Friday, March 29, 2024

जन्मदिवसः गरीबों-मजदूरों को अंधेरे में संघर्ष की राह दिखाते हैं शैलेंद्र के गीत

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने देश को कई शानदार कलाकार, गीतकार और निर्देशक दिए। शैलेंद्र भी ऐसे ही एक गीतकार हैं, जिनकी पैदाइश इप्टा से हुई। इप्टा ने उन्हें नाम-शोहरत दी और इसके जरिए ही वे फिल्मी दुनिया तक पहुंचे। इप्टा का थीम गीत ‘‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर…’’ शैलेंद्र का ही लिखा हुआ है। शैलेंद्र की कविताओं में सामाजिक यथार्थ के दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। गीतों में तो फिर उनका कोई सानी नहीं था। गीतों में उनकी पक्षधरता स्पष्ट दिखलाई देती है और यह पक्षधरता है दलित, शोषित, पीड़ित, वंचितों के प्रति।

एक वक्त जीवनयापन के लिए उन्होंने खुद रेलवे में एक छोटी-मोटी नौकरी की थी। लिहाजा वे मजदूरों-कामगारों के दुःख-दर्द को करीब से जानते थे। इन सब बातों का शैलेंद्र के कवि मन पर क्या असर हुआ, यह खुद उनकी जुबानी, ‘‘मशीनों के तानपूरे पर गीत गाते हुए भी सामाजिक विषमता पर नजर जाए बिना न रह सकी। तनख्वाह के दिन (नौ या दस तारीख को) कारखाने के दरवाजे पर जहां मिठाई और कपड़े की दुकानों का मेला लगता था, वहां पठान और महाजन अपना सूद ऐंठ लेने के लिए खड़े रहते थे। आदमी निकला और गर्दन पकड़ी।

देश के बहुत से लोग उधार और मदद पर ही जिंदगी गुजार रहे हैं। गरीबी मेरे देश के नाम के साथ जोंक की तरह चिपटी है। नतीजा, हम सब एक हो गए-कवि, मैं और मेरे गीत और विद्रोह के स्वर गूंजने लगे। पचास-पचास हजार की भीड़ के बीच। सभाओं और जुलूसों में गाए हुए इस काल के गीत, ‘नया साहित्य’ और ‘हंस’ में छपी इस काल की कविताएं अति उग्रवादी अवश्य थीं, लेकिन इनके माध्यम से जनजीवन और रुचि को समझने का अवसर मिला। जनजीवन के पास रहने की आदत पड़ी, जो कालांतर में फिल्मी गीतकार की हैसियत से बहुत काम आई।’’ (‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ धर्मयुग में प्रकाशित शंकर शैलेंद्र का आत्म परिचय।)

नौकरी और मजदूर आंदोलन के बीच शैलेंद्र ने अध्ययन से कभी नाता नहीं तोड़ा। उन्होंने देशी और विदेशी भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का लगातार अध्ययन किया। संस्कृत, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, पंजाबी, रूसी आदि चौदह भाषाएं सीखीं और उनके साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। खास तौर से वे मार्क्सवादी विचारकों और रूसी साहित्य से बेहद प्रभावित थे। इस साहित्य के अध्ययन से उनमें एक दृष्टि पैदा हुई, जो उनके गीतों में साफ नजर आती है। सर्वहारा वर्ग का दुःख, उनका अपना दुःख हो गया।

इस दरमियान उन्होंने जो भी गीत लिखे, वे नारे बन गए। शैलेंद्र के एक नहीं, कई ऐसे गीत हैं जो जन आंदोलनों में नारे की तरह इस्तेमाल होते हैं। मसलन ‘‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है…’, ‘‘क्रांति के लिए उठे कदम, क्रांति के लिए जली मशाल!’’, ‘‘झूठे सपनों के छल से निकल, चलती सड़कों पर आ!’’ इसमें भी ‘‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’’ मजदूर आंदोलनों का लोकप्रिय गीत है। गीत की घन-गरज ही, कुछ ऐसी है। यदि यकीन न हो, तो इस गीत के बोल पर नजर डालिए,
हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
तुमने मांगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीना हमसे अनाज सस्ता, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
यह बनियों चोर लुटेरों को क्या सरकारी कंसेशन है?
बगलें मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है
हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
(‘हर जोर जुल्म की टक्कर में’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

