(भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के बाद बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने एक लेख लिखा था जो ‘जनता’ में संपादकीय के तौर पर प्रकाशित हुआ था। शहादत सप्ताह के तहत आज उनके इस लेख को यहाँ दिया जा रहा है-संपादक)
आखिरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका ही दिया गया। उन पर अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स तथा सिख पुलिस सिपाही चमन सिंह की हत्या का आरोप था। इसके अलावा बनारस में पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या का प्रयास करना, विधानसभा में बम फेंकना, मौलीमिया गांव के एक घर में डकैती कर वहां से बहुमूल्य वस्तुएं लूट ले जाना—जैसे तीन या चार अतिरिक्त आरोप भी थे। विधानसभा में बम फेंकने के आरोप को भगत सिंह ने स्वीकार भी कर लिया था। इस अपराध के लिए उन्हें और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा भी मिल चुकी थी।
भगत सिंह के एक साथी, जिसका नाम जयगोपाल था, ने यह स्वीकार लिया था कि सांडर्स की हत्या क्रांतिकारियों ने, जिनमें भगत सिंह और उनके साथी शामिल हैं—की है। उसी की गवाही पर सरकार ने भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया था। हालांकि तीनों में से किसी भी अभियुक्त ने इस केस में हिस्सा नहीं लिया था। केस की सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के तीन जजों का अभिकरण नियुक्त किया गया था, उसने केस की सुनवाई की और एकमत से तीनों अभियुक्तों को मृत्यदंड की सजा सुना दी।
भगत सिंह के पिता ने वायसराय और सम्राट के आगे दया याचिका दायर करते हुए प्रार्थना की थी कि उन्हें फांसी पर न लटकाया जाए; और यदि आवश्यक हो तो उन्हें अंडमान में आजीवन कारावास के लिए भेज दिया जाए। प्रमुख नेताओं सहित और भी बहुत से लोगों ने इस मामले में सरकार से प्रार्थना की थी। भगत सिंह की फांसी का मुद्दा गांधी और लार्ड इरविन के बीच बातचीत में भी उठाया जा सकता था।
यद्यपि लार्ड इरविन ने भगत सिंह के मृत्युदंड की सजा को माफ करने का कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया था, तथापि बातचीत के दौरान गांधी के भाषण से यह उम्मीद जगी थी कि अपनी सीमाओं के भीतर इरविन तीनों युवा क्रांतिकारियों के जीवन को बचाने का भरसक प्रयास करेंगे। लेकिन ये सभी उम्मीदें, आकलन और अपीलें निष्फल सिद्ध हुईं।
तीनों को लाहौर के केंद्रीय कारागार में, 23 मार्च 1931 को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। उनमें से किसी ने भी अपने जीवन को बचाने की अपील नहीं की थी। लेकिन जैसा कि अखबारों में छपा है, भगत सिंह ने फांसी के बजाए गोली से उड़ा देने की इच्छा जाहिर की थी। लेकिन उनकी आखिरी इच्छा भी नामंजूर कर दी गई; और उन्होंने अभिकरण के निर्णय को शब्दशः लागू कर दिया। फैसला था कि उन्हें फांसी के तख्ते पर मृत्यु होने तक लटकाया जाए। यदि उन्हें गोली से उड़ाया जाता तो मृत्युदंड अभिकरण का फैसला शब्दशः लागू नहीं हो सकता था। न्याय-देवी के आदेश का ज्यों का त्यों पालन किया गया, और तीनों को निर्धारित तरीके से मार डाला गया।
बलिदान किसके लिए?
