Saturday, April 20, 2024

जन्मदिन पर विशेषः कैफी से शौकत का प्रेमिका, पत्नी, कला और सड़क पर साझे संघर्ष का था रिश्ता

तरक्कीपसंद तहरीक की हमसफर, मशहूर शायर-नगमानिगार कैफी आजमी की शरीके हयात, शानदार अदाकारा शौकत कैफी, जिन्हें उनके चाहने वाले शौकत आपा और उनके करीबी मोती के नाम से पुकारते थे, बीते साल 22 नवंबर को इस दुनिया से हमेशा के लिए जुदा हो गईं और अपने पीछे छोड़ गईं, ‘याद की रहगुजर’। उनकी यादों की रहगुजर से यदि गुजरें, तो बहुत कुछ याद आता है। गुलाम हिंदुस्तान में आजादी पाने की जद्दोजहद, आजादी के बाद समाजवाद के लिए संघर्ष। 20 अक्तूबर, 1928 को हैदराबाद में एक नीम-तरक्कीपसंद (अर्ध प्रगतिशील) परिवार में शौकत खानम उर्फ शौकत कैफी की पैदाइश हुई। उनके पिता जदीद तालीम और खुले ख्यालों के तरफदार थे। लिहाजा उन्होंने परिवार में लड़का-लड़की में कोई फर्क न करते हुए, अपनी सभी लड़कियों को अच्छी तालीम दी। अपना फैसला खुद ले सकें, ऐसी तर्बीयत दी, जिसका असर, शौकत खानम की आगे की जिंदगी और मुस्तकबिल पर पड़ा। शौकत खानम, शौकत कैफी कैसे हुईं, इसकी दास्तान बड़ी दिलचस्प और हंगामाखेज है।

हैदराबाद से निकलने वाले उर्दू डेली अखबार ‘पयाम’ के एडिटर, तरक्कीपसंद शायर अख्तर हुसैन, शौकत खानम के दूल्हाभाई थे। उनके घर हमेशा तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े अदीबों का डेरा जमा रहता था। उन्हीं के घर शौकत खानम की पहली मुलाकात कैफी आजमी से हुई। पहली ही नजर में वे एक-दूसरे के हो गए। कुछ इस तरह कि जैसे एक-दूसरे के लिए ही बने हों। यह जानते हुए भी कि कैफी आजमी कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर हैं। मुंबई में पार्टी के कम्यून में रहते हैं, आजीविका का कोई ठिकाना नहीं, शौकत खानम ने उनसे शादी करने का साहसी फैसला कर लिया। परिवार की शुरुआती ना-नुकुर के बाद, आखिरकार उनकी शादी कैफी आजमी से हो गई। तरक्कीपसंद तहरीक के रहनुमा सज्जाद जहीर के यहां कैफी-शौकत की शादी की सारी रस्में पूरी हुईं। इस शादी में तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़ी तमाम अजीम शख्सियत मसलन जोश मलीहाबादी, मजाज़, कृश्न चंदर, साहिर लुधियानवी, पितरस बुखारी, विश्वामित्र आदिल, इस्मत चुगताई, सरदार जाफरी, सुल्ताना आपा, मीराजी, मुनीष सक्सेना वगैरह शामिल थे। मजाज ने अपनी नज्म ‘आज की रात’ और जोश मलीहाबादी ने अपनी रुबाईयों से शादी की महफिल को रौनक दी।

शादी के कुछ अरसे बाद ही शौकत खानम ने अपने आप को कम्यून और कैफी आजमी के रंग में ढाल लिया। वे अपने शौहर कैफी आजमी के संग प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की मीटिंगों और प्रोग्रामों में बढ़-चढ़ कर शिरकत करने लगीं। कैफी आजमी की जिंदगी का मकसद, उनका मकसद हो गया। बहरहाल जिंदगी जैसे-जैसे आगे बढ़ी, उनका कठोर सच्चाईयों से साबका पड़ा। पार्टी के होल टाइमर होने की वजह से कैफी को परिवार चलाने के लिए, काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। पार्टी के काम के अलावा वे और कोई काम नहीं कर सकते थे। न ही इसके लिए उनके पास वक्त था। कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी के समझाने, परिवार के भरण-पोषण और उसकी जिम्मेदारी को बांटने की खातिर शौकत कैफी ने भी काम करने का फैसला कर लिया। जब उन्होंने अपना यह फैसला, कैफी को सुनाया, तो कैफी ने भी उनकी मदद की।