‘न्यौता और चुनौती’ शैलेंद्र का एक अकेला कविता संग्रह है, जिसमें उनकी 32 कविताएं और जनगीत संकलित हैं। यह संकलन मराठी के प्रसिद्ध लोक गायक, जनकवि अन्नाभाऊ साठे को समर्पित है। संग्रह की ज्यादातर कविताएं और गीत जन आंदोलनों के प्रभाव में लिखी गई हैं। इन गीतों में कोई बड़ा विषय और मुद्दा जरूर मिलेगा।

शैलेंद्र की कविता और गीतों की यदि हम सम्यक विवेचना करें, तो उन्हें दो हिस्सों में बांटना होगा। पहला हिस्सा, परतंत्र भारत का है, जहां वे अपने गीतों से देशवासियों में क्रांति की अलख जगा रहे हैं। उन्हें अहसास दिला रहे हैं कि उनकी दुर्दशा के पीछे कौन जिम्मेदार है? अपने ऐसे ही एक गीत ‘इतिहास’ में वे पहले तो साम्राज्यवादी अंग्रेजी हुकूमत में मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के बारे में लिखते हैं,
खेतों में खलिहानों में
मिल और कारखानों में
चल-सागर की लहरों में
इस उपजाऊ धरती के
उत्तप्त गर्भ के अंदर
कीड़ों से रंगा करते
वे खून पसीना करते!

और उसके बाद उन्हें आगाह करते हैं,
निर्धन के लाल लहू से
लिखा कठोर घटना-क्रम
यों ही आए जाएगा
जब तक पीड़ित धरती से
पूंजीवादी शासन का
नत निर्बल के शोषण का
यह दाग न धुल जाएगा
तब तक ऐसा घटनाक्रम
यों ही आए-जाएगा
यों ही आए-जाएगा!

इस पहले हिस्से में शैलेंद्र की कुछ भावुक कविताएं ‘जिस ओर करो संकेत मात्र’, ‘उस दिन’, ‘निंदिया’, ‘यदि मैं कहूं’, ‘क्यों प्यार किया’, ‘नादान प्रेमिका’, ‘आज’, ‘भूत’ आदि भी शामिल हैं। यह साधारण प्रेम कविताएं हैं, जो इस उम्र में हर एक लिखता है। इन कविताओं और गीतों के लिखते समय शैलेंद्र की उम्र महज 23-24 साल थी। जैसे-जैसे शैलेंद्र वैचारिक तौर पर परिपक्व होते हैं, उनके गीतों की भावभूमि बदलती है। गीतों में एक नजरिया आता है, उनका लहजा आक्रामक होता चला जाता है।

आखिर वह दिन भी आया, जब देश आजाद हुआ। करोड़ों-करोड़ लोगों के साथ इस आजादी का शैलेंद्र ने भी स्वागत किया,
जय जय भारतवर्ष प्रणाम
युग युग के आदर्श प्रणाम!
शत शत बंधन टूटे आज
बैरी के प्रभु रूठे आज
अंधकार है भाग रहा
जाग रहा है तरूण विहान!

(‘पंद्रह अगस्त’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

आजादी के बाद, देश की नई सरकार से कई उम्मीदें थीं। देश वासियों को लगता था कि अपनी सरकार आने के बाद उनके दुःख-दर्द दूर हो जाएंगे। समाज में जो ऊंच-नीच और भेदभाव है, वह खत्म हो जाएगा। अब कोई भूखा, बेरोजगार नहीं रहेगा। सभी के हाथों को काम मिलेगा, लेकिन ये उम्मीदें, सपने जल्दी ही चकनाचूर हो गए। शैलेंद्र जो खुद कामगार और सामाजिक विषमता के भुक्तभोगी थे, उनका दिल यह देखकर तड़प उठा। उनके गीत जो कल तक अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ आग उगलते थे, अब उनके निशाने पर देशी हुक्मरान आ गए।

शैलेंद्र जब अपने गीतों से लोगों को संबोधित करते हैं, तो उनकी नजर में हुक्मरान, हुक्मरान है। फिर वह विदेशी हो या देशी। अपने गीतों में इन हुक्मरानों को वे जरा सा भी नहीं बख्शते हैं।
आजादी की चाल दुरंगी
घर-घर अन्न-वस्त्र की तंगी
तरस दूध को बच्चे सोए
निर्धन की औरत अधनंगी
बढ़ती गई गरीबी दिन दिन
बेकारी ने मुंह फैलाया!

