Thursday, March 28, 2024

पुण्यतिथि पर विशेष: शहीद ऊधम सिंह, सात समंदर पार जाकर जिसने की अपनी शपथ पूरी

पंजाब की सरजमी ने यूं तो कई वतनपरस्तों को पैदा किया है, जिनकी जांबाजी के किस्से आज भी मुल्क के चप्पे-चप्पे में दोहराए जाते हैं, पर मुहम्मद सिंह आज़ाद उर्फ ऊधम सिंह की बात ही कुछ और है। ऊधम सिंह हिंदोस्तां की आजादी के ऐसे मतवाले हैं, जिनकी शख्सियत के बारे में जनमानस में अलग-अलग किस्से प्रचलित हैं, लेकिन एक बात समान है कि हर किस्से में उनका अपनी मातृभूमि से अटूट प्रेम, त्याग और समर्पण साफ-साफ झलकता है और बहादुरी के किस्से ऐसे कि मन आंदोलित कर दे।

ऊधम सिंह जिनका कि वास्तविक नाम शेर सिंह था का नाम ऊधम सिंह कैसे पड़ा? इसके पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है। साल 1933 में वे जब जर्मनी गये, तो अंग्रेज हुकूमत से बचने के लिए उन्हें अपना नाम बदलना पड़ा। उन्होंने ऊधम सिंह नाम से अपना पासपोर्ट बनवाया और इसी नाम से यूरोप के कई मुल्कों की यात्रा की और अंत में इंग्लैण्ड पहुंचे। ये विडम्बना है कि ऊधम सिंह नाम से पासपोर्ट बनवाने और फिर इसी नाम से उन पर ओडवायर हत्याकाण्ड का मुकदमा चलने से उनका यही नाम इतिहास प्रसिद्ध हो गया।

26 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सूनाम कस्बे में जन्मे ऊधम सिंह के सिर से आठ साल की छोटी सी उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया। जिसके चलते उनकी परवरिश अमृतसर के खालसा अनाथालय में हुई। जाहिर है ऊधम सिंह का बचपन बेहद संघर्षमय गुजरा। इन्हीं संघर्षमय हालात में उन्होंने साल 1917 में मैट्रिक परीक्षा पास की। जवां होते ऊधम सिंह का दौर, आजादी आंदोलन की चरम सरगर्मियों का दौर था।

पंजाब की सरजमीं से उस दौरान मुल्क की आजादी के लिये कई आंदोलन एक साथ चल रहे थे। अलग-अलग धारायें अपने-अपने तरीके से आजादी के आंदोलन में अपना योगदान दे रहीं थीं। जिसमें गदर पार्टी के आंदोलन का नौजवानों पर सबसे ज्यादा असर था। पंजाब के नौजवान क्रांतिकारी विचारों वाली गदर पार्टी की तरफ खिंचे चले जा रहे थे। करतार सिंह सराभा, मदनलाल ढींगरा, सुखदेव, सेवा सिंह ठीकरीवाला और शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी, देशभक्त गदर पार्टी की ही देन थे। स्वाभाविक ही था कि ऊधम सिंह पर भी इसका असर पड़ा और वे अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त तक गदर पार्टी से ही जुड़े रहे।

1919 का साल ऊधम सिंह की जिंदगी में एक अहम मोड़ लेकर आया। 13 अप्रैल वैशाखी के दिन अमृतसर में वह वाकया घटित हुआ, जिसने ऊधम सिंह की जिंदगी को एक नया मकसद दिया। जिसको हासिल करने के लिए, उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी काले कानून ‘रोलेट एक्ट’ का शांतिपूर्ण प्रतिरोध करने जलियांवाला बाग में हजारों वतन परस्त इकट्ठे हुये थे। सूबाई सरकार को यह बात नागवार गुजरी। तत्कालीन पंजाब गवर्नर माइक ऑडवायर ने अमृतसर के सेना अधिकारी जनरल डायर से इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने का आदेश दिया।

