जन्मदिवस विशेष: थोड़े में बहुत कुछ कहने वाला अफसानानिगार राजिंदर सिंह बेदी

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उर्दू अफ़्सानवी अदब बात हो, और वह राजिंदर सिंह बेदी के नाम के ज़िक्र के बिना ख़त्म हो जाए, ऐसा मुमकिन ही नहीं है। अपनी दिलचस्प कथा शैली और जुदा अंदाज़-ए-बयां की वजह से बेदी उर्दू अफ़साना-निगारों में अलग से ही पहचाने जाते हैं।

कहानी लिखने में उनका कोई सानी नहीं था। अपने फ़िल्म लेखन की मसरूफ़ियत के चलते हालांकि वह अपना ज़्यादा वक़्त अदब के लिए नहीं दे सके, लेकिन उन्होंने जितना भी लिखा वह शानदार है। बेदी के कथा साहित्य में जन जीवन के संघर्ष, उनकी आशा-निराशा, मोह भंग और अंदर-बाहर की विसंगतियों पर सशक्त रचनाएं मिलती हैं।

सही अल्फ़ाज़ों का इंतिख़ाब और थोड़े में बहुत कुछ कह जाना बेदी की ख़ासियत थी। उनकी कोई भी कहानी उठाकर देख लीजिए, उसमें अक्ल और जज़्बात दोनों का बेहतर तालमेल दिखलाई देता है। बेदी की कहानियों के कथानक घटना-प्रधान की बजाय ज़्यादातर भावना-प्रधान हैं, पर इन कहानियों में एक कथ्य ज़रूर है, जिसका निर्वाह वे बड़े ही ईमानदारी से करते थे।

1 सितंबर 1915 में अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मे राजिंदर सिंह बेदी की मादरी ज़बान पंजाबी थी, लेकिन उनका सारा लेखन उर्दू ज़बान में ही मिलता है। इक़बाल और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से लेकर साहिर लुधियानवी, कृश्न चन्दर, राजिंदर सिंह बेदी तक ऐसे अनेक शायर और लेखक हुए हैं, जिनकी मादरी ज़बान पंजाबी है, पर वे लिखते उर्दू में थे और उनकी शिनाख़्त उर्दू लेखक के तौर पर ही है।

उर्दू की पैदाइश पंजाब में हुई और इस ज़बान का जो मुहावरा है, वह भी काफ़ी हद तक पंजाबी ज़बान से मिलता है। इन दोनों भाषाओं की समानताओं को देखते हुए कई बार राजिंदर सिंह बेदी औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत में यह कहते थे कि उर्दू का नाम ’पंजुर्दु’ होना चाहिए।

अपने और अपने परिवार के जीवनयापन के लिए बेदी ने कई काम किए। मसलन डाक-तार महकमे में क्लर्क के रूप में उन्होंने काम किया, तो ऑल इंडिया रेडियो को भी अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

वे ऑल इंडिया रेडियो, जम्मू के निदेशक पद पर भी रहे। एक बार जब वे पूरी तरह से स्वतंत्र लेखन और फ़िल्म लेखन के क्षेत्र में आए, तो फिर हमेशा के लिए इसे अपना लिया। राजिंदर सिंह बेदी ने लेखक और फिल्मकार के तौर पर ख़ासी मक़बूलियत पाई।

उन्होंने अपनी पहली कहानी साल 1936 में लिखी। ‘महारानी का तोहफ़ा’ टाइटल वाली यह कहानी ‘अदबी दुनिया’ मैगज़ीन के सालाना शुमारे में प्रकाशित हुई। इस कहानी प्रकाशन के तीन साल बाद यानी साल 1939 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘दाना-ओ-दाम’ प्रकाशित हुआ। इस कहानी संग्रह से उनका नाम उर्दू के बेहतरीन अफ़साना-निगारों की फ़ेहरिस्त में शुमार होने लगा।

सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर की तरह राजिंदर सिंह बेदी के अफ़सानों के भी चर्चे घर-घर में होने लगे। लाहौर से प्रकाशित होने वाले उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘हुमायूं’ और ‘अदबी दुनिया’ में उनकी कहानियां अहमियत से प्रकाशित होती।