शैलेंद्र अपने इसी गीत में हुक्मरानों के वर्ग चरित्र और मक्कारी को बयां करते हुए लिखते हैं,
संघ खुला, खद्दर जी बोले
आओ तिनरंगे के नीचे!
रोटी ऊपर से बरसेगी
करो कीर्तन आंखें मीचे!
तुमको भूख नहीं है भाई
कम्यूनिस्टों ने है भड़काया!

(‘पंद्रह अगस्त के बाद’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेंद्र अपने इन गीतों में देशी सरकार की पूंजीवादी नीतियों का ही विरोध नहीं करते, बल्कि अंत में वे जनता को एक विकल्प भी सुझाते हैं। उन्हें यकीन है कि मजदूर और किसान यदि एक हो जाए, तो देश में पूंजीवादी निजाम बदलते देर नहीं लगेगी। देश में समाजवाद आ जाएगा। लिहाजा वे उन्हीं का आहृन करते हुए लिखते हैं,
उनका कहना है: यह कैसे आजादी है
वही ढाक के तीन पात हैं
, बरबादी है
तुम किसान-मजदूरों पर गोली चलवाओ
और पहन लो खद्दर
, देशभक्त कहलाओ!
तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो
तिस पर आजादी की सौ-सौ बातें छांटो!
हमें न छल पाएगी यह कोरी आजादी
उठ री
, उठ, मजदूर किसानों की आबादी!
(‘नेताओं को न्यौता !’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

वामपंथी विचारधारा से जुड़े तमाम बुद्धिजीवियों की तरह शैलेंद्र का भी मानना था कि देश को जो आजादी मिली है, वह अधूरी है। कहने को देश में सत्ता बदल गई है, लेकिन उसका वर्ग चरित्र वही है। सामंतों और पूंजीपतियों ने सत्ता का आहरण कर लिया है। जब तक किसान और मजदूर पूंजीवादी ढांचे से आजाद नहीं होंगे, तब तक देश सही मायने में आजाद नहीं होगा।

ढोल बजे एलान हुआ, आजादी आई
खून बहाए बिना लीडरों ने दिलवाई
खुश होकर अंगरेजों ने दी नेताओं को
सत्य अंहिसावादी वीर विजेताओं को!
वही नवाब, वही राजे, कुहराम वही है
पदवी बदल गई है, किंतु निजाम वही है
थका-पिसा मजदूर वही, दहकान वही है!
कहने को भारत, पर हिंदुस्तान वही है!
बोली बदल गई है, बात वही है सारी
हिज मैजेस्टी छठे जार्ज की लंबरदारी
कॉमनवैल्थ कुटुम्ब, वही चर्चिल की यारी
परदेशी का माल सुदेशी पहरेदारी!
आज खून से रंगी ध्वजा सबसे आगे है
क्रांति शांति की लाल ध्वजा सबसे आगे है
अपनी किस्मत का नूतन निर्माण चला है
क्रूर मौत से भीषण रंण संग्राम चला है!
अंदर की आग एक दिन भड़केगी ही
नयी गुलामी की बेड़ी भी तड़केगी ही!

(‘अंदर की यह आग’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

26 जनवरी, 1950 देश में नया संविधान बना और इस संविधान से सभी को समान अधिकार मिले, लेकिन यह संविधान भी देश के सभी नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण नहीं कर पाया। रोजी, रोटी और मकान जैसे बुनियादी अधिकारों को पाने के लिए जनता को सड़कों पर आना पड़ा। जो सत्ता में बैठा, अपने संवैधानिक कर्तव्य भूल गया। दमन उसका हथियार बन गया। शैलेंद्र ने भारतीय लोकतंत्र की इन विसंगतियों का पर्दाफाश करते हुए लिखा,
मुझ जैसे ये लाखों हैं जो मांग रहे हैं
रोजी
, रोटी, कपड़ा, बोनस औ, महंगाई
मांग रहे हैं जीने का अधिकार स्वदेशी सरकारों से!
किंतु सुना है
, जीने का अधिकार मांगना अब गुनाह है गद्दारी है!
गद्दारी के लिए जेल
, गोलीबारी है!
(‘नई-नई शादी है….’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

