Friday, March 29, 2024

रंग कितने संग मेरे : घायल अस्मिताओं की संघर्ष कथा

    हर एक कागज 

        मेरे संघर्ष का चश्मदीद गवाह बनकर

        दीवारों पर चिपक गया है

        या किताबों में दर्ज हो गया है

        बहुत- से कागज 

        अभी भी दबे पड़े हैं।

        डायरियों, फा़इलों या पत्रों के साथ

        मेरी मृत्यु के बाद हो सकता है, उन पर शोध हो, 

        वे तलाशे जायें

        X   X    X    X

        मैं फिर से जीवित हो उठूंगा

        अपने ही कागजों में

        संघर्ष की इबारतों में। 

मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘रंग कितने संग मेरे’ की कविता की चंद पंक्तियां उनके जीवन-यात्रा की ओर संकेत करती हैं। आत्मसम्मान के साथ जीने का संघर्ष दलित समाज के किसी भी सजग-सचेत व्यक्ति का अपरिहार्य और अनिवार्य संघर्ष बन जाता है। यह उसका चुनाव नहीं होता, क्योंकि उसके पास चुनने के लिए विकल्प नहीं होता है, चाहे डॉ. आंबेडकर जैसा महानायक हो या मोहनदास नैमिशराय जैसा लेखक-पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता हो। भारतीय समाज की जाति व्यवस्था के पिरामिड के सबसे निचले सतह में जन्म लेना ही अपमानित होने के लिए और सम्मान के साथ जीने के लिए संघर्ष करने को अभिशप्त कर देता है।

इस अपमान की कथा डॉ. आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर वीजा’ में कही है। दलित समाज से आए व्यक्तियों की आत्मकथाओं की रीढ़ आत्मसम्मान के साथ जीने की  संघर्ष कथा ही होती है। इसका प्रमाण मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा का तीसरा खंड ‘ रंग कितने संग मेरे’ भी प्रस्तुत करता है। इसके पहले उनकी आत्मकथा का पहला खंड़ ‘अपने-अपने पिंजरे’ 1995 में और इसका दूसरा भाग सन् 2000 में इसी नाम से प्रकाशित हुआ था।

दलित समाज में जन्मे किसी व्यक्ति की आत्मकथा कभी अकेले उस व्यक्ति की कथा नहीं होती है, वह दलित समाज की कथा होती है। क्योंकि अपमान की जिन यातनाओं से वह गुजरता है, वे यातनाएं पूरे समाज की यातना होती हैं। इसी को रेखांकित करते हुए नैमिशराय जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि ‘दलित खुद भी घायल होते हैं और उनकी अस्मिता भी।… संघर्ष ही उनका जीवन होता है और जीवन ही संघर्ष।’ अस्मिता के लिए संघर्ष ही दलित आत्मकथाओं का केंद्रीय सारतत्व होता है।

इस आत्मकथा में भी यदि कोई एक शब्द बार-बार दोहराया जाता है तो वह है- संघर्ष। बाहर-भीतर दोनों का संघर्ष। अकारण नहीं है कि इस आत्मकथा को लेखक ने संघर्षरत साथियों को इन शब्दों में समर्पित किया है- ‘ जो साथी जल रहे हैं, मर रहे हैं, पिघल रहे हैं, बावजूद इन सबके संघर्ष कर रहे हैं, उन सभी को समर्पित।’

जो कोई मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथाओं से गुजरा होगा या उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता होगा, वह  इस तथ्य से बखूबी परिचित होगा कि उनके जीवन और लेखन के कितने रूप-रंग हैं। ये सारे रंग आत्मकथा के इस तीसरे खंड में भी दिखाई देते हैं। लेखक के रूप में वे उपन्यासकार, कहानीकार, कवि, नाटककार, पत्रकार और पटकथा लेखक हैं, तो दूसरी ओर वे जीवन संघर्षों में लंबे समय तक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। 