शौकत कैफी, अपने स्कूल के जमाने में ड्रामों में काम करती थीं। एक्टिंग उनका शौक था। लिहाजा उन्होंने एक्टिंग के ही क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया। रेडियो के लिए ड्रामों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने फिल्मी गीतों के कोरस में अपनी आवाज दी। शौकत कैफी की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि कुछ ही दिनों में उन्हें डबिंग वगैरह का काम मिलने लगा। परिवार की माली हालत सुधर गई। इप्टा के नाटकों में शौकत कैफी के अभिनय की शुरुआत का किस्सा कुछ इस तरह से है, एक रोज लेखक, पत्रकार, पटकथा लेखक, फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की बीवी मुज्जी उनके पास आईं और उनसे ‘इप्टा’ में काम करने का प्रस्ताव रखा। इस पेशकश को वे मना नहीं कर पाईं और खुशी-खुशी उन्होंने इसे मंजूर कर लिया।

उर्दू की मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुगताई का लिखा ‘धानी बांके’, उनका पहला नाटक था, जिसमें उन्होंने अभिनय किया। कथाकार-नाटककार भीष्म साहनी द्वारा निर्देशित इस नाटक में उनके साथ जुहरा सहगल, अजरा बट्ट और दीना पाठक ने भी अहम रोल किए। उनका पहला ही नाटक बेहद कामयाब रहा। इसके बाद भीष्म साहनी के ही निर्देशन में उन्होंने ‘भूतगाड़ी’ नाटक किया। इसमें उनके सह कलाकार जाने-माने अभिनेता बलराज साहनी थे। ‘धानी बांके’ की तरह इस नाटक में भी उनका केंद्रीय किरदार था, जिसे उन्होंने बहुत ही उम्दा तरीके से निभाया। नाटक और उनका अभिनय दोनों ही खूब पसंद किया गया। इस तरह से शौकत कैफी की अभिनेत्री के तौर पर एक पहचान बन गई। उनको जिंदगी के लिए एक नई राह मिल गई।

मुल्क की आजादी के बाद भी शौकत कैफी के संघर्ष कम नहीं हुए। कैफी आजमी के संघर्ष, उनके संघर्ष थे और वे हमेशा कैफी के कंधे से कंधा मिलाए, उनके साथ खड़ी रहती थीं। उन्होंने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। पृथ्वी थियेटर में नौकरी की। ट्यूशन पढ़ाया और किसी तरह से परिवार का गुजारा चलाया, लेकिन कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। जो रास्ता उन्होंने चुना था, उससे कभी विचलित नहीं हुईं। किराए के मकान और पार्टी कम्यून में उन्होंने कई साल गुजारे। शौकत कैफी कुछ साल पृथ्वी थियेटर से भी जुड़ी रहीं। पृथ्वी थियेटर और पृथ्वीराज कपूर के नाटकों में काम कर, उन्होंने एक्टिंग की बारीकियां सीखीं। अपनी आपबीती ‘याद की रहगुजर’ में पृथ्वीराज कपूर का एक्टिंग को लेकर उन्हें समझाने के वाकिये को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘वे कहते थे, जब तुम कोई किरदार पेश करो, तो उसमें इस तरह समा जाओ कि कोई तुम्हारा दिल चीर कर भी देखे, तो उसको उसी तरह धड़कता हुआ पाए, जिस तरह उस किरदार का दिल धड़कता है।’

शौकत कैफी ने पृथ्वी थियेटर के कई चर्चित नाटक मसलन ‘शकुंतला’, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’, ‘आहुति’, ‘कलाकार’, ‘पैसा’ और ‘किसान’ में काम किया। अलबत्ता इन नाटकों में उनका ओरिजनल रोल कोई नहीं था। अंडरस्टडी (थियेटर में अंडरस्टडी उस अदाकार को कहते हैं, जो एक ऐसा रोल तैयार करके रखे, जिसे स्टेज पर कोई दूसरा अदाकार कर रहा है और जरूरत पड़ने पर उसकी जगह यह रोल वह कर सके) उन्होंने कई रोल किए। पृथ्वी थियेटर के अलावा उन्होंने ऐलीक पदमसी के ‘थियेटर ग्रुप’ के वन एक्ट ड्रामे ‘नौकरानी की तलाश’ (निर्देशक-अमीन सयानी), ‘सारा संसार अपना परिवार’, ‘शायद आप भी हंसें’ और ‘शीशों के खिलौने’ में भी अभिनय किया। कमोबेश सभी नाटक कामयाब रहे। थियेटर की दुनिया में अभिनेत्री के तौर पर उनकी मांग बढ़ती चली गई। इप्टा के साथ-साथ वे व्यावसायिक थियेटर भी करती थीं। ताकि परिवार के लिए जरूरी मदद हो सके। चरित्र अभिनेता सज्जन के साथ उनके थियेटर ग्रुप ‘त्रिवेणी रंगमंच’ के लिए उन्होंने ‘पगली’ और ‘अंडर सेक्रेटरी’ नाटक में काम किया। महाराष्ट्र स्टेट ड्रामा कंपटीशन में ‘पगली’ को पहला इनाम, तो शौकत कैफी को बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड मिला।