हुक्मरान, सत्ता का किस तरह से गलत इस्तेमाल करते हैं, शैलेंद्र इन प्रवृतियों पर तंज करते हुए लिखते हैं,
भगत सिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की
देश भक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!
यदि जनता की बात करोगे
, तुम गद्दार कहलाओगे
बंब संब की छोड़ो
, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे!
निकला है कानून नया
, चुटकी बजते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो
, सीधे मुक्ति पाओगे
कांग्रेस का हुक्म
, जरूरत क्या वारंट तलाशी की!
(‘भगतसिंह से’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेंद्र ने यह गीत साल 1948 में लिखा था। इस गीत को लिखे 72 साल हो गए, लेकिन सत्ता का चरित्र नहीं बदला। सरकारें बदल गईं, चरित्र वही है। अंग्रेजों का बनाया देशद्रोह कानून आज भी सत्ताधारियों का प्रमुख हथियार बना हुआ है। जो कोई भी सरकारी नीतियों का विरोध करता है, उसे देशद्रोह कानून के अंतर्गत जेल में डाल दिया जाता है।

शैलेंद्र अपने गीतों में सिर्फ सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का विरोध ही नहीं करते, बल्कि अपने गीतों में इसका एक विकल्प भी देते हैं। उनका मानना है कि समाजवाद में ही किसानों, मजदूरों और आम आदमियों के अधिकार सुरक्षित होंगे। उन्हें वास्तविक इंसाफ मिलेगा। लिहाजा वे इकट्ठा होकर सरमायेदारी के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ें।

धनवानों की दीवाली की रात ढल गई
अब गरीब का दिन है, दिल का उजियाला है!
लोगों ने की सभा, फैसला कर डाला है
एक साथ हम सब रावण पर वार करेंगे
अपनी दुनिया का हम खुद उद्धार करेंगे!
अन्नपूर्णा लक्ष्मी को आजाद करेंगे
स्वर्ग इसी धरती पर हम आबाद करेंगे!

(‘दीवाली के बाद’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेंद्र की समाजवाद में गहन आस्था थी। सोवियत रूस और चीन की साम्यवादी क्रांति के बारे में उन्होंने काफी कुछ पढ़ा था और उन्हें लगता था कि भारत में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। देश का सर्वहारा वर्ग यदि एक हो जाए, तो परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी। यहां भी वास्तविक क्रांति हो जाएगी।

क्रांति के लिए उठे कदम
क्रांति के लिए जली मशाल!
भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात: के लिए
मेहनती गरीब जात के लिए
हम लड़ेंगे
, हमने ली कसम!
तय है जय मजूर की, किसान की
देश की
, जहान की, अवाम की
खून से रंगे हुए निशान की
लिख गई है मार्क्स की कसम!

(‘उठे कदम’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेंद्र अपने गीतों में पूंजीवाद के साथ-साथ साम्राज्यवाद का भी विरोध करते हैं। उनके मुताबिक साम्राज्यवादी देशों की पूंजीवादी और साम्राज्यवादी नीतियों से दुनिया में जंग का साया छाया हुआ है। अपने हितों को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक चले जाते हैं,
चर्चिल मांगे खून मजूर किसानों का
ट्रूमन मांगे ताजा खून जवानों का!

कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’ के अपने सभी गीतों में शैलेंद्र, देशवासियों को जहां नई चुनौतियों से अवगत कराते हैं, तो वहीं उन्हें न्यौता देते हैं, क्रांति के लिए। समाज और राजव्यवस्था में बदलाव के लिए। सामाजिक, आर्थिक क्रांति जो अभी तलक स्थगित है। शैलेंद्र के गीतों में गजब की लय और भाषा की रवानी है। इन गीतों में कहीं-कहीं ऐसा व्यंग्य है, जो उनके गीतों को धारदार बनाता है। शैलेंद्र अपने गीतों में घुमा फिराकर नहीं, सीधे-सीधे बात करते हैं। इस साफगोई से कहीं-कहीं उनकी भाषा और भी ज्यादा तल्ख हो जाती है। मसलन,
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मजदूरों का
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मजदूरों का
एक बार इन गंदी गलियों में भी आओ
घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहां भी जाओ!
(‘नेताओं को न्यौता !’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेंद्र अपने गीतों में जनसाधारण के दुःख-दर्द, भावों को आसानी से कैसे अभिव्यक्त कर देते थे?, इसके मुतआल्लिक उनका कहना था, “कलाकार कोई आसमान से टपका हुआ जीव नहीं है, बल्कि साधारण इंसान है। यदि वह साधारण इंसान नहीं, तो जनसाधारण के मनमानस के दुख-सुख को कैसे समझेगा और उसकी अभिव्यक्ति कैसे करेगा?’’ शैलेंद्र, को जिंदगानी का बड़ा तजुर्बा था और अपने इस तजुर्बे से ही उन्होंने कई नायाब गीत लिखे। शैलेंद्र ने अपने संघर्षों से बहुत कुछ सीखा था। संघर्ष ही उनके गुरु थे। संघर्षों में ही तपकर वे कुंदन बने।

