75वां गणतंत्र या प्रजातंत्र दिवस हम सब के लिए गर्व और गौरव का दिवस है। संविधान लागू हुए 75 वर्ष हो गए। अगर हम समालोचना की दृष्टि से देखें तो इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं। भारत का चंद्रयान चांद पर पहुंच चुका है। मंगल ग्रह के लिए मंगलयान तैयार है। देश ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में काफी तरक्की की है जो निश्चित रूप से सराहनीय है। पर सामाजिक दृष्टि से देखें तो अभी भी अनेक खामियां हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
लोकतंत्र में पचहत्तर वर्ष का समय कम नहीं होता। अत: पचहत्तरवें गणतंत्र दिवस पर आमतौर पर यह उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज में जातिवाद यानी छुआछूत, ऊंच-नीच नहीं हो। भेदभाव नहीं हो। सांप्रदायिक सद्भाव हो यानी धर्म के नाम पर नागरिकों में आपस में नफरत की भावना न हो। स्त्री-पुरुष में लैंगिक समानता हो यानी लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अमीरी-गरीबी के बीच बहुत चौड़ी खाई न हो। पर दुखद है कि ऐसा है नहीं।
हमारे देश के कुछ राज्यों जैसे उ.प्र., बिहार, ओडिशा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू- कश्मीर में कुछ क्षेत्रों में आज भी मैला ढोने की प्रथा जारी है। सीवर और सेप्टिक टैंकों में दलितों की जहरीली गैस से दम घुटने से हो रही मौतों का सिलसिला देशभर में जारी है। मैला प्रथा, सीवर-सेप्टिक टैंकों में मौतें दलित जाति के लोगों की होती हैं। दुखद यह है कि इन दीवारों को तोड़ने की बजाय ज्यादातर लोग इन्हें बनाए रखना चाहते हैं।
हाल ही में (21 जनवरी 2025 को) गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के पाटड़ी तालुका में एक मैनहोल की सफाई के दौरान दलित समुदाय के दो युवकों की जहरीली गैस से दम घुटने से मौत हो गई। इनके नाम चिराग काणु पटडिया(18) और जयेश भारत पटाडिया (28) हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इन्हें बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के 15-20 मीटर गहरे सीवर में उतारा गया।
दैनिक भास्कर के 21 जनवरी 2025 के राजस्थान के झुंझुनू संस्करण की एक खबर के अनुसार ‘दलित युवक ने पानी के मटके को छुआ तो बेरहमी से पीटा, रात भर बंधक रखा, एक लाख रुपये लेकर छोड़ा।’
राजस्थान में ही एक दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ने पर उसकी सुरक्षा के लिए बारात से ज्यादा पुलिस तैनात होती है।
बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कारियों के बारे में यह कहा गय था कि ये लोग संस्कारी ब्राह्मण हैं ये बलात्कार कर ही नहीं सकते। यही कारण है कि जब उन्हें रिहा किया गया था तो लोग उन्हें फूलों की मालाएं पहनाए और मिठाई खिलाई।
हाल ही में हरियाणा के भाजपा के प्रमुख मोहनलाल पर सामूहिक बलात्कार का आरोप है। पर उसके समर्थक ब्राह्मण कह रहे हैं कि मोहनलाल तो बीड़ी भी नहीं पीते वह बलात्कार कैसे कर सकते हैं।
कर्नाटक के हाई कोर्ट के जज भी अपने ब्राह्मण होने पर गर्व करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने राजपूत होने पर गर्व करते हैं।
उपरोक्त उदाहरण देश की जाति व्यवस्था का आईना हैं। जातिवादी मानसिकता वाले लोग कितने भी उच्च शिक्षित हो जाएं। मुख्यमंत्री या जज बन जाएं पर जाति की गंदगी उनके दिमाग से नहीं जाती। सिर्फ मानवतावादी लोग ही अपने दिमाग से इस गंदगी को साफ कर सकते हैं।
