“एक दिन भी मैं भूल नहीं पायी हूं कि उस रोज़ मेरे और मेरे परिवार और बाकी लोगों के साथ क्या हुआ था। हम बगैर न्याय के नरक की ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त हैं। हमारे आदमियों को मार दिया गया, हमारे घरों को लूट लिया गया। जो भी हमारे पास था सब कुछ छीन लिया गया। और वे चाहते हैं कि हम सब भूल जाएं और जीवन में आगे बढ़ जाएं। क्या आप सोचते हैं यह संभव है? अब यह तभी ख़त्म होगा जब मेरी आंखें हमेशा के लिए मुंद जायेंगी”।
(दर्शन कौर, ‘कौर्स ऑफ़ 1984’ किताब के लिए सनम वज़ीर को दिए गए एक साक्षात्कार में)
इतिहास के कुछ सफ़हे ऐसे होते हैं जो अनकहे रह जाते हैं तमाम उम्र। क्योंकि इतिहास मुख्यतः चयन का मामला है। यह तय होता है इतिहासकार की पक्षधरता के हिसाब से। वह किस ज़मीन पर खड़े होकर इतिहास का विषय चुनती/चुनता है।
ऐसे में रक्त और आंसुओं में तर इतिहास के वह पन्ने मानवता की स्मृतियों में फड़फड़ाते रहते हैं हरदम। और अगर मामला औरतों का हो तो इतिहासलेखन की सीमायें और नाइंसाफियां और अधिक उजागर हो जाती हैं।
ज़रूरत है इतिहास के उन रक्तरंजित अन्यायी पन्नों को सबके सामने लाने की। मौखिक इतिहास इसके लिए बहुत मुफ़ीद उपकरण है। तब तो और जब इतिहास को हाशिये का बयान दर्ज करना हो।
मौखिक इतिहास के इसी उपकरण का प्रयोग किया है वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता सनम सुतीरथ वज़ीर ने। उन्होंने ग़म और गुस्से में तर लफ़्ज़ों से तैयार किया है दस्तावेज उन औरतों का जिनका 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद देश की राजधानी दिल्ली में हिन्दुओं द्वारा सरे आम बलात्कार किया गया।
उनकी आंखों के सामने उनके पतियों और सम्बन्धियों को तलवार से काट दिया गया। उनके बेटों के गले में जलते टायर डाल कर ज़िन्दा जला दिया गया। कोई ज्वलनशील सफ़ेद पाउडर डाल कर उनके बच्चों को आग लगाई गई।
‘ये रहे सिख, मारो-काटो’, भीड़ चिल्लाई। सतवंत उनमें से कई लोगों को पहचानती थी। वे उनके इलाके के हिन्दू पुरुष थे। जिन्हें वह भैया, चाचा कहा करती थी। वह उन्हें बचपन से जानती थी।
“जनसंहार के बाद सालों तक ये आवाजें मेरे कानों में गूंजती रही। लेकिन मेरे पास शोक मनाने का समय नहीं था।” (सतवंत कौर, इसी किताब में) सतवंत के कन्धों पर उसके परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी आ गई थी। शरणार्थी शिविर में उसे पैनिक अटैक आते थे।
बाद में उसने संगीत सीखा और पेट पालने के ‘देवी जागरण’ में गाने लगी। “मुझे लाल सूट पहनना पड़ता था, जो कैम्प की औरतों को अच्छा नहीं लगता था।” सतवंत एक विधवा जो थी।
सन चौरासी की नाइंसाफ़ी की ये कहानियां सुनी जानी चाहिए। सनम वज़ीर ने कितना पक्का कलेजा करके 1984 में बलत्कृत हुई इन औरतों की दिल दहला देने वाली कहानियों का दस्तावेजीकरण किया होगा। इस किताब को पढ़ते हुए शुरू में पन्ने दर पन्ने मैं रोती गई और किताब का अंत होते-होते गुस्से से भर गई।
