Friday, March 29, 2024

जन्मदिन पर विशेष: ‘रशीद जहां’ यानी एक ज़िंदा बगावत!

डॉ. रशीद जहां, तरक्कीपसंद तहरीक का वह उजला, चमकता और सुनहरा नाम है, जो अपनी सैंतालिस साल की छोटी सी जिंदगानी में एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय रहीं। उनकी कई पहचान थीं मसलन अफसानानिगार, नाटककार, पत्रकार, डॉक्टर, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और इन सबमें भी सबसे बढ़कर मुल्क में तरक्कीपसंद तहरीक की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में रशीद जहां का बेमिसाल योगदान है। वे प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की संस्थापक सदस्य थीं। इन दोनों संगठनों के विस्तार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हिंदी और उर्दू जुबान के अदीबों, संस्कृतिकर्मियों को इन संगठनों से जोड़ा। मौलवी अब्दुल हक, फैज अहमद फैज, सूफी गुलाम मुस्तफा जैसे कई नामी गिरामी लेखक यदि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े, तो इसमें रशीद जहां का बड़ा योगदान है। संगठन बनाने के सिलसिले में सज्जाद जहीर ने शुरुआत में जो यात्राएं कीं, रशीद जहां भी उनके साथ गईं। लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर जो अदब के बड़े मर्कज थे, इन मर्कजों से उन्होंने सभी प्रमुख लेखकों को संगठन से जोड़ा। संगठन की विचारधारा से उनका तआरुफ कराया। गोया कि संगठन के हर काम में वे पेश-पेश रहती थीं। उन्होंने जैसे अपनी जिंदगी को तरक्कीपसंद तहरीक के लिए ही कुर्बान कर दिया था। इसके लिए ही वे अपनी सांसें लेती थीं।

साल 1936 में लखनऊ के मशहूर रफा-ए-आम क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ। इस अधिवेशन को कामयाब बनाने में भी रशीद जहां का बड़ा रोल था। इस कांफ्रेंस के लिए चंदा जुटाने के लिए उन्होंने न सिर्फ यूनिवर्सिटी और घर-घर जाकर टिकट बेचे, बल्कि मुंशी प्रेमचंद को सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए राजी किया। चौधरी मुहम्मद अली साहब रूदौलवी, जो कि उस वक्त अवध के एक बड़े ताल्लुकेदार और रईस थे, उनको कांफ्रेंस का स्वागत अध्यक्ष बनने के लिए तैयार किया। ताकि सम्मेलन में उनकी ओर से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक मदद मिल सके। प्रगतिशील लेखक संघ के लिए तो रशीद जहां और उनके पति महमूदुज्जफर दोनों पूरी तरह से समर्पित थे।

जाहिर है कि संगठन का जो आखिरी मसौदा बना, उसमें भी इन दोनों की राय को अहमियत दी गई। तरक्कीपसंद तहरीक के लिए रशीद जहां और महमूदुज्जफर का जिस तरह का समर्पण था, उसका अपनी किताब ‘रौशनाई’ में बयान करते हुए सज्जाद जहीर लिखते हैं,‘‘उन दोनों ने अपनी खुदी को भुलाकर इंसानियत को अपनी जिन्दगी का मकसद बना लिया था।’’ सज्जाद जहीर की इस बात की बानगी यह है कि प्रगतिशील आंदोलन और सामाजिक कार्यों में अपनी मशरूफियतों के चलते, आगे चलकर रशीद जहां ने न सिर्फ अपनी डॉक्टरी की नौकरी से इस्तीफा दे दिया, बल्कि महमूदुज्जफर के साथ शादी इस शर्त पर की, कि वे बच्चे पैदा नहीं करेंगे। क्योंकि इससे उनके सामाजिक कामों में रुकावट आ सकती है। इंसानियत की खिदमत के लिए ऐसा मजबूत इरादा, प्रतिबद्धता की दूसरी मिसाल शायद ही कहीं मिले। इंसानियत की खिदमत रशीद जहां कभी अपने समाजी, सियासी कामों से करतीं, तो कभी अपने लेखन से।  