ये खबरें इस बात की तस्दीक करती हैं कि संविधान को लागू हुए भले 75 वर्ष हो गए हों पर देश में जातिगत भेदभाव अभी भी बरकरार है। देश में राजनीतिक लोकतंत्र तो है पर सामाजिक लोकतंत्र आना अभी बाकी है।
धार्मिक भेदभाव/धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद
संविधान की प्रस्तावना में भले ही ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्द हों पर देश की सामाजिक व्यवस्था में धार्मिक भेदभाव दिखाई देता है। लोग अपने-अपने धर्मों की दीवारों में बंटे रहना चाहते हैं। कुछ लोग धर्म की राजनीति करते हैं और एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के प्रति नफरत फैलाते हैं। अपनी वोट बैंक की राजनीति करने के लिए लोगों को दंगों के लिए उकसाते हैं। इसलिए दंगों के बारे में कहा जाता है कि दंगे होते नहीं हैं करवाए जाते हैं।
हिंदुओं और मुसलमानों में नफरत फैलाने के लिए इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं। मस्जिदों दरगाहों के नीचे मंदिर ढूंढे जाते हैं। इससे इंसानों के बीच धर्म की दीवारें और ऊंची होती हैं।
लैंगिक असमानता
संविधान को लागू हुए 75 वर्ष हो गए हैं। हमारा संविधान यही कहता है कि स्त्री-पुरुष लैंगिक समानता है। दोनों को ही बराबरी के अधिकार हैं। पर हमारे देश की पितृसत्तात्मक व्यवस्था कुछ और ही कहती है। वह स्त्री-पुरुष समानता की पक्षधर नहीं है। मनुवादी व्यवस्था के तहत स्त्रियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते हैं। उन्हें पुरुषों के बराबर हरगिज नहीं समझा जाता। हमारे भारतीय समाज में महिला विरोधी अनेक धार्मिक सामाजिक कुप्रथाएं हैं जो महिलाओं के मानवाधिकारों का हनन करती हैं। पुरुषों को श्रेष्ठतर और महिलाओं को कमतर समझने वाली कई अदृश्य दीवारें हैं जो उन्हें समान स्तर पर या कहें समानता के प्लेटफॉर्म पर नहीं आने देतीं।
अमीरी गरीबी की खाई
हमारे देश में अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। हमारे यहां गरीबी रेखा है। लोगी गरीबी रेखा से भी नीचे यानी Below Poverty Line (BPL) भी जीवन यापन कर रहे हैं। पर कोई अमीरी रेखा नहीं है। ऐसी कोई अमीरी रेखा सरकार ने नहीं बनाई है कि इस लाईन से अधिक संपत्ति होने पर वह सरकारी खजाने में चली जाएगी। और उसका उपयोग गरीबों को समृद्ध करने में किया जाएगा।
फिलहाल तो ऐसी व्यवस्था है कि देश के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा मुट्ठी पर अमीरों का है। देश की अधिकांश संपत्ति अधिकांश अमीरों के कब्जे में है। व्यवस्था कुछ ऐसी है कि पूंजीपति यानी अमीर वर्ग तो और अमीर होते जा रहे हैं जबकि गरीब अपनी गरीबी के कारण दयनीय जीवन जीने को बाध्य हैं।
सवाल है कि क्या संविधान को लागू करने वाले ऐसे लोग सत्ता में आएंगे जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी से संविधान की प्रस्तावना और मूल भावना के तहत संविधान का कार्यान्वयन करेंगे जिससे देश में जातिगत भेदभाव न हो। लैंगिक असमानता न हो। धर्म के नाम पर नफरत न हो। दंगे न हों। अमीरी-गरीबी की खाई बहुत गहरी न हो। पूंजीपति या अमीरों के अंंदर मजदूर और गरीब वर्ग के प्रति तिरस्कार की भावना न हो। देश के सभी नागरिकों के प्रति सम्मान और मानवता की भावना हो। यदि ऐसा हो जाए तो वास्तव में गणतंत्र दिवस मनाने का जश्न दोगुना हो जाए। पर क्या कभी ऐसा हो पाएगा?
(राज वाल्मीकि अनुवादक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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