हिंसा और अहिंसा की बहस अपना अर्थ खो देती है जब एक पूरी कौम अतीत के अत्याचार के साए में जीने को अभिशप्त हो जाती है।
1984 में जब इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत स्वर्ण मंदिर में मौजूद पवित्र हरमिंदर साहब को तोप से उड़ा दिया और सैकड़ों लोगों को गोली से भून दिया तो एक पूरी पीढ़ी ने अपनी घायल आत्मा की खातिर हथियार उठा लिया। फिर उसके बाद जो अकल्पनीय दमन पंजाब पुलिस और सेना ने किया उसकी सुनवाई किसी अंतरराष्ट्रीय आदालत में नहीं की गई।
“बन्दूक उठा लेना ज्यादा मुक्त करता है, ख़ासतौर से तब जब आप रोज़-रोज़ सेना और पुलिस के हाथों सताए जाते हो।” (कुलदीप कौर)
सनम ने 2014 में अपना यह शोध शुरू किया। अनेक उतार चढ़ाव का सामना करते हुए यह असाधारण किताब आज 2024 में हमारे हाथों में है। असाधारण इसलिए क्योंकि इसमें दर्ज हैं उन औरतों की कहानियां जिनके साथ इतिहास ने बलात्कार किया सिर्फ इसलिए कि वे एक सिख की पत्नी, बेटी, बहन और मां थीं।
उन्होंने किसी को नहीं बक्शा 9-10 साल की बच्चियों से लेकर बूढ़ी औरतों तक का गैंग रेप किया। सरेआम किया। पितृसत्ता का बदला लेने का यही तरीका है। इसे सरकार की शह पर किया गया। पुलिस की निगरानी में किया गया। बाद में कोर्ट इस मामले को लगातार मुल्तवी करती गई।
सनम वज़ीर ने इस शोध के लिए 1984 के कण्ट्रोल रूम रिकॉर्ड हासिल करने के लिए आरटीआई दाखिल किया तो 2016 में उन्हें जवाब मिला कि 83 से लेकर 86 तक के सारे रिकॉर्ड नष्ट कर दिए गए हैं। लेकिन उन स्मृतियों का आप क्या करोगे जो दर्ज हैं, लोगों की स्मृतियों में अनमिट।
दर्शन कौर के पति को उनके मोहल्ले के हिंदू पुरुष रामपाल सरोज के नेतृत्व में घसीट कर गली में लाया गया और उनके गले में जलता टायर डाल कर हत्या कर दी। उनके देवर के पेट को तलवार से काट कर मार डाला गया। त्रिलोकपुरी एक कब्रगाह बन गई।
दर्शन कौर बताती हैं 1 नवम्बर को शाम 4 बजे तक सारे सिख जो उनकी ज़द में आये मारे गए। उन्होंने सारी औरतों को सामने पार्क में इकठ्ठा होने को कहा और 10-12 पुरुषों का एक समूह एक-एक करके लड़कियों को ले जाकर उनके साथ बलात्कार करता और उन्हें वापस जाने को कहता। दर्शन कौर बताती हैं उन्होंने अपनी मां और दादी की उम्र की औरतों से भी बलात्कार किया।
कांग्रेस के कुछ नेता भी आते और उन्हें खींच कर ले जाते। उन्होंने सफ़ेद अम्बेसडर गाड़ी से काले चश्मे में एच.के. एल. भगत को उतरते देखा और हत्यारी और बलात्कारी भीड़ का समर्थन करते देखा। बाद में इन्ही दर्शन कौर ने भरी कोर्ट में एच.के.एल. भगत की शिनाख्त की।
हाथ में चप्पल लेकर इशारा करते हुए उन्होंने कहा-”जज साहिब यही है वह बन्दा” ये कहते हुए दर्शन कौर रत्ती भर नहीं डरी। जिनका सब कुछ ख़तम हो गया था उसे अब किस चीज़ से डरना?