25 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में पैदा हुई डॉ. रशीद जहां को तरक्कीपसंदी, रौशनख्याली और व्यक्तिगत आजादी विरासत में मिली थी। उनके पिता शेख अब्दुल्ला औरतों की तालीम के बड़े हामी थे। अलीगढ़ कॉलेज में औरतों का महकमा और उन्हें दाखिला दिलाने के लिए किए गए उनके अजीम कामों को भला कौन भूल सकता है। औरतों में बेदारी लाने के लिए वे एक पत्रिका ‘खातून’ भी निकालते थे। रशीद जहां की मां वहीद जहां बेगम, जो आला बी के नाम से मशहूर थीं, वे भी अपने खाविंद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम करती थीं।

शेख अब्दुल्ला ने लड़कियों की तालीम के वास्ते जब अलीगढ़ में मदरसा खोला, तो आला बी ने उनका भरपूर साथ दिया। ऐसे रौशनख्याल माहौल में रशीद जहां की तर्बीयत हुई। जिसका असर उनकी जिंदगी पर ताउम्र रहा। उन्होंने तालीम की अहमियत समझी और इस तालीम को आगे तक बढ़ाया। रशीद जहां ने इस बारे में खुद लिखा है, ‘‘हमने तो जब से होश संभाला, हमारा तो तालीमे-निस्वां का ओढ़ना है और तालीमे-निस्वां का बिछौना।’’

रशीद जहां ने तालीम के साथ-साथ महज चौदह साल की उम्र से ही मुल्क की आजादी के लिए चल रही तहरीकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी। शुरुआत में गांधी जी के ख्याल से मुतास्सिर हुईं और बाकायदा खादी भी पहनीं, लेकिन बाद में इस नतीजे पर पहुंची कि मार्क्सवादी विचारधारा ही मुल्क के लिए मुफीद है। मुल्क की आजादी के लिए उस वक्त कई धाराएं एक साथ काम कर रही थीं। यहां तक कि कांग्रेस में भी एक ऐसा धड़ा था, जो समाजवाद में यकीन रखता था। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस धड़े की नुमाइंदगी करते थे। बहरहाल इन सियासी सरगर्मियों के बीच रशीद जहां की तालीम चलती रही, इसमें कहीं कोई खलल पैदा नहीं हुआ।

लखनऊ में ‘इजबेला थाबर्न कॉलेज’ में पढ़ाई के दौरान साइंस की किताबों के अलावा उन्होंने हर सब्जेक्ट की किताबें पढ़ीं। खास तौर से अदब की किताबें उन्हें खूब अपनी ओर आकर्षित करतीं थीं। किताबें पढ़ते-पढ़ते वे लिखने भी लगीं। साल 1923 में जब वे सिर्फ अठारह साल की थीं, उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘सलमा’ लिखी। यह कहानी अंग्रेजी जुबान में थी, जो बाद में उर्दू में भी छपी। कहानी मुस्लिम औरतों के सवाल उठाती है। उसके परिवार और समाज में क्या हालात है, उसका सच सामने लेकर आती है।

कहानी में सिर्फ औरत के हालात पर तजकिरा नहीं है, बल्कि वह अपने हालात से बगावत भी करती है। कहानी की मुख्य किरदार ‘सलमा’ का थोपी गई शादी से इंकार करना, पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ जाना है। साल 1924 से लेकर साल 1929 तक ‘लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज’, दिल्ली में रशीद जहां ने संजीदगी से अपना एम.बी.बी.एस. पूरा किया। इस दरमियान दीगर गतिविधियों से वे बिल्कुल कटी रहीं। लेकिन जैसे ही उनकी पढ़ाई पूरी हुई, वे फिर अदब और सियासत की ओर वापिस लौटीं।

