनाई। सिख साम्राज्य के खुफिया तंत्र के प्रमुख स्तंभ के तौर पर हरि सिंह को इसकी भनक लग गई। वह पेशावर में ही रुक गए। जमरूद पर हमला हुआ। नलवा तत्काल पेशावर से जमरूद की युद्धभूमि में पहुंच गए तो अफगान फौज में (जो उनसे बेतहाशा खौफजदा रहती थी) खलबली मच गई। हरि सिंह नलवा उन दिनों बीमार थे लेकिन उन्होंने डटकर अफगान हमलावरों का मुकाबला किया तथा उन्हें जमकर पस्त किया।

11,000 अफगान सैनिक खेत हुए। अफगानियों के पास सिखों के मुकाबले बेहद ज्यादा फौज थी और हर फौजी को हुक्म था कि हर हाल में हरि सिंह नलवा को मार गिराना है। आखिरकार पीठ पर तीरों, भालों और बंदूक की गोलियों से हुए वार के चलते नलवा गंभीर जख्मी हो गए। उन्हें किले में ले जाया गया। अंतिम क्षणों में नलवा ने अपने सैनिकों से कहा कि वे कतई उनकी मौत की खबर बाहर न जाने दें। इसलिए कि दुश्मन-सेना पर उनके खौफ का साया बरकरार रहे। यही हुआ और अफगान हमलावर हरि सिंह नलवा को जिंदा मानकर हफ्ता भर तक जंग के मैदान में नहीं आए। बाद में सिख साम्राज्य की फौज ने उन्हें खदेड़ा। जिस अप्रैल महीने में उनका जन्म हुआ था, उसी अप्रैल महीने की 30 तारीख (1837) में वह वीरगति को हासिल हुए।                                            

उधर, महाराजा रंजीत सिंह 80 हजार सैनिकों के साथ जमरूद के लिए चल पड़े और रास्ते में उन्हें हरि सिंह नलवा के जिस्मानी अंत की खबर दी गई। इतिहासकारों के मुताबिक विपरीत से विपरीत हालात में भी अडिग रहने वाले महाराजा रंजीत सिंह एकबारगी इतना सकते-सदमे में आ गए कि हाथी पर बैठे-बैठे लगभग बेहोश हो गए। अपने रंगले और सिरमौर योद्धा साथी का इस मानिंद बिछोह उनकी बर्दाश्त से बाहर था। लेकिन जैसा कि खुद हरि सिंह नलवा मानते थे, “फौजी का दूसरा नाम शहादत है!” शहादत हो चुकी थी। इस गम ने शेष जिंदगी में महाराजा रंजीत सिंह का पीछा नहीं छोड़ा और उनके बाद वह कोई बड़ी लड़ाई भी जीत नहीं पाए। नलवा की शहादत का घुन उन्हें लग गया।                                            

हरि सिंह नलवा के अद्भुत रणकौशल से अंग्रेज साम्राज्य भी बखूबी वाकिफ था। आज भी है। 2014 में ऑस्ट्रेलिया की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका ‘बिलिनियर ऑस्ट्रेलियंस’ ने इतिहास के 10 सबसे महान सैन्य विजेताओं की सूची में प्रथम स्थान हरि सिंह नलवा को दिया। सर हेनरी ग्रिफिन ने उन्हें ‘खालसा राज का चैंपियन’ का लिखित खिताब दिया था। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन से की है। सिख साम्राज्य में उनके नाम के सिक्के भी चलते थे।

सिख साम्राज्य के इस महान सेनाध्यक्ष ने पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा के हरिपुर जिले में 1822 में 35,420 वर्ग फुट किले का निर्माण करवाया था। यह अभेद किला था और आज भी युद्ध कौशल के कई सबक सिखाता है लेकिन फिलवक्त लावारिस अवस्था में यह सन्नाटे के हवाले है। हरि सिंह नलवा के वंशज कई बार पाकिस्तान सरकार से मांग कर चुके हैं कि इस ऐतिहासिक किले का नाम नलवा रखा जाए और उनका म्यूजियम बनाया जाए। फिलवक्त वहां सन्नाटा है।                                     ‌‌‌‌‌‌      

प्रसंगवश, अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘न्यूजवीक’ के एक रिपोर्टर ने 1999 में पाकिस्तान के नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर काबिलाई (ग्रामीण) इलाकों का दौरा किया था। बाकायदा उसने अपनी रिपोर्ट में हाईलाइट किया कि अब भी उन इलाकों में रोने वाले और शरारती बच्चों को यह कहकर चुप कराया जाता है कि, ‘सा बच्चे हरिया रागले’ अर्थात सो जा बच्चे नहीं तो हरि सिंह नलवा आ जाएगा! जब नलवा जिंदा और सक्रिय थे, तब भी इस मुहावरे का इस्तेमाल आमफहम था। अब भी होता है तो इससे उनके जलवे की गवाही मिलती है।                                                   

तो यह थे खालसाराज के महानायक योद्धा हरि सिंह नलवा की जिंदगी के कुछ अहम पहलू। बेशक वह अफगानिस्तान के कट्टरपंथी जिहादियों के लिए शाश्वत खलनायक हैं। यह आकस्मिक और असंगत नहीं है कि अफगानिस्तान में जब भी सिखों को जनूनियों ने निशाना बनाया तो हरी सिंह नलवा का जिक्र कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में जरूर आया! 

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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