Saturday, April 20, 2024

बलराज साहनी: अवाम को समर्पित रही जिंदगी

बलराज साहनी होना या बनना सबके बूते की बात नहीं और शायद इसीलिए उन सरीखी शख्सियत को जिन्हें दुनिया हमेशा याद रखेगी। इनका जन्म 1 मई 1913 को हुआ। यानी समूची दुनिया में मनाए जाते मजदूर दिवस के दिन। इनका जन्म पाकिस्तान के हिस्सा हो चुके रावलपिंडी में हुआ था।

बहुतेरों के दिलो-दिमाग में बलराज साहनी इसलिए भी छाए हुए हैं कि वह एक बहुपक्षीय शख्सियत थे। जबरदस्त और अति प्रभावकारी विलक्षणता लिए हुए। यकीनन महान थे लेकिन महानता के प्रचलित दंभ से कोसों दूर।

साठ साल का उनका जीवन लोक और लोकाचार के मानवीय बुनियादी उसूलों को समर्पित था। देश-विदेश घूमते हुए हर जगह से ऐसा सब कुछ ग्रहण किया जो बेहतर जिंदगी के लिए कोई रास्ता दे सकता हो। जो ग्रहण किया उसे भी व्यवहारिक रूप देने में उन्होंने पूरी जी-जान लगा दी थी।

उसूल बदलने और जेल जाने के बीच बलराज साहनी ने जेल की राह पकड़ी। मतलब कि उसूलों-विचारधारात्मक आग्रहों के लिए आरामदायक जिंदगी (जो उन्हें सहज हासिल थी) के बजाय सलाखों का चयन भी किया। सही मायनों में वह चौथी दुनिया के प्रथम जन नागरिक थे।

व्यवस्था में आमूल बदलाव का जज्बा था इसलिए हर कुर्बानी के लिए तार्किकता के साथ तत्पर थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि गांधीजी से संपर्क रखने वाले साहनी शहीद भगत सिंह के बहुत बड़े प्रशंसक और हमख्याल थे।

शुरुआती 25 साल उन्होंने अपनी मातृभूमि रावलपिंडी में व्यतीत किए। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा गुरुकुल प्रथा के तहत हिंदुस्तान की क्लासिकल भाषा संस्कृत में हासिल की। वेद, उपनिषद और संस्कृत के बेशुमार श्लोक उन्हें कंठस्थ थे। सिनेमा के प्रति अनुराग बाल्यावस्था में ही कहीं न कहीं भीतर था।

बेशक तब तक सिनेमा कल्पना की एक अवधारणा थी और उसका साकार होना निकट का कुछ होने जैसा था। ‘कला कला के लिए नहीं’ बल्कि अवाम के लिए होनी चाहिए, इस विचार को उन्होंने किशोरावस्था में ढाल लिया जो ताउम्र उनके कला-कर्म और जीवन का बुनियादी हिस्सा रहा।

डीएवी संस्था उनके दौर में अलहदा किस्म के बदलाव का तेवर रखती थी। वहां के एक स्कूल से उन्होंने मैट्रिक की और 1934 में लाहौर के सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी में एमए। पंजाबी और उर्दू में इसलिए नहीं की क्योंकि वह मानते थे कि दोनों भाषाएं उनकी मां जैसी हैं। और इनमें किसी किस्म की डिग्री की उन्हें कोई दरकार नहीं।

उनकी कॉलेज की पढ़ाई के वक्त साम्राज्यवाद का किला ढह रहा था। विश्व का नक्शा बदल रहा था। पूंजीवाद के समानांतर अन्य विचारधाराएं आकार ले रही थीं। पूंजीवाद की विसंगति वाले वायरस का सबसे पहला हमला रोजगार पर होता है। सो बलराज जी को पिता के कपड़े के व्यापार में शामिल होना पड़ा। काम के सिलसिले में इधर-उधर जाते थे।

उन्हीं दिनों वह देवेंद्र सत्यार्थी के संपर्क में आए फिर दोनों घूम-घूम कर लोकगीत इकट्ठा करने लगे। प्रतिभाशाली बलराज जी की लगन ऐसी लगी कि खुद भी अचेतन उनमें रफ्ता-रफ्ता शुमार होते चले गए। गोया प्रतिभा से सने हुए लोगों की संगत कोई संक्रमण हो।

ऐसा व्यक्तित्व व्यापार सरीखी किसी क्रिया में कैसे शामिल हो सकता था? बलराज साहनी 1936 में पत्नी सहित गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के कोलकाता स्थित शांतिनिकेतन चले गए। पत्नी दमयंती लाहौर की ग्रेजुएट थीं। शांतिनिकेतन में साहनी अंग्रेजी पढ़ाने लगे। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर सिख-संस्थापक गुरु नानक देव के व्यक्तित्व और उनकी काव्यात्मक क्षमताओं के बेहद मुरीद थे। उन्होंने साहनी को पंजाबी में अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित किया। इसलिए भी कि यह भाषा बलराजजी की मातृभाषा थी।

तब तक अपना सारा कुछ रचनात्मक वह अंग्रेजी और हिंदी में लिखते थे। टैगोर की प्रेरणा और आशीर्वाद से वह बाकायदा पंजाबी लेखन में आए। 1954 के इर्द-गिर्द उन्होंने बलवंत गार्गी को खत लिखा कि वह पंजाबी में लिखने के लिए उनका मार्गदर्शन चाहते हैं।