रशीद जहां की जिंदगी में एक नया बदलाव, मोड़ तब आया, जब उनकी मुलाकात सज्जाद जहीर, महमूदुज्जफर और अहमद अली से हुई। उन दिनों सज्जाद जहीर लंदन में आला तालीम ले रहे थे। छुट्टियों में लखनऊ आए हुए थे। रशीद जहां भी उस वक्त यहां एक अस्पताल में नौकरी कर रही थीं। पहली ही मुलाकात में वे सज्जाद जहीर के तरक्कीपसंद ख्यालों से बेहद मुतास्सिर हुईं और उनके साथ जुड़ गईं। सज्जाद जहीर के दिल में महमूदुज्जफर और रशीद जहां के लिए एक खास स्थान था। वे उनके विचारों की बहुत कद्र करते थे। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के दरमियान इन लोगों के बीच जो लंबे-लंबे बहस-मुबाहिसे हुए, उसने रशीद जहां को एक नया नजरिया प्रदान किया।

कहानी संग्रह ‘अंगारे’ का जब प्रारूप बना, तो रशीद जहां ने भी इस में अपनी एक कहानी ‘दिल्ली की सैर’ और एक एकांकी ‘पर्दे के पीछे’ शामिल करने की रजामंदी दे दी। साल 1932 में किताब जब छपकर बाजार में आई, तो हंगामा मच गया। ‘अंगारे’ ने हिंदोस्तानी समाज में बवाल मचा दिया। बवाल भी ऐसा-वैसा नहीं, हाजरा बेगम ने उस दौर की कैफियत कुछ यूं बयां की है, ‘‘अंगारे शाए करते समय खुद सज्जाद जहीर को अंदाजा नहीं था कि यह एक नई अदबी राह का संगे मील बन जायेगा। वह खुद तो लन्दन चले गये, लेकिन यहां तहलका मच गया। पढ़ने वालों की मुखालफत इस कदर बढ़ी कि मस्जिदों में रशीद जहां-अंगारे वाली के खिलाफ वाज होने लगे, फतवे दिये जाने लगे और ‘अंगारे’ जब्त हो गई।

उस वक्त तो वाकई ‘अंगारे’ ने आग सुलगा दी थी।’’ जाहिर है कि ‘अंगारे’ का सबसे ज्यादा असर रशीद जहां पर पड़ा। उनके खिलाफ फतवे आये और उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिलीं। लेकिन इन फतवों और धमकियों से वे बिल्कुल भी नहीं डरीं-घबराई बल्कि इन प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ वे डटकर खड़ी हो गईं। इन हादसों से उनका तरक्कीपसंद ख्याल में यकीन और भी ज्यादा मजबूत हो गया।

एक तरफ किताब ‘अंगारे’ और उसके लेखकों की मुखालफत हो रही थी, किताब को संयुक्त प्रांत की हुकूमत ने जब्त कर लिया था, तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग थे, जो इस कदम का खुले दिल से खैरमकदम कर रहे थे। बाबा-ए-उर्दू मौलाना अब्दुल हक, मुंशी दयानारायण निगम भी उनमें से एक थे। रशीद जहां जिधर भी जातीं, उन्हें लोग ‘अंगारे’ वाली लेखिका के तौर पर पुकारते और सराहते। मुंशी दयानारायण निगम ने अपने अखबार ‘जमाना’ में अंगारे की तारीफ करते हुए लिखा,‘‘चार नौजवान मुसन्निफों ने, जिनमें एक लेडी डॉक्टर भी हैं, अंगारे नाम से अपने दस किस्सों को किताबी सूरत में शाए किया।

इनमें मौजूदा जमाने की रियाकारियों पर रौशनी डालने, मुरव्विजा रस्म व रिवाज की अन्दरूनी खराबियों को बेनकाब करने की कोशिश की गई थी। हमारे नाम-निहाद आला तबके की रोजमर्रा मआशत के नकायस का मजहका उड़ाया गया था। गो इस मज्मूए का तर्जे बयान अक्सर मकामात पर सूकयाना था, जो मजाके-सलीम को खटकता था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि नौजवाने-आलम ने दुनिया में जो अलमे-बगावत बलन्द कर रखा है, उसी का एक अदना करिश्मा इस किताब की इशाअत है।’’ बहरहाल एक अकेली किताब अंगारे ने उर्दू अदब की पूरी धारा बदल कर रख दी। कल तक जिन मामलों पर अफसानानिगार अपनी कलम नहीं चलाते थे, उन मामलों पर कहानियां खुलकर लिखी जाने लगीं। वर्जित क्षेत्रों में भी कहानी का प्रवेश हुआ।