इस आत्मकथा में सत्तर के दशक के बाद की भारतीय राजनीति के विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं। सामाजिक न्याय से थोड़ा भी सरोकार रखने वाला शायद अपने को बड़ा राजनेता मानता रहा हो, जिसके साथ निकट के संबंध लेखक के न रहे हों। लेकिन कांशीराम उनके अगुवा और साथी दोनों थे। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के साथ दलितों की समस्याओं पर गंभीर विचार-विमर्श नैमिशराय जी का होता रहा। रामविलास पासवान संघर्ष के दिनों में उनके घनिष्ठ साथी रहे हैं। जार्ज फर्नांडिस और सुरेंद्र मोहन जैसे सोशलिस्ट नेताओं से भी उनके निकट के रिश्ते रहे हैं। राजमोहन गांधी के साथ एक लंबी वैचारिक यात्रा भी नैमिशराय जी की है।

राजनीति और राजनीतिज्ञों के साथ होते हुए भी उन्हें राजनीति रास नहीं आई। जहां एक ओर बदलाव के उपकरण के रूप में राजनीति एवं राजनीतिक सत्ता उन्हें अपनी ओर खींचती थी, तो दूसरी ओर राजनीतिज्ञों का छल-छद्म एवं सत्ता का घमंड लेखक नैमिशराय को राजनीति से दूर ठेलता था। एक ईमानदार लेखक का विवेक उसे राजनीतिज्ञों की मंशा और चरित्र पर सवाल उठाने को बाध्य कर देता है। राजनीतिक गिरावट उन्हें बेचैन करती है। वे लिखते हैं कि ‘राजनीति के बदलते मूल्य, नैतिकता में गिरावट, संघर्ष से भागती नयी पीढ़ी, इन सबकी कश्मकश में मैं यानी एक अदद लेखक।’ जिस कांशीराम को नैमिशराय अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में सबसे ज्यादा आदर देते थे, उनके नेतृत्व में चले जिस आंदोलन के लिए उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा कुर्बान कर दिया।

उन पर सवाल उठाने में वे हिचकिचाते नहीं हैं। थोड़े असमंजस और संकोच के साथ वे लिखते हैं कि ‘कांशीराम जी के बदलते व्यवहार पर कितना लिखूं, कैसे लिखूं और क्यों लिखूं…? इन सभी सवालों के गिरफ्त में मैं अपने आपको पाता हूं। कांशीराम जी से लोग अभिभूत रहे, मैं भी आरंभिक दौर में उनके प्रभाव में रहा। पर उनके द्वारा उठाए गए सभी कदम सही थे?’ 

नैमिशराय जी सब कुछ के बावजूद मूलत: लेखक हैं। यह आत्मकथा पढ़ते समय आप खुद को लेखकों, संपादकों और सुधी पाठकों से घिरा पाते हैं। विभिन्न दलित लेखकों-लेखिकाओं के पत्र भी इस आत्मकथा में समाहित हैं, जो अपने समय के दस्तावेज हैं। पूरी आत्मकथा दिल्ली, मेरठ और मुंबई के बीच घूमती है। लेखक का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। दिल्ली के पहाड़गंज में एक कमरे को अपना ठिकाना तो बनाता है, लेकिन उसके पंख उसको कहीं टिकने नहीं देते। वह दिल्ली से मुंबई और मेरठ की निरंतर यात्रा करता रहता है। सच तो यह है कि दिल्ली के बाद मुंबई उसका एक दूसरा ठिकाना है। मेरठ उसका जन्म स्थान है, जहां उसका बचपन बीता, जहां वह किशोर से जवान हुआ। जहां उसे दुलारने वाली उसकी मां और छांव देने वाले उसके पिता रहते थे।

इस आत्मकथा का बड़ा हिस्सा मुंबई को समेटता है। मुंबई मतलब फुले और डॉ. आंबेडकर के जीवन, संघर्षों और विचारों का केंद्र। मुंबई का मराठी का दलित साहित्य और मराठी के दलित लेखक। मराठी के सभी बड़े दलित लेखकों की इस आत्मकथा में जीवन्त उपस्थिति है। मराठी साहित्य नैमिशराय जी की ऊर्जा, ताप और आक्रोश का बड़ा स्रोत है। जहां एक ओर मुंबई विचार और साहित्य के केंद्र के रूप में उन्हें अपनी ओर बुलाती है, तो वहीं दूसरी मुंबई का सिने जगत भी उन्हें अपनी ओर खींचता है।