फिल्मकार राज कपूर से शैलेंद्र की मुलाकात कैसे हुई और वे फिल्मों में किस तरह से आए?, इसका किस्सा मुख्तसर में यूं है, मुंबई में इप्टा ने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था। उसमें शैलेंद्र अपना गीत ‘जलता है पंजाब साथियों…’ पढ़ रहे थे। श्रोताओं में मशहूर निर्माता-निर्देशक राज कपूर भी शामिल थे। उन्होंने जब ये गीत सुना, तो उन्हें ये बेहद पसंद आया।

सम्मेलन के बाद राज कपूर, शैलेंद्र से मिले और उन्हें अपनी फिल्म में गाने लिखने की पेशकश की, लेकिन शैलेंद्र ने इस पेशकश को यह कहकर ठुकरा दिया कि मैं पैसे के लिए नहीं लिखता। कोई ऐसी बात नहीं है, जो मुझे आपकी फिल्म में गाना लिखने के लिए प्रेरणा दे। बहरहाल एक वक्त ऐसा भी आया, जब शैलेंद्र को पारिवारिक मजबूरियों के चलते पैसे की बेहद जरूरत आन पड़ी और वे मदद के लिए राज कपूर के पास पहुंचे। फिल्म में गाने लिखने की उनकी पेशकश को उन्होंने मंजूर कर लिया।

राज कपूर उस वक्त अपनी फिल्म ‘बरसात’ बना रहे थे। फिल्म के छह गीत हसरत जयपुरी लिख चुके थे, दो गानों की और जरूरत थी, जिन्हें शैलेंद्र ने लिखा। एक तो फिल्म का शीर्षक गीत ‘बरसात में हम से मिले तुम’ और दूसरा ‘पतली कमर है, तिरछी नजर है’। साल 1949 में आई फिल्म ‘बरसात’ के इन दो गीतों ने उन्हें रातों-रात देश भर में मकबूल बना दिया। कलाकार, निर्देशक राज कपूर और शैलेंद्र की जोड़ी ने आगे चल कर फिल्मी दुनिया में एक नया इतिहास रचा। राज कपूर और शैलेंद्र के बीच एक अलग ही रिश्ता था। राज कपूर उन्हें पुश्किन या कविराज के नाम से संबोधित करते थे। फिल्मों में मसरुफियतों के चलते शैलेंद्र अदबी काम ज्यादा नहीं कर पाए, लेकिन उनके जो फिल्मी गीत हैं, उन्हें भी कमतर नहीं माना जा सकता। शैलेंद्र के इन गीतों में भी काव्यात्मक भाषा और आम आदमी से जुड़े उनके सरोकार साफ दिखलाई देते हैं। अपने इन फिल्मी गीतों में उन्होंने किसी भी स्तर का समझौता नहीं किया।

गीतकार शैलेंद्र के बारे में कहानीकार भीष्म साहनी का कहना था, ‘‘शैलेंद्र के आ जाने पर (फिल्मी दुनिया में) एक नई आवाज सुनाई पड़ने लगी थी। यह आजादी के मिल जाने पर, भारत के नए शासकों को संबोधित करने वाली आवाज थी। इसके तेवर ही कुछ अलग थे। बड़ी बेबाक, चुनौती भरी आवाज थी। इसमें दृढ़ता थी। जुझारूपन था। पर साथ ही इसमें अपने देश और देश की जनता के प्रति अगाध प्रेमभाव था… पर साथ ही साथ शासकों से दो टूक पूछा भी गया था,
लीडरों न गाओ गीत राम राज का
इस स्वराज का क्या हुआ किसान, कामगार राज का