‘अंगारे’ में शामिल रशीद जहां की कहानी ‘दिल्ली की सैर’ की यदि बात करें, तो यह छोटी सी कहानी है। इस कहानी का मुख्य किरदार ‘मलिका’ अपने शौहर के साथ दिल्ली की सैर पर न जाने का एलान कर, जैसे एक बगावत करता है। कहने को कहानी में यह एक छोटा सा इशारा है, लेकिन उस समय के हालात में यह छोटा इशारा, भी बड़ी बात थी। ‘पर्दे के पीछे’ एकांकी में रशीद जहां, पितृसत्तात्मक सोच के प्रति और भी ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं। मुस्लिम समाज में औरत की स्थिति पर वे खुलकर लिखती हैं। लिखने का उनका ये अंदाज पितृसत्तात्मक समाज को लगभग ललकारने जैसा है।

एकांकी के दो महिला किरदारों ‘मोहम्मदी बेगम’ और ‘आफताब बेगम’ के आपसी संवादों, के जरिए उन्होंने जो लिखा, वह अच्छों-अच्छों के होश उड़ा देने वाला था,‘‘हर साल हमल, हर साल बच्चा, जोड़ों में दर्द, सूखी छाती, शरीर में थकावट और घर में दिन-रात बीमार बच्चों का कोहराम। लेकिन शौहर को उसका कच्चा गोश्त हर समय चाहिए। नहीं तो वह दूसरी शादी कर लेगा। बच्चा जनते-जनते जिस्म बाहर झुक गया है और डॉक्टरी कराई गई है कि मियां को नई बीबी का लुत्फ मिल सके।’’ एकांकी के इस अंश को पढ़कर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने उस दौर में क्या हिम्मत की थी। मर्द जात जो औरतों को सिर्फ अय्याशी का एक सामान समझती थी, उसके खिलाफ यह एक बगावत थी।  

कई साहित्य आलोचक मानते हैं कि ‘अंगारे’ ही वह किताब थी, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ का आधार तैयार किया। अंग्रेज हुकूमत द्वारा किताब पर पाबंदी लगाए जाने के बाद भी इसके चारों लेखक न तो झुके और न ही इसके लिए उन्होंने सरकार से कोई माफी मांगी। उलटे इन चारों लेखकों ने अपनी ओर से एक संयुक्त प्रेस वक्तव्य जारी किया, जो उस वक्त इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ में प्रकाशित हुआ। वक्तव्य का मजमून इस तरह से था, ‘‘इस किताब के लेखक इस संबंध में किसी प्रकार की क्षमायाचना के इच्छुक नहीं हैं। वे इसे वक्त के सिपुर्द करते हैं।

वे किताब के प्रकाशन के परिणामों से बिल्कुल भयभीत नहीं हैं और इसके प्रसार तथा इसी तरह की दूसरी कोशिशों के प्रसार का समर्थन करते हैं। वो कुल रूप में समूची मानवता और विशेष रूप से भारतीय अवाम के लिए महत्वपूर्ण उद्देश्यों के सिलसिले में, आलोचना की आजादी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का खुला समर्थन करते हैं।……..किताब का या उसके लेखकों का जो भी हश्र हो, हमें यकीन है कि दूसरे लिखने वाले हिम्मत न हारेंगे। हमारा व्यवहारिक प्रस्ताव यह है कि फौरी तौर पर ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स लीग’ का गठन किया जाए। जो समय-समय पर इस तरह की रचनाएं अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में प्रकाशित करे। हम उन तमाम लोगों से जो हमारे विचार से सहमत हों, अपील करते हैं कि वह हमसे राब्ता कायम करें और अहमद अली से खतो किताबत करें…..।’’

