उदयनारायण तिवारी की पुस्तक है ‘भोजपुरी भाषा और साहित्य’। यह पुस्तक 1953 में छपकर आई थी। लेखक ने पुस्तक के पहले संस्करण में ‘दो शब्द’ में अपने समय में हिंदी और भोजपुरी को लेकर छायी हुई गलतफहमियों पर कुछ बातें खुद के अनुभव को बयान करते हुए लिखा है। ‘‘बात सन् 1925 की है। तब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में बीए, प्रथम वर्ष का छात्र था। एक दिन कक्षा में आदरणीय डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने हिन्दी की सीमा बतलाते हुए कहा- ‘डॉ. गियर्सन के अनुसार भोजपुरी-भाषा-क्षेत्र हिन्दी के बाहर पड़ता है। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता।’ भोजपुरी-भाषा-भाषी होने के नाते तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अनन्य स्नेह होेने के कारण डा. वर्मा के विचार तो मुझे रुचिकर प्रतीत हुए, परन्तु डॉ. गियर्सन की उपर्युक्त स्थापना से हृदय बहुत क्षुब्ध हुआ।
मैंने धारणा बना ली थी कि भोजपुरी हिन्दी की ही एक विभाषा है, अतएव हिन्दी के क्षेत्र से भोजपुरी को अलग करना मुझे देशद्रोह-सा प्रतीत हुआ। मैंने अपने मन में सोचा- ‘गियर्सन आईसीएस था, फूट डालकर शासन करने वाली जाति का एक अंग था, समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ हिन्दी को अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करने में उसकी यही विभाजक नीति अवश्य रही होगी।’ उसी समय मेरे मन में संकल्प जागृत हुआ कि पढ़ाई समाप्त करने के अनन्तर मैं एक दिन भोजपुरी के सम्बन्ध में गियर्सन द्वारा फैलाये गये इस भ्रम को अवश्य ही निराधार सिद्ध करूंगा और सप्रमाण यह दिखा दूंगा कि भोजपुरी हिन्दी की ही एक बोली है तथा उसका क्षेत्र हिन्दी का ही क्षेत्र है।’’
वह आगे लिखते हैंः ‘‘सन् 1927 में बीए कर लेने के अनन्तर प्रायः दो वर्षों के लिए मेरा हिन्दी से सम्बन्ध छूट गया। एमए में मैंने अर्थशास्त्र विषय लिया और 1929 में एमए कर लेने के पश्चात मेरी रुचि पुनः भोजपुरी के अध्ययन की ओर जागृत हुई और पूर्वकृत संकल्प का पुनः स्मरण हो आया।’’ 1930 में पटना में आयोजित ऑल इंडिया ओरियेंटल कॉन्फ्रेंस में हिस्सेदारी के दौरान उनकी मुलाकात प्रसिद्ध भाषा शास्त्री डा. सुनिति कुमार चाटुर्ज्या से हुई। वह गियर्सन की कुछ स्थापना का खण्डन कर चुके थे। उदयनारायण तिवारी ने उनसे भोजपुरी भाषा और क्षेत्र को लेकर बात किया। डा. सुनिति कुमार चाटुर्ज्या ने न सिर्फ इस अध्ययन के लिए प्रेरित किया, भोजपुरी की ध्वनियों का अभ्यास कराया साथ ही कुछ विद्वानों के सानिध्य में जाने और अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।
डा. बाबूराम सक्सेना के नेतृत्व में उन्होंने तीन साल तक इस दिशा में काम किया। उनके ही सौजन्य में उन्होंने ‘ए डाइलेक्ट ऑफ भोजपुरी’ नाम से एक निबंध लिखा। यह 1934-35 में बिहार-ओड़ीसा रिसर्च सोसायटी की पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उनके इस निबंध की सराहना करने वालों में डा. गियर्सन, डा. ज्यूल ब्लाॅख, डा. टर्नर और डा. सुनितिकुमार चाटुर्ज्या थे। वह लिखते हैंः ‘‘1934-37 ई. तक मैं भोजपुरी के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा कर इसकी विभाषााओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करता रहा, जो कि अपने अध्ययन को विज्ञान-सम्मत बनाने के लिए नितान्त आवश्यक था।’’ इसी दौरान उनकी मुलाकात राहुल सांकृत्यायन से हुई।