गवर्नर की सरपरस्ती से जनरल डायर के हौसले बुलंद हो गये। नतीजतन जनरल डायर ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा कर इतिहास प्रसिद्ध क्रूर हत्याकाण्ड अंजाम दिया। इस हत्याकांड में एक हजार से ज्यादा देशभक्त शहीद हुए। ऊधम सिंह खुद जलियांवाला बाग की सभा में मौजूद थे। यकायक हुए इस हमले में काफी बड़ी तादाद में लोग हताहत हुए। ऊधम सिंह की किस्मत थी कि वे इस हत्याकाण्ड में जिंदा बच गये। नौजवान ऊधम सिंह ने घायलों की जमकर सेवा की और जलियांवाला बाग की शहीदों के खून से सनी मिट्टी को उठाकर कौल लिया कि वे इस कत्ले-आम के जिम्मेदार डायर-ओडवायर की जोड़ी को एक दिन खतम कर जरूर बदला लेंगे। जाहिर है कि उनको अब अपनी जिंदगी के नए मायने मिल गए थे। एक मिशन था, जिसे उन्हें अब पूरा करना था।

ऊधम सिंह साल 1922 तक केन्या की राजधानी नैरोबी में रहे। केन्या जाने से पहले ही वे गदर आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। बब्बर अकाली दल के मास्टर मोता सिंह और अमृतसर के गरम दल कांग्रेस नेता डॉ. सैफुद्दीन किचलू के वे निरंतर संपर्क में थे। साल 1922 में वे केन्या से लौटे, तो उन्होंने कुछ समय बब्बर आंदोलन में भी हिस्सा लिया। साल 1924 में ऊधम सिंह अमेरिका चले गए। अमेरिका में वे लाला हरदयाल के संपर्क में आए और फिर गदर पार्टी से पूरी तरह से जुड़ गए। गदर पार्टी से जुड़ने के बाद पंजाब में उनका वास्ता क्रांतिकारी भगत सिंह से हुआ। भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों से ऊधम सिंह बेहद प्रभावित थे।

अपने से कम उम्र होने के बावजूद भगत सिंह को वे अपना गुरु मानते थे। अमेरिका प्रवास के दौरान ऊधम सिंह ने जर्मनी, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, हालैंड, लिथुआनिया, हंगरी, इटली आदि मुल्कों की यात्रायें की और यूरोपीय मुल्कों में हो रहे बदलावों का नजदीक से अध्ययन किया। साल 1927 में भगत सिंह के आदेश पर ऊधम सिंह हिन्दुस्तान वापस लौटे। लौटने पर वे अपने साथ क्रांतिकारी गुट के लिए बड़ी संख्या में हथियार लेकर आए। हथियार लाने का मकसद, मुल्क में क्रांतिकारी गतिविधियों को और तेज करना था। लेकिन बरतानिया पुलिस को इस बात की पहले ही भनक लग गई।

उन्हें एयरपोर्ट पर ही असलाह समेत गिरफ्तार कर लिया गया। असलाह के साथ-साथ पुलिस ने उनके पास से गदर पार्टी के जरूरी दस्तावेज भी बरामद किए। बहरहाल, असलाह केस में आर्म्स एक्ट के तहत उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। अदालत में पेशी पर ऊधम सिंह को अपने किये की कोई शर्मिंदगी नहीं थी, बल्कि उन्होंने बड़ी ही बहादुरी से अपना जुर्म कबूल करते हुए कहा कि‘‘वे इन हथियारों को अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहते थे और उनका मकसद अपने मुल्क को आजाद कराना है।’’

ऊधम सिंह जिस वक्त कारावास में सजा भुगत रहे थे, यह वही दौर था जब मुल्क में क्रांतिकारी घटनायें अपने चरम पर थीं। क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल ना हो पाने का उन्हें बड़ा मलाल था। इसी दौरान अंग्रेज हुकूमत ने क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी। जिससे कुछ समय के लिए क्रांतिकारी आंदोलन बिखर सा गया। साल 1932 में कैद से रिहाई के बाद ऊधम सिंह अपने गांव सूनाम चले गए। लेकिन वे अंग्रेज सरकार की नजर में थे। पुलिस उनका लगातार पीछा कर रही थी। पुलिस से छुपते-छुपाते वे अमृतसर पहुंचे और अपना नाम बदलकर राम मुहम्मद सिंह आजाद रख लिया। आगे चलकर वे इसी नाम से आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेते रहे। इस दौरान उन्होंने लंदन जाने की कोशिशें बराबर जारी रखीं। जनरल डायर और गवर्नर माइक ओडवायर इंग्लैण्ड चले गए थे और ऊधम सिंह का आखिरी मकसद जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के गुनहगारों से बदला लेना था।

जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के इतने साल गुजर जाने के बाद भी ऊधम सिंह अपने मकसद से बिल्कुल भी नहीं भटके थे। उन्हें सिर्फ एक वाजिब मौके की तलाश थी। और ये मौका आया इक्कीस साल बाद, यानी 13 मार्च 1940 को। जलियांवाला बाग कत्लेआम का आदेश देने वाला जनरल डायर तो इंग्लैण्ड पहुंचकर जल्द ही मर गया था, लेकिन माइक ओडवायर और पूर्व भारत सचिव लार्ड जेटकिंस अभी जिंदा थे। उनसे बदला लेना अभी बाकी था। उस दिन लंदन के कैक्सटन हॉल में एक मीटिंग थी। इत्तेफाक से जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के लिए जिम्मेदार, यह दोनों अफसर एक साथ इस मीटिंग में शामिल हुए।

ऊधम सिंह को यह घड़ी अपना बदला लेने के लिए ठीक लगी। बैठक समाप्त होते ही ऊधम सिंह ने माईक ओडवायर और लार्ड जेटकिंस पर दनादन गोलियां दाग दीं। अचानक हुई इस गोलीबारी से जेटकिंस तो गंभीर रूप से घायल हो गया, मगर ओडवायर ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। अपने काम को सरअंजाम देने के बाद ऊधम सिंह भागे नहीं, बल्कि उन्होंने खुद पुलिस को अपनी गिरफ्तारी दी। गिरफ्तारी के बाद, उन पर अदालती कार्यवाही शुरू हुई। अदालती कार्रवाई महज दिखावा थी, जिसकी सजा पहले से ही मुकर्रर थी। कोर्ट में जिरह के दौरान ऊधम सिंह ने अपना पूरा नाम राम मुहम्मद सिंह आजाद बताया और बयान दिया कि ‘‘हां मैंने यह कृत्य किया और मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। मुझे उनसे नफरत थी। मैंने उन्हें वही सजा दी जिसके वो हकदार थे।’’

ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को पेन्टनविले जेल में फांसी दी गई और उन्हें वहीं दफना दिया गया। हिंदोस्तानी नौजवानों के लिए ऊधम सिंह का ये कारनामा, फख्र का मौजू था। केक्सटन हॉल की घटना से हर हिंदोस्तानी का सिर ऊपर उठ गया था। लंदन में घटी इस घटना की सारी दुनिया में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई। जर्मन रेडियो ने इस घटनाक्रम पर एक कार्यक्रम प्रसारित करते हुए कहा, ‘‘दुःखी और सताए हुए लोगों की आवाज बंदूक की नाल से निकलकर आई है। घायल हाथी की तरह हिंदोस्तानी कभी अपने दुश्मन को छोड़ते नहीं, बल्कि मौका मिलने पर बीस साल बाद भी अपना बदला ले सकते हैं।’’

ऊधम सिंह ने अपनी सरजमीं से जो कसम उठाई थी, उसे पूरा किया और गुनहगार अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतारकर, जलियांवाला बाग के शहीदों को सही मायने में अपनी श्रद्धांजलि दी। उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतीकात्मक रूप से ही सही, यह सबसे बड़ी जीत थी। ऊधम सिंह ने अंग्रेजों से राष्ट्रीय अपमान का बदला ले लिया था। मुहम्मद सिंह आजाद उर्फ ऊधम सिंह के इस कारनामे ने हिंदोस्तानी नौजवानों में राष्ट्रीय स्वाभिमान का सोया हुआ जज्बा जगा दिया। अपने देश पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों द्वारा लगाई गई ये छोटी-छोटी चिंगारियां ही थीं, जिसने बाद में विस्फोट का रूप ले लिया और 15 अगस्त, 1947 को हमें आजादी मिली।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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