थियेटर में एक्टिंग कर शौकत कैफी को जहां रचनात्मक सुकून मिलता था, समाज के प्रति जिम्मेदारी पूरी होती थी, तो वहीं थोड़ी आर्थिक मदद भी हो जाती थी, लेकिन यह मदद अस्थाई थी। जब नाटक खेले जाते, तब उन्हें पैसा मिलता। बाकी वक्त उन्हें खाली बैठना पड़ता। यही वजह है कि आल इंडिया रेडियो में जब विविध भारती की शुरुआत हुई, तो उन्होंने अनाउंसर की नौकरी के लिए अपनी दरख्वास्त भेज दी, जिसमें उनका चयन हो गया। विविध भारती का पहला प्रोग्राम ‘मन चाहे गीत’ उन्हीं की आवाज में ब्रॉडकास्ट हुआ, जिसे आगे चलकर खूब मकबूलियत हासिल हुई। विविध भारती में आज जो गीत बजते हैं, उसमें फिल्म के साथ-साथ उस गीत के गायक, संगीतकार और गीतकार का नाम अनाउंस होता है, लेकिन शुरुआत में ऐसा नहीं था। सिर्फ फिल्म और गायक का नाम अनाउंस होता था।

शौकत कैफी ही थीं, जिन्होंने एक मीटिंग में संगीतकार और गीतकार का नाम अनाउंस करने की मांग रखी और यह मांग मान ली गई। तब से रेडियो में इनके नाम बताए जाने लगे। शौकत कैफी का भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा से लंबा नाता रहा। वे लगभग चार दशक तक मुंबई इप्टा से जुड़ी रहीं। उन्होंने इप्टा के कई अहमतरीन नाटकों में अपने अभिनय के जौहर दिखलाए। ‘डमरू’, ‘अफ्रीका जवान परेशान’, ‘तन्हाई’, ‘इलेक्शन का टिकट’, ‘आज़र का ख़्वाब’, ‘लाल गुलाब की वापसी’, ‘आखिरी सवाल’, ‘सफेद कुंडली’ और ‘एंटर ए फ्रीमैन’ आदि नाटकों में उनका अभिनय खूब सराहा गया। ज्यादातर नाटकों में उन्होंने केन्द्रीय किरदार निभाए। एके हंगल, आरएम सिंह, रमेश तलवार, रंजीत कपूर जैसे आला दर्जे के निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया।

शौकत कैफी के अभिनय की शोहरत उन्हें फिल्मों तक ले गई। ‘हकीकत’, ‘हीर रांझा’, ‘लोफर’ आदि फिल्मों में उन्होंने छोटे-छोटे चरित्र किरदार निभाए। निर्देशक एमएस सथ्यू और शमा जैदी ने साल 1971 में जब ‘गर्म हवा’ बनाने का फैसला किया, तो इस फिल्म के एक अहम रोल में उन्हें भी चुना। सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) की बीवी के किरदार में तो शौकत कैफी ने जैसे जान ही फूंक दी। उन्होंने इतना सहज और स्वभाविक अभिनय किया कि सत्यजीत रे जैसे विश्व प्रसिद्ध निर्देशक ने भी उनकी अभिनय प्रतिभा का लोहा मान लिया। उन्होंने शौकत कैफी की तारीफ करते हुए यहां तक कहा, ‘‘शौकत को इस फिल्म में अदाकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना चाहिए था।’’

‘गर्म हवा’ में खास तौर पर बेटी की मौत पर कफन फाड़ने का जो उन्होंने सीन किया है, वह दिल को हिला देने वाला है। ‘गर्म हवा’ के बाद उन्हें जो महत्वपूर्ण फिल्म मिली, वह थी मुजफ्फर अली की ‘उमराव जान’। इस फिल्म में उन्होंने खानम के रोल में कमाल कर दिखाया है। फिल्म में दीगर अदाकारों के साथ-साथ उनकी अदाकारी भी वाकई, लाजवाब है। कैफी आजमी ने जब यह फिल्म देखी, तो उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनर सुभाषिनी अली को अपना रद्दे अमल देते हुए कहा, ‘‘शौकत ने खानम के रोल में जिस तरह हकीकत का रंग भरा है, अगर शादी से पहले मैंने इनकी अदाकारी का यह अंदाज देखा होता, तो इनका शजरा (वंशावली) मंगवाकर देखता कि आखिर सिलसिला क्या है!’’