यदि सरकार यह सोचती है कि न्याय-देवी के प्रति उसके भक्तिभाव और पूरी फरमा बरदारी से लोग प्रभावित हो जाएंगे, और इसी कारण वे इन हत्याओं को स्वीकार लेंगे तो यह उसका निरा भोलापन होगा। कोई इस पर विश्वास नहीं करेगा कि फांसी की यह सजा ब्रिटिश न्याय-तंत्र की साफ और बेदाग प्रतिष्ठा को बचाए रखने की भावना के साथ दी गई है। यहां तक कि सरकार स्वयं इस विचार की आड़ में खुद को आश्वस्त नहीं कर सकती।
फिर न्याय-देवी की ओट लेकर दी गई सजा से दूसरों को कैसे संतुष्ट कर पाएगी? पूरी दुनिया, यहां तक कि सरकार भी जानती है कि उसने केवल न्याय-देवी के प्रति सम्मान के कारण ऐसा नहीं किया है, अपितु अपने गृह-स्थान इंग्लैंड में रूढ़िवादी कंजरवेटिव पार्टी और वहां की जनता के डर से इस सजा को ज्यों का त्यों अमल में लाया गया है। वे सोचते हैं कि राजनीतिक कैदियों जैसे कि गांधी और गांधी के दल (कांग्रेस पार्टी) के साथ किए गए समझौतों से ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है।
कंजरवेटिव पार्टी के कई परंपरावादी नेता एक अभियान की शुरुआत कर आरोप लगा रहे हैं कि लेबर पार्टी की वर्तमान कैबिनेट तथा उसके सुर में सुर मिलाने वाले वायसराय इसके लिए जिम्मेदार हैं। ऐसी स्थिति में यदि लार्ड इरविन राजनीतिक क्रांतिकारियों, जिन पर अंग्रेज अधिकारी की हत्या का आरोप है के प्रति नर्मी का प्रदर्शन करते तो वह अपने विरोधियों के हाथों में जलती मशाल थमा देने जैसा होता। वस्तु-स्थिति के अनुसार इंगलैंड में लेबर पार्टी की हालत अच्छी नहीं है।
ऐसी स्थिति में यदि कंजरवेटिव नेताओं को यह कहने का अवसर मिला होता कि लेबर पार्टी की सरकार ने ऐसे अपराधियों के प्रति नर्मी का बर्ताव किया है, जिन्होंने एक अंग्रेज की हत्या की थी, तो उसके विरुद्ध जनता को उकसाना बहुत आसान हो जाता। इस आसन्न संकट को टालने तथा कंजरवेटिव नेताओं के दिमाग में भरे गुस्से से बचने के लिए, उन्हें आग उगलने का आगे कोई मौका न देने के लिए ही तीनों की फांसी की सजा पर अमल किया गया था।
इस तरह फांसी पर अमल का फैसला न्याय-देवी को संतुष्ट करना न होकर, इंग्लैंड की जनता को खुश करने के लिए था। यदि यह लार्ड इरविन की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला होता, यदि मृत्युदंड को आजन्म कैद में बदलने की ताकत उनमें होती तो वे फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल देते। इंग्लैंड में लेबर पार्टी की कैबिनेट भी लार्ड इरविन के फैसले का समर्थन कर रही होती।
अच्छा होता कि गांधी-इरविन समझौते सकारात्मक रूप में लेते। उसे देश हित की भावना से जोड़कर देखते। देश छोड़ते समय लार्ड इरविन निश्चित रूप से भारतीय जनता की शुभकामना लेना पसंद करेंगे। परंतु अपने कंजरवेटिव साथियों और भारतीय नौकरशाही जो अपने जातिवादी दुराग्रहों के रंग में रंगी है, के कारण वह संभावना अब समाप्त हो चुकी होगी। अब जनमत की गलतफहमी यह है कि लार्ड इरविन की सरकार ने भगत सिंह तथा उनके साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया है, वह भी कांग्रेस के प्रस्तावित कराची सम्मेलन से ठीक दो-चार दिन पहले।
भगत सिंह तथा उनके साथियों की फांसी तथा उसका समय दोनों, गांधी-इरविन समझौते तथा उसके लिए किए गए सभी प्रयासों की हवा निकाल देने के लिए पर्याप्त हैं। यदि लार्ड इरविन को इस समझौते को नाकाम ही करना था तो वे इसके बजाय कोई और अच्छा बहाना ढूंढ सकते थे। इस दृष्टिकोण से विचार करने पर, जैसा स्वयं गांधी भी महसूस करते हैं, कोई भी कह सकता है कि सरकार ने भारी गलती की है।
संक्षेप में, इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी नाराजगी से बचने के लिए, जनमत की उपेक्षा करते हुए तथा बिना यह सोचे-समझे कि इसके बाद गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा—उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया है। हालांकि इसके बाद सरकार इस घटना की भरपाई करना चाहेगी, अथवा अपनी शिष्टता दिखाकर इसका परिमार्जन करने की कोशिश करेगी, परंतु उसे याद रखना चाहिए कि इसे छपाने में वह कभी सफल न होगी।
( डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह लेख 13 अप्रैल, 1931 को ‘जनता’ में संपादकीय के तौर पर प्रकाशित हुआ था। आनंद तेलतुंबड़े द्वारा इसका मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया था। फिर ओमप्रकाश कश्यप ने इसका अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया।)
+ There are no comments
Add yours