तरक़्क़ीपसंद तहरीक और अदब पर ऐतराज़ात पहले भी होते थे, आज भी होते हैं और आइंदा भी होते रहेंगे। लेकिन इस ज़माने में ऐतराज़ात का अंदाज़ बदल गया है। क्या वो कला के नाम पर किए जाते हैं? और क्या हंगामी मौज़ूआत के नाम पर? लेकिन बार-बार जो ऐतराज़ दोहराया जा रहा है, वो ये है कि तरक़्क़ीपसंद अदीबों और शायरों के मौज़ूआत पहले से तय-शुदा हैं। और तय-शुदा मौज़ूआत पर अच्छा अदब सृजित नहीं किया जा सकता। ये ऐतराज़ इसलिए बेमानी है कि इसमें ऐतिहासिक समझ की कमी है।
वाक़िआ ये है कि अदब के मौज़ूआत सारी दुनिया में और हर ज़माने में और हर ज़ुबान में पहले से तय-शुदा हैं। और वो हैं, नौ बुनियादी इंसानी जज़्बात 1. मुहब्बत, 2. हास्य और व्यंग्य, 3. रहम, 4. शुजात, 5. ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब, 6. नफ़रत हिक़ारत, 7. हैरानगी, 8. जज़्बा-ए-अमन-ओ-सुकून। भारतीय सौंदर्यशास्त्र में इनको रस कहा जाता है। वक़्त और मुक़ाम की तब्दीली के साथ ये जज़्बात नई-नई परिस्थितियों से उभरते हैं। और सृजन वो स्थितियॉं नहीं, बल्कि भावना है। मसलन रोमियो और जूलियट, लैला मजनूॅं, शीरी फरहाद, हीर रॉंझा सब इश्क़िया कहानी हैं। सब में मिलन और वियोग के विषय हैं। सिर्फ़ घटनाएं और स्थान बदले हुए हैं।
उर्दू और फ़ारसी में एक हज़ार बरस तक तय-शुदा मज़ामीन पर शायरी हुई है। जिनका स्त्रोत अध्यात्म है। दूसरी भाषाओं में ये स्त्रोत भक्ति है। कृष्ण और राधा के गिर्द हज़ारों नज़्मों का सृजन हुआ है। हज़ारों तस्वीरें बनी हैं, हज़ारों नृत्य हुए हैं, हज़ारों मूर्तियॉं बनाई गई हैं। फ़ारसी और उर्दू शायरी की क्लासिकी रवायत में सिर्फ़ मज़ामीन ही तय-शुदा नहीं थे, बल्कि उपमाएं भी तय-शुदा थीं। और रूपक भी तय-शुदा थे। क़द-ए-सरोद शमसाद, आँख नर्गिस, बाल सुंबुल। मज़ामीन, उपमाएं, रूपक ही नहीं, बल्कि शे’र की बहरें भी तय-शुदा थीं। और मिस्रा-ए-तरह (किसी दिए गए दोहे की वह पंक्ति जिसके छंद पर अन्य कवियों को कविता लिखनी पड़ती है) की शक्ल में रदीफ़ और काफ़िया भी तय-शुदा।
दुश्मन का काला मुॅंह और कमीना होना तय-शुदा। महबूब का ज़ालिम और बेवफ़ा होना भी तय-शुदा। और आशिक़ का मज़लूम और प्रतिबंधित होना भी तय-शुदा। दीवाने का दीवानापन भी तय-शुदा। ज़ंजीर और जेल भी तय-शुदा। ये चीज़ इस हद तक पहुॅंच गई थी कि अगर कोई शायर इस दायरे से बाहर जाने की हिम्मत करता, तो उससे सबूत मांगा जाता था। इसी तरह मर्सिये के मज़ामीन तय-शुदा और घटनाओं का क्रम तय-शुदा। इसलिए तो अनीस ने कहा था कि
‘‘इक फूल का मज़मूँ हो तो सौ रंग से बांधूँ।’’
इसी तरह ये बात ऐतराज़ के अंदाज़ में कही जाती है कि कोई संगठन या समूह एक विषय दे देता और उसके हुक्म के तहत तरक़्क़ीपसंद अदीब सृजन करने पर मजबूर होता है। मसलन ‘अमन’ का मौज़ूअ, ‘फ़िरक़ावाराना फ़सादात का मौज़ूअ, बंगाल के अकाल का मौज़ूअ, जद्दोजहद का मौज़ूअ, आज़ादी का मौज़ूअ वगैरह-वगैरह। ये ऐतराज़ भी खोखला है।
कला की दुनिया के बहुत से शाहकार आदेश के तहत ही बनाए गए हैं। चार सबसे बड़ी मिसालें। एक, मिस्र के पिरामिड। जो फ़िरौनों के हुक्म से तामीर किए गए। दूसरे, माइकल एंजेलो की पेंटिंग। जो पापा-ए-रोम के हुक्म से बनाई गई, और अब रोम के बड़े गिरजे़ की ज़ीनत हैं। तीसरे, फ़िरदौसी का ‘शाहनामा’। जो महमूद ग़ज़नवी की फ़रमाइश का नतीजा था। चौथे, ताजमहल। जो शाहजहॉं का शाही ख़्वाब था। और मज़दूरों और आर्किटेक्ट्स के हाथों पूरा हुआ। हक़ीक़त ये है कि हर साहित्यिक या कलात्मक सृजन का मौज़ूअ पहले से तय-शुदा होता है। इस सिलसिले में फै़ज़ ने बहुत उम्दा बात कही है।