‘दाना-ओ-दाम’ के बाद बेदी के चार कहानी संग्रह ‘गरहन’ (साल 1942), ‘कोखजली’ (साल 1949), ‘अपने दु:ख मुझे दे दो’ (साल 1965) ‘हाथ हमारे क़लम हुए’ (साल 1974) प्रकाशित हुए। जिन्हें पाठकों और आलोचकों दोनों ने ही हाथों-हाथ लिया। बेदी की कहानियों का ताना-बाना ज़िंदगी के मीठे-कड़वे तजुर्बों से मिल कर बना है, लेकिन उनके यहां कहीं तल्ख़ी या बेज़ारी नहीं मिलती।

ज़िंदगी की अंधेरी राहों में वे मुहब्बत, सहानुभूति और इंसानियत की रौशनी देखते हैं। कहानी के मुतअल्लिक़ राजिंदर सिंह बेदी के विचार थे, ‘मेरे ख़्याल से कहानियां दो क़िस्म की होती हैं। पहली, बयानिया जैसी ‘अपने दु:ख मुझे दे दो’ और दूसरी आर्टिस्टिक जिसमें फ़न की बड़ी अहमियत होती है, लेकिन मैं देखता हूं, तो लगता है, आज भी अपने देश में कहानी फ्यूडल डेफिनेशन ऑफ स्टोरी से नहीं निकल पाई है।’’

एक लिहाज़ से देखें, तो बेदी की यह बात समकालीन कहानी पर बिल्कुल सटीक बैठती है। भाषा, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से आज भी हिंदोस्तानी कहानी वहीं के वहीं खड़ी है, जहां से वह चली थी। उसके बुनियादी ढांचे में कोई ज़्यादा बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।

‘युक्लिप्टस’ को राजिंदर सिंह बेदी अपनी सबसे अच्छी कहानी मानते थे। उर्दू अदब में यह कहानी इसलिए बेमिसाल है कि इस कहानी में फ़न भी है और मौज़ूअ भी। अलबत्ता उनकी ऐसी कई कहानियां मिल जाएंगी, जिसमें यह दोनों ख़ूबियां मौजूद हैं। देश और पंजाब के बंटवारे पर बेदी ने सिर्फ़ एक कहानी ‘लाजवंती’ लिखी और वह भी ऐसी कि जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

जब भी बंटवारे पर लिखी कहानियों की बात होगी, ‘लाजवंती’ की बात ज़रूर होगी। उनकी सभी कहानियों में भावनाओं की गहन बुनावट साफ़ नज़र आती है। बेदी की कहानियां भावनाओं और संवेदनशीलता की ऐसी दहलीज़ पर खड़ी होती हैं, जहां से यह आहिस्ता-आहिस्ता पाठकों के दिल की गहराई में उतरती चली जाती हैं।

‘गर्म कोट’, ‘भोला’ आदि उनकी ऐसी ही कुछ कहानियां हैं। ‘भोला’ बाल मनोविज्ञान की उम्दा कहानी है। इस कहानी में जिस तरह से उन्होंने एक छोटे बच्चे के मनोभावों का चित्रण किया है, वह लाजवाब है। राजिंदर सिंह बेदी की कहानियों को पाठकों और आलोचकों दोनों का ही भरपूर प्यार मिला।

बेदी की ज़्यादातर कहानियों में महिलाओं के दुःख-दर्द, जज़्बात और उनकी समस्याएं बड़ी ही संज़ीदगी से नुमायां हुई हैं। ‘लाजवंती’ से लेकर ‘युक्लिप्टस’, ‘बब्बल’, ‘एक लंबी लड़की’, ‘अपने दु:ख मुझे दे दो’ और ‘दिवाला’ वगैरह। यहां तक कि उनके एक अदद उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ के मरकज़ में भी एक औरत ही है।

राजिंदर सिंह बेदी ने ख़ूब कहानियां लिखीं। उर्दू अदब में राजिंदर सिंह बेदी की पहचान अफ़साना-निगार के तौर पर है। उन्होंने सिर्फ़ एक उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ लिखा और वह भी संग-ए-मील है।

साल 1962 में छपे इस उपन्यास को 1965 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा गया। बाद में इस उपन्यास पर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बनी, हालांकि वह बहुत कामयाब साबित नहीं हुई। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि नॉवेल ‘एक चादर मैली सी’ सबसे पहले ‘नुक़ूश’ पत्रिका के कहानी विशेषांक में शाया हुआ था।