डॉक्टरी, रशीद जहां का पेशा था और अपने इस पेशे में वे काफी मशरूफ रहती थीं। तिस पर सियासी और प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा के काम अलग। लेकिन अपनी तमाम मसरूफियत के बाद भी वे कहानियां, एकांकी, लेख और नाटक लिखती रहीं। साल 1937 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘औरत’ प्रकाशित हुआ। रशीद जहां की शुरुआती कहानियां यदि देखें, तो उनमें जरूर एक कच्चापन नजर आता है, कहीं-कहीं इन कहानियों में कोरी भावुकता और नारेबाजी दिखलाई देती है, लेकिन जैसे-जैसे जिंदगी में नए तजर्बे हासिल होते हैं, विचारों में स्थायित्व आता है, उनकी कहानी संवरने लगती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से इनमें सुधार आता है।

बाद में उन्होंने ‘चोर’, ‘वह’, ‘आसिफजहां की बहू’, ‘इस्तखारा’, ‘छिद्दा की मां’, ‘इफतारी’, ‘मुजरिम कौन’, ‘मर्द-औरत’, ‘सिफर’, ‘गरीबों का भगवान’, ‘वह जल गई’,  जैसी उम्दा कहानियां लिखीं। रशीद जहां के अफसानों में एक भाव स्थायी है, वह है बगावत। बगावत-सड़ी-गली रूढ़ियों से, औरत-मर्द के बीच गैर बराबरी से, सामंती जीवन मूल्यों से, अंग्रेज हुकूमत के अत्याचार और शोषण से। रशीद जहां के अफसाने हों या फिर नाटक इन दोनों के महिला किरदार काफी मुखर हैं। नाटक ‘औरत’ की नायिका अपने मौलवी शौहर से तेवर के साथ कहती है,‘‘जरा संभल कर मैं कहती हूं, बैठ जाओ, अगर अपनी इज्जत की खैर चाहते हो। अगर इस बार तुमने हाथ उठाया, तो मैं जिम्मेदार नहीं।’’  

रशीद जहां की ज्यादातर कहानियों और नाटक में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ गुस्सा, और इस निजाम को बदल देने की स्पष्ट जद्दोजहद दिखलाई देती है। आजादी के बाद मुल्क में किस तरह की सरकार बने, इसकी भी एक तस्वीर उनके अफसानों में नजर आती है। हालांकि उन्होंने कम ही कहानियां लिखीं, लेकिन इन कहानियों में भी विषय, किरदार, शिल्प और कहानी कहन के दिलफरेब नमूने देखने को मिलते हैं।

रशीद जहां का बेश्तर लेखन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और साम्यवादी नजरिये से अलग नहीं है। साम्यवाद के गहन अध्ययन और प्रगतिशील आंदोलन से बाबस्ता रहने की वजह से प्रगतिशीलता न सिर्फ उनके व्यवहार में आती चली गई, बल्कि रचनाएं भी इससे अछूती नहीं रहीं। वर्ग चेतना और शोषितों, उत्पीड़ितों के प्रति पक्षधरता उनकी कहानियों का अहम हिस्सा है। कहानी ‘इफतारी’ में नसीमा और उसके मासूम बच्चे असलम की यह मुख्तसर सी बातचीत इसी बात की ओर साफ इशारा करती है,

‘‘मां, दोजख क्या होती है ?’’

‘‘दोजख ! दोजख, वह तुम्हारे सामने ही तो है।’’

‘‘कहां ?’’

‘‘वह नीचे, जहां अंधा फकीर खड़ा है। जहां वह जुलाहे रहते हैं और जहां वह अंग्रेज रहता है और लोहार भी।’’ कुछ इसी तरह से नाटक ‘कांटे वाला’ का यह डायलॉग है, ‘सांस लेना बगावत है, तो मैं पूछता हूं, फिर मौत क्या है ? यह सब भूख को दबाने के बहाने हैं। लेकिन भूख दबती नहीं। गला दबाने से चीख बंद नहीं हो जाती, बल्कि और दुगुनी हो जाती है। भूखे की चीख, मरते हुए की चीख, जिंदा आदमियों से ज्यादा भयानक है।’’ रशीद जहां ने समाज के उपेक्षित तबकों के लोगों पर भी अपनी कलम चलाई। उन्हें अपनी कहानी का मुख्य किरदार बनाया। मसलन उनकी कहानी ‘सौदा’ और ‘वह’ जिस्मफरोशी के धंधे में शामिल औरतों की गलीज जिंदगी पर केन्द्रित है।