इन्हीं दर्शन कौर ने आगे चल कर उन औरतों की लड़ाई लड़ी। उस हत्याकांड में लगभग 3000 सिखों का कत्लेआम तो घट चुका था। उसमें जितने पुरुष मारे गए वह तो इस दुनिया से चले गए। लेकिन बाकी बची उनकी औरतों और बच्चों को ताउम्र झेलना था।
इस क्रूर सामाज में उनका जीवन बेहद मुश्किलों से भरा था। उनका जीवन कितना दुष्कर और मुश्किलों से भरा था, उसको भुलाना आसान नहीं था। वे आज भी उन्हें झेल रही हैं। सनम ने एक हद तक उनका कर्ज़ अदा किया है, उन अनकही कहानियों को दुनिया के सामने लाकर।
हम सभी जानते हैं इस पितृसत्तात्मक समाज में एक विधवा का जीना कितना दुष्कर होता है। रेप की शिकार विधवाओं को खुद उनके परिवार वाले स्वीकार नहीं करते। मुआवज़े की रकम पर कब्ज़ा करने के लिए अपनी बहू को पहचानने से इनकार कर देते।
उनके बच्चों की मानसिक दशा फिर कभी सामान्य नहीं हुई। स्कूल में बच्चे उन्हें ‘गद्दार के बेटे’ या विधवा कालोनी से आने वाला कह कर चिढ़ाते। जिसके कारण बच्चे अवसाद में गए। कुछ ने स्कूल छोड़ दिया अपने पिता की आंखों के सामने हुई क्रूर हत्या को वे कभी भूल नहीं पाए।
इन बच्चों का मनोवैज्ञानिक विश्लेष्णात्मक अध्ययन करना तो बाकी ही है। शायद सनम जितना कोई साहसी और जुनूनी व्यक्ति इसे भी पूरा करे।
दर्शन कौर जैसों के लिए इस समाज में अपनी और उन औरतों की लड़ाई लड़ना आसान काम नहीं था। उन्होंने लम्बे समय तक प्रदर्शन करके अपने और अपनी जैसी औरतों के लिए मुआवज़ा और एक अदद नौकरी हासिल की। लम्बी कानूनी लड़ाई तोड़ कर रख देती है। लेकिन दर्शन कौर हारी नहीं आज भी लड़ रही हैं। बेशक उन्हें न्याय अभी भी नहीं मिला।
कितनी विडम्बना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी में मौजूद है, सरकार द्वारा बनायी गई एक ‘विधवा कॉलोनी’, जिनमें मौजूद विधवाओं के पतियों का सरकार की रहनुमाई में क़त्लेआम किया गया।
सनम ने जितनी संवेदनशीलता से इस किताब को अंजाम दिया है वह क़ाबिले-तारीफ़ है। ऐसी कितनी अनकही कहानियां हैं जो रोंगटे खड़े कर देती हैं। औरतों का एक पुरुष के सामने खुलकर बयान करना अपने आपमें यह कहानी कहता है कि ज़ुल्म की इन्तहां आपको स्त्री-पुरुष के दायरे से ऊपर उठा देती है।
इस किताब की सबसे खास बात है, जिसकी चर्चा कम हो रही है, वह है वे लड़कियां जो उस वक्त जवान थीं, या बच्ची थीं, उनका प्रतिरोध में हथियार उठा लेना। कुछ लड़कियां ऑपरेशन ब्लू स्टार से खफा थीं, तो कुछ दिल्ली में सिख जनसंहार के बाद अपने पिता या भाई को खो देने का बदला लेना चाहती थीं, तो कुछ औरतों के साथ हुए बलात्कार का प्रतिशोध करना चाहती थीं।
सनम वज़ीर ने बहुत तफसील से हथियार उठाने वाली उन औरतों का साक्षात्कार किया है और पूरी सच्चाई से उनकी कहानी बताई है। उन लड़कियों ने बताया कि किस तरह उनके मन में बदला लेने का जज्बा था कि वे आन्दोलन के लिए केवल कुरियर की भूमिका तक में सीमित नहीं रहना चाहती थीं। वह वजाफ्ता हथियार लेकर लड़ना चाहती थीं।
बदले में सरकार, सेना और पुलिस के अनन्यतम दमन को भी उन्होंने सहा। सनम ने बहुत विस्तार से इसका ज़िक्र किया है।
हार्पर एंड कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित 399 रुपये की यह किताब एक अनिवार्य किताब है, जो स्तब्ध करती है और विचलित करती है। जल्दी ही इसका हिंदी और अन्य भाषा में अनुवाद होना चाहिए।
“मेरे शोध के दौरान मैं तिलक विहार में एक औरत से मिला, उसने खुद का परिचय मुझे दिया ‘मैं चौरासी की लड़की हूं।” वह अपना नाम नहीं बताना चाहती थी। उसने मुझे कहा मुझे “1984 की कौर” पुकारो।”(सनम सुतीरथ वज़ीर, इसी किताब से)
(अमिता शीरीं मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक एक्टिविस्ट हैं।)
(नोट: उद्धरणों का हिंदी अनुवाद अमिता शीरीं)
+ There are no comments
Add yours