कई सीरियलों के लिए उन्होंने पटकथा लिखी। फिल्मी दुनिया के कई सारे सितारों के साथ आत्मीयता और गहरे संवाद के रिश्ते नैमिशराय जी के रहे हैं। शबाना आजमी और नादिरा बब्बर के साथ संवाद के कुछ रूप इस आत्मकथा में मिलते हैं। नाटककार और अभिनेता के रूप में उनकी यात्रा के बहुत चित्र इस आत्मकथा में मौजूद हैं। नाटककारों, निर्देशकों और अभिनेताओं की एक पूरी दुनिया का जगमगाता चित्र इस आत्मकथा में मौजूद है। यह आत्मकथा 70 के बाद के दशक के सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों के उतार-चढ़ाव का एक दस्तावेज भी है।

बाहर की दुनिया के साथ घर के भीतर के संघर्षों की कथा भी मोहनदास नैमिशराय ने बेबाकी से कही है। अपने ही घर के भीतर एक संघर्षशील लेखक की क्या स्थिति होती है इसका वर्णन आत्मकथा में उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘एक लेखक की घर के बाहर जितनी वाह-वाह होती है, घर के भीतर उतनी ही फजी़हत होती है। लाख टके का आदमी अपने घर में दो कौड़ी का भी नहीं रह पाता।’ इसका मूल कारण यह होता है कि एक संघर्षशील लेखक, विशेषकर दलित लेखक के पास स्वाभिमान, संघर्ष और लेखन की थाती तो होती है, लेकिन अक्सर उसके पास घर-परिवार चलाने लायक जरूरी आय नहीं होती।

पत्नी-बच्चों की छोटी जरूरतों और ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए धन नहीं होता। यह तथ्य बखूबी नैमिशराय जी और उनकी पत्नी के बीच के नोंक-झोक भरे संवाद में मुखर रूप से सामने आता है। नैमिशराय जी अपनी पत्नी से कहते हैं कि ‘ सब कुछ तो है, हमारे पास। आखिर क्या नहीं है, मेरे पास।’ इसका जवाब वह इन शब्दों में देती हैं- ‘हमारे पास परिवार का पालन-पोषण करने के लिए धन नहीं है।’ नैमिशराय जी जवाब में कहते हैं- ‘हमारे पास स्वाभिमान है।’ लेकिन यह तो सच है कि स्वाभिमान से पेट तो नहीं भरता।

दलित समुदाय में जन्मे एक लेखक के लिए आत्मकथा लिखना क्या होता है? इसका बयान इस आत्मकथा की भूमिका में लेखक ने इन शब्दों में किया है- ‘आत्मकथा लिखना अपनी ही भावनाओं को उद्वेलित करना है। अपने ही जख्मों को कुरेदने जैसा है। ऐसे खुरदरे यथार्थ से रू-ब-रू होना है, जिसे हम में से अधिकांश याद नहीं करना चाहते।’ नैमिशराय जी ने अपनी इस आत्मकथा में अपने जख्मों को कुरेदने का साहस दिखाया है। उनके ही शब्दों में कहें तो खुद को अपने ही यादों के कफन में लिपटाया और दबाया। उन्होंने खुद को बरस-दर-बरस अपने आक्रोश की ज्वाला में झोंका। जिसकी परिणति यह आत्मकथा है।

संपादन की कमी पृष्ठ-दर-पृष्ठ आत्मकथा पढ़ते हुए खटकती है। जिसके चलते कई जगह बेतरतीबी और बिखराव दिखता है। कसावट के पैमाने पर इसे एक कमजोर कृति बना देता है। 

समीक्षित कृति- 

रंग कितने संग मेरे  ( आत्मकथा )

लेखक- मोहनदास नैमिशराय

प्रकाशक- वाणी प्रकाशन 

(समीक्षक डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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