रशीद जहां ने जितना भी लिखा, उसमें बिल आखिर एक मकसद है। हालात से लड़ने की जद्दोजहद है और उसे बदल देने की बला की जिद है। ‘सिफर’, ‘चोर’, ‘वह’ वगैरह कहानियों के केन्द्रीय किरदार कहीं न कहीं रशीद जहां के ही ख्यालों को आगे बढ़ाते हैं। ये किरदार कुछ इस तरह से गढ़े गए हैं कि वे कभी भुलाए नहीं भूलेंगे। उर्दू के एक बड़े आलोचक कमर रईस का रशीद जहां के अफसानों पर ख्याल है,‘‘तरक्कीपसंद अदीबों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहां तन्हा थीं, जिन्होंने उर्दू अफसानों में समाजी और इंकलाबी हकीकत निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की।’’

गुलाम हिन्दुस्तान में वाकई यह एक बड़ा काम था। यह वह दौर था, जब अदब और पत्रकारिता दोनों को अंग्रेज हुकूमत की सख्त पहरेदारी से गुजरना पड़ता था। हर तरह की रचनाओं और खबरों पर निगरानी रहती थी। एक तरफ अदीबों और पत्रकारों पर अंग्रेज हुकूमत की पाबंदियां थीं, तो दूसरी ओर मुल्क की सामंती और प्रतिक्रियावादी शक्तियां भी हर प्रगतिशील विचार का विरोध करती थीं। औरतों के लिए हिन्दोस्तानी समाज में आजादियां हासिल नहीं थी। उन पर कई तरह का पहरा था। औरतों को परिवार और समाज में बराबरी का दर्जा देना तो दूर, उनकी तालीम भी जरूरी नहीं समझी जाती थी।

ऐसे निराशाजनक माहौल में डॉ. रशीद जहां का पहले आला तालीम हासिल करना, फिर डॉक्टर बनना और उसके बाद सियासी, समाजी कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना वाकई एक क्रांतिकारी कदम था। जिसका हिन्दोस्तानी औरतों पर काफी असर पड़ा। हाजरा बेगम लिखती हैं, ‘‘रशीद जहां का कारनामा यह है कि उन्होंने अपनी चन्द कहानियों से अपने बाद लिखने वाली बीसियों लड़कियों और औरतों के दिमागों को मुतास्सिर किया। इस्मत चुगताई, रजिया सज्जाद जहीर, सिद्दीका बेगम और न जाने कितनी मुसन्निफा थीं, जिन्होंने रशीद जहां के अफसानों, रशीद जहां की जिन्दगी और मशहूरकुन शख्सियत को मशाले-राह समझा और अपनी तहरीर से उर्दू अदब को नई बुलन्दियों पर पहुंचाया।’’

उर्दू की एक और बड़ी अफसानानिगार इस्मत चुगताई खुद अपने ऊपर रशीद जहां का असर कबूल करते हुए, अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में लिखती हैं,‘‘गौर से अपनी कहानियों के बारे में सोचती हूं, तो मालूम होता है कि मैंने सिर्फ उनकी (रशीद जहां) बेबाकी और साफगोई को गिरफ्त में लिया है। उनकी भरपूर समाजी शख्सियत मेरे काबू न आई। मुझे रोती-बिसूरती, हराम के बच्चे जनती, मातम करती हुई निस्वानियत से हमेशा नफरत थी। खामख्वाह की वफा और जुमला खूबियां जो मशरिकी औरतों का जेवर समझी जाती थीं, मुझे लानत महसूस होती है। जज्बातियत से मुझे हमेशा कोफ्त रही है।