शैलेंद्र का दिल वाकई गरीबों के दुःख-दर्द और उनकी परेशानियों में बसता था। उनकी रोजी-रोटी के सवाल वे अक्सर अपने फिल्मी गीतों में उठाते थे। फिल्म उजाला में उनका एक गीत है,
सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम
ऐ आस्मां तू बड़ा मेहरबां, आज तुझको भी दावत खिलाएंगें हम

वहीं फिल्म मुसाफिर में वे फिर अपने एक गीत में रोटियों की बात करते हुए कहते हैं,
क्यों न रोटियों का पेड़ हम लगा लें
रोटी तोड़ें, आम तोड़ें, रोटी-आम खा लें
 

दरअसल शैलेंद्र ने भी अपनी जिंदगी में भूख और गरीबी को करीब से देखा था। वे जानते थे कि आदमी के लिए उसके पेट का सवाल कितना बड़ा है। रोजी-रोटी का सवाल पूरा होने तक, जिंदगी के सारे रंग, उसके लिए बदरंग हैं।

शैलेंद्र ने कई फिल्मों में सुपर हिट गीत दिए। ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘आह’, ‘बूट पॉलिश’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’ तीसरी कसम, बसंत बहार, दो बीघा जमीन, मुनीमजी, मधुमति, यहूदी, छोटी बहन, बंदिनी, जंगली, जानवर, गाइड, आह, दिल अपना और प्रीत पराई, काला बाजार, सीमा, पतिता, छोटी-छोटी बातें और ब्रह्मचारी आदि फिल्मों में उनके कभी न भुलाए जाने वाले गीत हैं। शैलेंद्र ने अपने फिल्मी जीवन में कुल मिलाकर 28 अलग-अलग संगीतकारों के साथ काम किया। उसमें सबसे ज्यादा 91 फिल्में शंकर-जयकिशन के साथ कीं।

‘बरसात’ (साल 1949) से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ (साल 1970) तक राज कपूर द्वारा बनाई गई सभी फिल्मों के शीर्षक गीत उन्होंने लिखे, जो खूब लोकप्रिय हुए। राज कपूर, शैलेंद्र की काफी इज्जत करते थे और यह इज्जत थी, शैलेंद्र की बेजोड़ शख्सियत और उनके आमफहम गीतों की। शैलेंद्र की मौत के बाद दिए गए एक इंटरव्यू में राज कपूर ने उनके बारे में कहा था, ‘‘शैलेंद्र की रचना में उत्कृष्टता और सहजता का यह दुर्लभ संयोग उनके व्यक्तित्व में निहित दृढ़ता और आत्मविश्वास से संबद्ध है। साथ ही उनके गीतों में ऊंचा दर्शन था, सीधी भाषा।’’

यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि फिल्म ‘आवारा’ का शीर्षक गीत शैलेंद्र ने कहानी सुने बिना ही लिख दिया था। गाना राज कपूर को सुनाया, तो उन्होंने इसे नामंजूर कर दिया। फिल्म जब पूरी बन गई, तो एक बार फिर राज कपूर ने यह गीत सुना और ख्वाजा अहमद अब्बास को भी सुनाया। गाना सुनने के बाद अब्बास साहब की राय थी कि यह तो फिल्म का मुख्य गीत होना चाहिए। यह बात अब इतिहास है कि फिल्म जब रिलीज हुई, तो यह गीत देश की तमाम सीमाएं लांघकर दुनिया भर में मकबूल हुआ। राज कपूर जहां कहीं भी विदेश जाते, लोग उनसे इसी गीत की फरमाइश करते।

शैलेंद्र, फिल्मों में देश की गरीब अवाम के जज्बात को अल्फाजों में पिरोते थे। यही वजह है कि उनके गाने आम आदमियों में काफी लोकप्रिय हुए। आम आदमी को लगता था कि कोई तो है, जो उनके दुःख-दर्द को अपनी आवाज देता है। शैलेंद्र के गीतों के बारे में निर्देशक विमल राय और बासु भट्टाचार्य की पत्नी रिंकी भट्टाचार्य की राय थी, ‘‘वो गरीबी का महिमा मंडन नहीं करते थे, न ही दर्द को सहानुभूति पाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर जताते थे। उनके गीतों में घोर निराशा भरे अंधकार में भी जीने की ललक दिखती थी। जैसे उनका गीत ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर…।’

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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