वह तिब्बत से लौटकर आये थे और प्राप्त सामग्रियों में से कुछ का अनुवाद करने में लग गये थे। उनके सानिध्य में पाली भाषा को जानने का मौका मिला। उदयनारायण तिवारी ने 1939 में पाली विषय में एमए की परीक्षा देने कलकत्ता विश्वविद्यालय गये। एक बार फिर डा. सुनिति कुमार चाटुर्ज्या के साथ मुलाकात हुई। उनके साथ भोजपुरी भाषा पर अब तक के हो चुके अध्ययन पर चर्चा किया। 1940 में उन्होंने डा. चाटुर्ज्या और डा. सुकुमार सेन के तत्वावधान में तुलनात्मक भाषा शास्त्र का अध्ययन शुरू किया। 1943 तक उन्होंने ‘भोजपुरी भाषा की उत्पत्ति और विकास’ थिसिस लिखा।
1944 में यह थिसिस प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया जिस पर उन्हें डीलिट की उपाधि मिली। वह अपने ‘दो शब्द’ के दूसरे पैरा में लिखते हैंः परन्तु, आज भोजपुरी के अध्ययन में चौबीस वर्षों तक निरन्तर लगे रहने तथा भाषा शास्त्र के अधिकारी विद्वानों के सम्पर्क में भाषा-विज्ञान के सिद्धांतों को यत्किंचित सम्यक् रूप में समझ लेने के पश्चात मुझे अपने उस पूर्वाग्रह पर खेद होता है, जो बीए प्रथम वर्ष में, भाषा-विज्ञान के गम्भीर परिशीलन के बिना ही मेरे हृदय में स्थान पा गया था।’’
उदयनारायण तिवारी के भाषा वर्गीकरण में जिसे हम हिन्दी कहते हैं वह भारतीय आर्य भाषाओं के विकासक्रम में मध्यदेशीय की शौरसेनी-शौरसेनी अपभ्रंश-पश्चिमी हिन्दी जिसके तहत बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बांगरू और हिंदुस्तानी या नागर हिन्दी, जिसे आधुनिक हिन्दी का निर्माण हुआ। यहां हमें जरूर ही पाकिस्तान के प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी तारिक रहमान की प्रस्थापनाओं को ध्यान में रखना चाहिए जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फ्राॅम हिन्दी टू उर्दू- ए सोशल एण्ड पोलिटिकल हिस्ट्री’ में पेश किया है।
यह पुस्तक 2011 में ओरियेंट ब्लैकस्वान से छपी है। आम तौर पर मेरठ के आसपास बोली जाने वाली ‘खड़ी हिंदी’ को उत्पत्ति केंद्र बना देने से आगरा-मथुरा का पूरा क्षेत्र जो ब्रजभाषी क्षेत्र है, से हिन्दी के रिश्ते को आसानी से भुला दिया जाता है, और यह भुलाना सिर्फ भू-क्षेत्र का नहीं है; यह एक भाषा परिवार के विकास की कहानी को ही छोड़ दिया जाता है जो 19वीं सदी में जाकर नागरी लिपि अपनाकर हिन्दी के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। जबकि हिंदी के मध्यकालीन दौर के नाम पर सबसे अधिक ब्रज और अवधी साहित्य ही पढ़ाया जाता है।
भोजपुरी भारतीय आर्यभाषा की प्राच्य विकास में आता है जो अर्धमागधी और मागधी में विभाजित हुआ। अर्धमागधी भी अपभ्रंश में बदलकर अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी में विकसित हुई। मागधी भी अपभ्रंश में बदलकर दो हिस्सों में बंट गई, पश्चिमी मागधी और पूर्वी मागधी। पूर्वी मागधी से असमिया, बंगला और उड़िया भाषा बनी। पश्चिमी से मैथिली, मगही और भोजपुरी भाषा बनी। भारत की आठवीं अनुसूची में पश्चिमी मागधी की मैथिली को मान्यता मिल चुकी है। पूर्वी मागधी की तीनों भाषाओं को भी इस अनुसूची में मान्यता मिली हुई है। मध्यदेशीय परिवार की अन्य किसी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता हासिल नहीं है। इसी तरह अर्धमागधी की भी किसी भी भाषा को मान्यता नहीं मिली है।
हिन्दी में न सिर्फ मध्यदेशीय भाषाओं, साथ ही अर्धमागधी और मागधी की पश्चिमी भाषा परिवार की भी भाषाओं को गिनकर एक महान भाषा क्षेत्र बनाने का का प्रयास आज दक्षिण भारत तक पहुंच चुका है। इसे लेकर जो विरोध हो रहा है, उसे सिर्फ नाराजगी जैसा देखना, या उन्हें ‘संकीर्ण’ बता देने का नजरिया अपने इतिहास, भाषा, जीवन, समाज, संस्कृति की विकास यात्रा से आंख मूंद लेना है। हमें रसूल हम्जातोव के उन शब्दों को जरूर याद करते रहना होगाः जब आप इतिहास पर गोली चलाते हैं तब वह गोले भी दागता है।
(अंजनी कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)