इश्क में महबूब की जान को लागू हो जाना, खुदकुशी करना और बावेला करना मेरे मजहब में जायज नहीं। यह सब मैंने रशीदा आपा से सीखा है। और मुझे यकीन है कि रशीदा आपा जैसी लड़कियां, सौ लड़कियों पर भारी पड़ सकती हैं।’’ चुगताई की यह बात सही भी है। डॉ. रशीद जहां की बेमिसाल शख्सियत का औरतों पर ही नहीं, बल्कि कई बड़े रचनाकारों पर भी गहऱा असर पड़ा। प्रेमचंद और यशपाल जैसे बड़े लेखक उनके मुरीद थे। हिन्दी, उर्दू साहित्य के कई प्रतिष्ठित आलोचकों का तो यहां तक मानना है कि प्रेमचंद के मशहूर उपन्यास ‘गोदान’ में ‘मालती’ और यशपाल के ‘दादा कामरेड’ में ‘शैल’ का किरदार रशीद जहां की शख्सियत से मेल खाता है। अपने जीते जी ये ऊंची शोहरत और मुकाम हासिल कर लेना, सचमुच एक बड़ा काम था।  

उर्दू अदब में आज हमें जो स्त्री यथार्थ दिखलाई देता है, उसमें रशीद जहां का बड़ा योगदान और कुर्बानी शामिल है। डॉ. मुल्कराज आनंद से लेकर डॉ. कमर रईस तक इसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे। प्रोफेसर नूरुल हसन ने रशीद जहां को पहली ऐसी मुस्लिम लेखिका कहा है,‘‘जिन्होंने पहली बार औरत और मजहब के सवाल पर बिना किसी झिझक के अपने ख्याल बयां किए।’’ सच बात तो यह है कि रशीद जहां ने अपने अफसानों में सिर्फ औरत के हालात का ही तजकिरा नहीं किया, बल्कि वह सामंती और मजहबी बेड़ियों से कैसे आजाद हो ?, उसकी पुरजोर पैरवी की। रूढ़ियों, धार्मिक कर्मकांडों पर जमकर प्रहार किए।

औरतों के लिए समाज में लैंगिक न्याय और समानता की वकालत की। उसके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। रशीद जहां ने कई नाटक और एकांकियां भी लिखीं। उनका पहला नाटक ‘लालरूख’, एक अंग्रेजी नाटक का उर्दू रुपान्तरण था। उन्होंने यह तब लिखा, जब वह दिल्ली में मेडिकल तालीम ले रहीं थीं। नाटक लिखने के साथ-साथ उन्होंने इसका मंचन भी किया। जो खूब पसंद किया गया। उसके बाद उन्होंने नाटक ‘पर्दे के पीछे’ लिखा, जिसने पूरे मुल्क में हंगामा मचा दिया। इस नाटक के कई मंचन हुए। बम्बई और आगरा इप्टा की इकाईयों ने भी इसके मंचन किए। ‘औरत’, रशीद जहां का दूसरा चर्चित नाटक है।

यह नाटक भी स्त्री प्रधान है। इस नाटक में उन्होंने औरत के जज्बात की बेबाक अभिव्यक्ति की है। उस जमाने में जब औरत, मर्द की सिर्फ बांदी समझी जाती थी, घर-परिवार और समाज में उसके कोई अधिकार, उसकी इज्जत नहीं थी, ऐसे माहौल में रशीद जहां ने अपने नाटकों के जरिए औरतों के ऐसे किरदार दिए, जो अपने मुंह में जुबान रखते हैं। औरत जात के साथ होने वाले हर नाइंसाफी और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते हैं। रशीद जहां अपने आस-पास जो देखती-महसूसती थीं, उसे ही अपने नाटकों में ढाल लेती थीं। यही वजह है कि उनके नाटकों में जीवन का यथार्थ और विश्वसनीयता नजर आती है। रशीद जहां ने अपने नाटकों में सिर्फ औरतों के ही सवाल नहीं उठाए, बल्कि सियासी मसलों पर भी बात की।