इसी साल उन्हें बीबीसी में गांधीवादी अंग्रेज नौकरशाह लायनल फिल्डन की बदौलत नौकरी मिली। तब लायनल बीबीसी के महानिदेशक थे। इस नौकरी ने बलराज साहनी की विचारधारा को खास धार दी। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रगतिशील और कलावादी लेखकों से मिले और चीन की यात्रा के दौरान ‘चाइनीस पिपल्स थिएटर’ के बारे में उन्हें वृहद संज्ञान हुआ।

बीबीसी से अनुबंध खत्म होने के बाद मुंबई में उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ ‘इप्टा’ का सफर शुरू किया। इप्टा के सिरमौर पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर से भी बलराज साहनी और दमयंती सहानी जुड़े। बेशुमार शानदार प्रस्तुतियों का जिक्र-ए-खास हिस्सा रहे।

उसी दौरान बलराज साहनी का सिनेमाई सफर शुरू होता है। वह प्रबल भावना वाले यथार्थवादी कलाकार थे। संघर्षशील पात्रों को हुबहू जीना शायद उनके लहू में था। उनकी किसी भी भूमिका को देख लीजिए, उनका यथार्थवादी कलाकार समूची सक्षमता से अपनी शिद्दती जमानत और अवाम को उसकी अमानत देता मिलेगा। यह बलराज साहनी का हासिल था।

सिनेमा उनका जुनून और प्रोफेशन था जिसका निखरना उनके जिस्मानी अंत तक बरकरार रहा। दो बीघा जमीन, काबुलीवाला, वक्त, एक फूल दो माली, हंसते जख्म, पवित्र पापी और सीमा आदि फिल्मों में उनके अभिनय को कौन भूल सकता है? भूलने का बहाना करके भी विस्मृति का खाता खोलना नामुमकिन है।

जिस बीबीसी में उन्होंने नौकरी करते हुए कई सबक हासिल किए उसी के साथ बाद में खुद के दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बाकायदा कहा कि वह एक मार्क्सवादी मानुष हैं। और जब अभिनय करते हैं या कलम चलाते हैं तो इस विचारधारा के अपरिहार्य अंश उनमें खुद-ब-खुद शुमार हो जाते हैं। वैसे, इसकी मिसाल जिंदगी के उनके सफरनामे, फिल्म-यात्रा और लेखन से भी बखूबी मिलती है।

पचास के दशक में उन्होंने बाकायदा लिखना शुरू किया तो गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की आशीर्वादनुमा विनम्र हिदायत उनमें ढल चुकी थी। उनकी कलम ने जुबान अथवा भाषा पंजाबी चयन की। निबंध लेखन और यात्रा-संस्मरण में उन्हें सिरमौर पंजाबी लेखकों की श्रेणी में प्रथम पुरुष माना जाता है। रूस और पाकिस्तान की यात्रा की उनकी संस्मरण पुस्तकें रिकॉर्ड संख्या में आज भी बिक्री-बाजार में अव्वल हैं।

दूसरी भाषाओं में भी उनके अनुवाद हैं लेकिन उन्होंने इन्हें मूल रूप से पंजाबी में ही लिखा। पंजाबी के नामवर हस्ताक्षर नानक सिंह गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, जसवंत सिंह कंवल, करतार सिंह दुग्गल, देवेंद्र सत्यार्थी और बलवंत गार्गी उनके आजीवन गहरे दोस्त रहे।

मरहूम नाटककार गुरशरण सिंह को समूची दुनिया नुक्कड़ नाटक के बादशाह के तौर पर जानती-पहचानती है। बलराज साहनी उनके जबरदस्त मुरीद थे। 1971 में भाषा विभाग पंजाब ने साहनी को शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार से नवाजा तो उससे हासिल पूरी राशि के साथ अपना भी कुछ शामिल करते हुए उन्होंने सब कुछ गुरशरण सिंह के बहुचर्चित नाटक कला केंद्र को सौंप दिया।

आगे जाकर महान गुरशरण सिंह ने प्रतिभावान और प्रतिबद्ध लेखकों के लिए जब प्रकाशन संस्थान शुरू किया तो उसका नाम बलराज साहनी के नाम पर रखा। गुरशरण सिंह ने कहा कि “व्यक्ति मर जाते हैं लेकिन किताबें नहीं! खासतौर से तब जब उनके साथ बलराज साहनी जैसी रोशनी हो”।

साहनी पुराने ग्रीक पात्रों सरीखे थे। वह कई चेहरों वाले अदाकार थे लेकिन फन का यह बादशाह अवाम का सच्चा चेहरा कतई कभी नहीं छोड़ता था । 1972 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में आमंत्रित होने पर विशेष भाषण दिया था। उनके उस वक्तव्य को आज भी याद रखा जाता है।

प्रसंगवश, लाहौरी और अमृतसरी दोस्तों के अनौपचारिक निमंत्रण पर वह ‘गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी’ गए और वहां अपने ग्रामीण दोस्तों के कहने पर चादरा-कुर्ता (पंजाब की ग्रामीण पोशाक) डाला और खूब भंगड़ा किया। वह हक-सच और जिंदगी के हर पहलू से मोहब्बत करने वाले इंसान थे। अपने फिल्मी कैरियर से कमाए आधे पैसे वह हाशिए पर आए लोगों को देते थे फर्ज समझकर। ऐसा करते हुए उन्हें प्रचार से खास परहेज और लगभग नफरत थी।

जिस्मानी तौर पर उन्होंने 13 अप्रैल, 1973 को विदा ली। कालजयी कथाकार भीष्म साहनी उनके छोटे भाई थे और उनके संस्मरण में भी बलराज साहनी जिंदा हैं! बाहरहाल, बलराज साहनी थे, हैं, और हमेशा हमारे बीच रहेंगे।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)                                     

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