पाठकों की बेहद पसंदगी और मांग पर बाद में यह अलग से छपा। बेदी ने कुछ नाटक भी लिखे। उनके ड्रामों का पहला मजमूआ ‘बेजान चीज़ें’ टाइटल से 1943 में छपा। ‘नकले मकानी‘, ‘जादू की कुर्सी’ उनके जनवादी नाटक हैं। नाट्य संग्रह ‘सात ख़ेल’ में उनके सात नाटक-‘ख़्वाज़ासरा’, ‘चाणक्य’, ‘तलछट’, ‘नक्ले मकानी’, ‘आज’, ‘रुख़शंदा’ और ‘एक औरत की ‘‘ना‘’ संकलित हैं।

1982 में छपी किताब ‘मुक्तिबोध’ में राजिंदर सिंह बेदी के लेख, संस्मरण और भाषण शामिल हैं। इस किताब में पाठकों को बेदी के लेखन के दीगर पहलू देखने को मिलते हैं।

उर्दू अदब के साथ-साथ राजिंदर सिंह बेदी का फ़िल्मों से भी गहरा नाता रहा। दीगर साहित्यकारों के बनिस्बत वे इस विधा में ज़्यादा कामयाब रहे। उनका मानना था कि ‘फ़िल्म, लघु कथा के क़रीब है।’ ज़ाहिर है कि फ़िल्मों में बेदी को कामयाबी, उनके इसी नज़रिए के ही बदौलत मिली।

साल 1949 में उन्होंने फ़िल्म ‘बड़ी बहन’ से जो फ़िल्मों में पटकथा व संवाद लिखना शुरू किया, तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे फ़िल्मों से जुड़े रहे। उन्होंने कई फ़िल्मों के संवाद और पटकथाएं लिखीं। उनकी सभी फ़िल्में एक से बढ़कर एक है।

अमिय चक्रवर्ती की ‘दाग’, सोहराब मोदी की ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, बिमल रॉय की ‘देवदास’ व ‘मधुमती’, ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’, ‘अनुपमा’, ‘सत्यकाम’ व ‘अभिमान’ समेत कई फ़िल्मों के जानदार और हृदयस्पर्शी संवाद बेदी की क़लम से ही निकले थे।

फ़िल्म देवदास के संवादों में जो सहजता और संवेदनशीलता दिखलाई देती है, वह राजिंदर सिंह बेदी की धारदार क़लम का ही कमाल है। इस फ़िल्म के संवादों में बेदी इसलिए भी कमाल दिखा सके कि ‘देवदास’ उनके मनपसंद लेखक शरतचंद्र चटर्जी का उपन्यास था। राजिंदर सिंह बेदी के लिखे किसी भी फ़िल्म के संवाद उठाकर देख लीजिए, उनमें भावों की शानदार अभिव्यक्ति मिलती है।

बेदी ने संजीव कुमार व रेहाना सुल्तान को लेकर ‘दस्तक’ और धर्मेंद्र, वहीदा रहमान, जया भादुड़ी व विजय अरोड़ा को लेकर ‘फ़ागुन’ जैसी फ़िल्में बनाई। यही नहीं अपनी चर्चित कहानी ‘गर्म कोट’ पर भी उन्होंने एक कला फ़िल्म बनाने का जोखिम लिया। लेकिन अफ़सोस ! बॉक्स ऑफ़िस पर इस फ़िल्म ने कोई कमाल नहीं दिखाया।

यही हाल फ़िल्म ‘दस्तक’, ‘फ़ागुन’ और ‘लालटेन’ का हुआ। इन फ़िल्मों को कला समीक्षकों ने तो ख़ूब सराहा, पर जनता का प्यार नहीं मिला। हां, फ़िल्म ‘दस्तक’ को ज़रूर कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। संवाद लेखन में कामयाब राजिंदर सिंह बेदी, फ़िल्म निर्देशक के तौर पर नाकामयाब ही रहे।

मानवीय संवेदनाओं का यह चितेरा क़लमकार अपने चाहने वालों की यादों में हमेशा ज़िंदा रहेगा।

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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