अपने नाटकों से एकता और भाईचारे का पैगाम दिया। कारखानों में काम करने वाले कामगारों के शोषण को समाज के सामने लाईं। उनका नाटक ‘कांटे वाला’ रेल कामगारों की दयनीय जिंदगी पर केन्द्रित है। ‘कांटेवाला’ नाटक का मुख्य किरदार ‘दुली’ नाटक के आखिर में रेलगाड़ी को झंडी न दिखाकर और कांटा न बदल कर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है। ‘पड़ोसी’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘गोशए आफिसयत’, ‘नई पौद’, ‘जोड़-तोड़’, ‘बच्चों का खून’, ‘नफरत’ आदि रशीद जहां के दीगर नाटक और एकांकी हैं। इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिए छोटे-छोटे नाटक, एकांकी लिखीं। रेडियो पर उनके नाटकों का प्रसारण हुआ।

रशीद जहां ने कहानी, एकांकी और नाटक लिखने के अलावा पत्रकारिता भी की। प्रगतिशील लेखक संघ के अंग्रेजी मुख्य पत्र ‘द इंडियन लिटरेचर’ और सियासी मासिक मैगजीन ‘चिंगारी’ के संपादन में उन्होंने न सिर्फ सहयोग किया, बल्कि इसमें रचनात्मक अवदान भी दिया। रशीद जहां ने अपने ज्यादातर लेख ‘चिंगारी’ के लिए ही लिखे। जिनमें ‘अदब और अवाम’, ‘उर्दू अदब में’, ‘इंकलाब की जरूरत’, ‘प्रेमचंद’, ‘मुंशी प्रेमचंद से हमारी मुलाकात’, ‘औरत घर से बाहर’, ‘चन्द्र सिंह गढ़वाली’ और ‘हमारी आजादी’ आदि प्रमुख हैं। इन लेखों को पढ़कर जाना जा सकता है कि उनका क्या मानसिक धरातल था।

दीगर तरक्कीपसंद अदीबों की तरह रशीद जहां का संघर्ष मुल्क की आजादी तक ही सीमित नहीं रहा, आजादी के बाद अलग तरह के सवाल थे और इन सवालों से भी उन्होंने जमकर मुठभेड़ की। वास्तविक स्वराज्य पाने के लिए सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन किए। किसानों, मजदूरों और कामगारों के अधिकारों के लिए सरकार से जद्दोजहद की। साल 1948 में रेलवे यूनियन की एक ऐसी ही हड़ताल में शिरकत लेने की वजह से रशीद जहां गिरफ्तार हुईं। वे कैंसर की मरीज थीं, बावजूद इसके उन्होंने जेल में 16 दिन की लंबी भूख हड़ताल की। ऐसे में उनका मर्ज और भी ज्यादा गंभीर हो गया, पर उन्होंने हार नहीं मानी। जिस्म जरूर कमजोर हो गया, लेकिन जेहन मजबूत बना रहा।

आगे भी रशीद जहां की इस तरह की सक्रियता बराबर बनी रही। जहां कही भी नाइंसाफी या जुल्म होता, वह उसका विरोध करतीं। अपनी सेहत से बेपरवाह होकर उन्होंने लगातार काम किया। जिसका नतीजा यह निकला कि उनकी बीमारी और भी बढ़ गई। इस बार उन्हें इलाज के लिए सोवियत संघ भेजा गया। लेकिन इस घातक रोग से एक बार जो उनकी सेहत बिगड़ी, तो फिर दोबारा ठीक नहीं हुई। 29 जुलाई, 1952 को बीमारी से जूझते हुए मास्को में उनका इंतकाल हो गया। रशीद जहां, इस जहां से भले ही रुखसत हो गईं हों, लेकिन उनका अदब हमेशा जिंदा रहेगा और हमें याद दिलाता रहेगा कि वे किस तरह का समाजी-सियासी जहां चाहती थीं। एक ऐसा जहां जो बराबरी, समानता और न्याय पर आधारित हो। जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, वर्ण, लिंग, भाषा, रंग, नस्ल के आधार पर इंसान-इंसान के बीच कोई भेद न हो।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)  

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