‘‘रहा सवाल हमारे मुख़ालिफ़ीन का, तो मुख़ालफ़त की बात दूसरी है। इसलिए कि उन्हें हमसे व्यक्तिगत तौर पर मुख़ालफ़त या द्वेष तो है नहीं, उनकी मुख़ालफ़त तो हमारे सियासी नज़रियात से है। अगर हम जेलख़ानें भी न गए होते और कुछ भी न किया होता, तो भी उन्हें हमारी मुख़ालफ़त का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता। इस पर ज़्यादा तवज्जोह करने की ज़रूरत नहीं है।’’
आख़िरी ऐतराज, क़ौल-ए-फै़सल (अंतिम निर्णय) की तरह किया जाता है। और वो ये कि तरक़्क़ीपसंद अदब हंगामी है। हम अपने इस ज़ुर्म की स्वीकृति करते हैं। हंगामी अदब के दो मआनी हैं। एक वो अदब जो किसी एक विशिष्ट लम्हे का सृजन हो और किसी अत्यावश्यक घटना से प्रभावित हो के अस्तित्व में आया हो। उर्दू में बेशुमार ग़ज़लों के अलावा ग़ालिब के क़साइद जिनके कुछ हिस्से आला-तरीन शायरी के नमूने हैं, बादशाहों और हाक़िमों की प्रशंसा करने के लिए सृजित किए गए। और सौ फ़ीसद हंगामी थे। और इसके बाद जंग-ए-बल्कान और जंग-ए-तराबलस पर शिबली नोमानी और इक़बाल की नज़्में।
हुकूमत पर ज़वाल आया,तो फिर नाम-ओ-निशॉं कब तक
चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफिल से उठेगा धुआं कब तक
ये माना तुमको शमशीरों की तेज़ी आज़मानी है
हमारी गर्दनों पे होगा, इसका इम्तिहॉं कब तक।
(शिबली)
हुज़ूर दहर में आसूदगी नहीं मिलती
तलाश जिसकी है वो ज़िंदगी नहीं मिलती
हज़ारों लाला-ओ-गुल है रियाज़-ए-हस्ती में
वफ़ा की जिसमें हो बू, वो कली नहीं मिलती
मगर मैं नज़्र को एक आबगीना लाया हूॅं
जो चीज़ इसमें है, जन्नत में भी नहीं मिलती
झलकती है तेरी उम्मत की आबरू इसमें
तराबलस के शहीदों का है लहू इसमें।
(इक़बाल)
इक़बाल की नज़्म ‘जवाब-ए-शिकवा’ में तुर्की की उस्मानी सल्तनत के तअल्लुक़ से ऐसे अशआर भी हैं, जो बिल्कुल ही हंगामी हैं।
है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का
ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का।
और ‘तुलु-ए-इस्लाम’ में,
अगर उस्मानियों पर कोह-ए-ग़म टूटा तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-सद-हज़ार-अंजुम से होती है सहर पैदा।
यही गुनाह तरक़्क़ीपसंद शायरों और अदीबों से भी घटित हुआ है कि उन्होंने मानवीय गरिमा और महानता की जद्दोजहद में बहुत से हंगामी मौज़ूआत पर अपने क़लम को चलाया है। और आज भी वो काम जारी है और आइंदा भी जारी रहेगा। दूसरी क़िस्म उस हंगामी अदब की है, जो किसी अहम ऐतिहासिक लम्हे का सृजन है। और उस लम्हे के साथ जेब-ए-ताक़-ए-निस्याँ (जेब की वह ताक़,जिसमें रखकर हर चीज़ भुला दी जाती है) हो गया।
इस पर शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। बड़े से बड़े अदीब और शायर के सृजन का बहुत सा हिस्सा जेब-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो जाता है। फिर अनुसंधानकर्ता उसकी तलाश करते हैं। ये अदब उस शायर और अदीब के लिए बहुत अहम है। जिसने अपने क़लम को मनुष्य की अंतरात्मा के सुरक्षा के लिए समर्पित कर दिया है। जिसने अपने क़लम को बेचा नहीं है। उस पर ग़ालिब का ये शे’र चरितार्थ होता है,
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए।
तरक़्क़ीपसंद तहरीक का वो अदब जो समय की मांग के तहत लिखा गया था, इतिहास का हिस्सा है। और वो अदब ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा। अदब के इतिहास का अज़ीम कारनामा है और कोई तर्क उसको मिटा नहीं सकता। मुस्तक़बिल की राहों में ये अदब रास्ते की मशाल होगा। लोग साथ आते रहेंगे और कारवां बनता रहेगा। और ‘परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम होती रहेगी।’
(अली सरदार जाफ़री की किताब ‘तरक़्क़ी पसंद तहरीक निस्फ़ सदी’ का एक चुना हुआ हिस्सा। उर्दू से हिन्दी अनुवाद : ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी)
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