निर्देशक मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ एक और ऐसी फिल्म है, जिसमें शौकत कैफी की अदाकारी के दुनिया भर में चर्चे हुए। ‘घर वाली’ के रोल की तैयारी के लिए वे बाकायदा तवायफों के बदनाम इलाके कमाठीपुरा गईं। जहां उन्होंने वेश्याओं की जिंदगी का करीब से अध्ययन किया। जब वे शूटिंग के लिए गईं, तो उनकी अदाकारी को देख कर निर्देशक के साथ साथी कलाकार भी चौंक गए। फिल्म व्यावसायिक तौर पर काफी कामयाब हुई और अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में इसने सिल्वर जुबली मनाई। ‘लोरी’, ‘रास्ते प्यार के’, ‘बाजार’, ‘अंजुमन’ वे फिल्में हैं, जिनमें शौकत आजमी ने अपनी अदाकारी के अलहदा रंग दिखलाए।

कैफी आजमी को अपने गांव मिजवां से काफी लगाव था और इसकी तरक्की के लिए उन्होंने लगातार काम किया। इस काम में शौकत आजमी भी हमेशा उनका साथ देती थीं। गांव में तमाम परेशानियों के बाद भी उन्होंने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। कैफी की खुशियां, उनकी खुशियां थीं। कैफी हंसते, वे हंसती और उन्हें कोई गम होता, तो वे भी गमजदा हो जातीं। वे एक अच्छी पत्नी और मां थीं। स्टेज हो या जिंदगी शौकत कैफी को जो भी भूमिकाएं मिलीं, उन्होंने उसे बेहतर तरीके से निभाया। कैफी आजमी को जब फालिज का अटैक आया, डिप्रेशन का शिकार हुए, तो उन्होंने उनकी खूब खिदमत की। अपनी खिदमत से उन्हें डिप्रेशन से उबारा। शबाना आजमी और बाबा आजमी, उनके दोनों बच्चे फिल्मी दुनिया में आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें भी उनकी अच्छी तर्बीयत का बड़ा योगदान है।

‘याद की रहगुजर’ शौकत कैफी की आपबीती है। यह उनकी एक मात्र किताब है, लेकिन इस किताब में उन्होंने जिस किस्सागोई से कैफी आजमी, अपने परिवार और खुद के बारे में लिखा है, वह पढ़ने वालों को एक उपन्यास का मजा देता है। इसके सारे किरदार, असल जिंदगी के हैं। किताब पढ़ कर, जैसे पूरा बीता दौर जिंदा हो जाता है। भाषा की रवानगी ऐसी कि दरिया बह रहा हो। कृश्न चंदर की शरीके हयात, अफसानानिगार सलमा सिद्दीकी ने इस किताब की भूमिका लिखी है। ‘याद की रहगुजर’ को उन्होंने मुहम्मदी बेगम, नज्र सज्जाद हैदर, कुर्रतुल ऐन हैदर, हमीदा सालिम जैसी उर्दू की अव्वलतरीन लेखिकाओं की आपबीती और सवानेहउम्री (आत्मकथा) के समकक्ष रखा है।

किताब की अहमियत बतलाते हुए, वे अपनी भूमिका में लिखती हैं, ‘‘मुझे यकीन है कि ‘याद की रहगुजर’ अक्सरो-बेश्तर लोगों को अपनी और अपने जैसों की जिंदगी के शबो-रोज (दिन और रात) में झांकने पर मजबूर कर देगी। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हर जिंदगी एक किताब होती है, किरदार और हालात और अहद (जमाना) मुख्तलिफ हो सकते हैं, लेकिन किस्मत की बालादस्ती (श्रेष्ठता) से किसी को मफ़र (बचाव) नहीं।’’ वाकई सलमा सिद्दकी ने बज़ा फरमाया है। हर जिंदगी एक किताब होती है और किस्मत किसी के वश में नहीं, लेकिन शौकत कैफी उन हिम्मती औरतों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी तकदीर खुद लिखी। आगे बढ़कर अपनी तारीख का उनवान बदला।

कैफी आजमी जिस ‘आग’ में जलते थे, उसी ‘आग’ में जलना मंजूर किया। कैफी की मशहूर नज्म ‘औरत’ पर जिंदगी भर एतमाद किया।

तोड़कर रस्म के बुत बन्दे-क़दामत से निकल
ज़ोफ़े-इशरत से निकल, वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

पूरी जिंदगी अपनी शर्तों पर गुजारी और कभी किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं किया। आजादी के बाद एक बार फिर इप्टा को खड़ा करने में उनके बहुमूल्य योगदान को नकारा नहीं जा सकता। एके हंगल, आरएम सिंह, विश्वामित्र आदिल, संजीव कुमार, रमेश तलवार और कैफी आजमी के संग मिलकर उन्होंने इप्टा को सक्रिय किया। रंगमंच और फिल्मों में उनके अमूल्य योगदान और अपनी यादगार अदाकारी से शौकत कैफी हमेशा याद की जाएंगी।

(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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