Saturday, April 20, 2024

जेल साहित्य को समृद्ध करती मनीष और अमिता की जेल डायरी

भारत में जेल साहित्य दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, यह अच्छी बात भी है और बुरी भी। बुरी इसलिए क्योंकि इनकी अधिकता से यह पता चलता है कि जेलें न सिर्फ भर रहीं हैं, बल्कि यह लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों से भर रही हैं। जिस देश में इन लोगों को जेल में डाला जाता हो, उस देश के गिरते लोकतांत्रिक स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है। अच्छी बात इसलिए है क्योंकि इस साहित्य से इस व्यवस्था का एक वीभत्स अंधेरा, अनजान लेकिन महत्वपूर्ण पहलू लोगों के सामने आ रहा है।

हाल ही में दो जेल डायरियां एक साथ आईं हैं-मनीष आज़ाद की ‘अब्बू की नज़र में जेल’ और अमिता शीरीं की ‘‘सलाखों के पीछे’’। मूल रूप से हिन्दी में आई ये दोनों डायरियां इसलिए भी स्वागतयोग्य हैं क्योंकि इससे रेखांकित होता है कि हिन्दी पट्टी भी आन्दोलनकारियों से समृद्ध हो रही है। वैसे इस महत्वपूर्ण साहित्य को आन्दोलनकारियों के अलावा भला और कौन समृद्ध करेगा।

इन दोनों ही जेल डायरियों में ऊंची दीवारों से ढ़क दी गयीं दुनिया की तस्वीर एक बार फिर से सामने आती है। जिसमें सत्ता की क्रूरता अपने नंगे रूप में दिखती है और कैदियों के जीवन के कुछ रंग भी। यह अजीब है कि जेल में बंद ‘अपराधी’ जब दड़बेनुमा गाड़ियों में ठुंसे हुए सड़कों पर से गुजरते हैं, तो लोग उन्हें उपेक्षा और कौतुहल भरी नज़रों से देखते हैं, लेकिन जब अपराधी संसद और विधानसभाओं में बैठे दिखाई देते हैं, जब वे सड़कों पर हूटर बजाते, लोगों को दुर-दुराते सड़कों से गुजरते हैं, जब वे मंचासीन होकर प्रवचन करते हैं तो लोग उन्हें सम्मान और भक्तिपूर्ण नज़र से देखते हैं।

दोनों तरह के अपराधियों में बस एक ही फर्क है कि बाहर वाले अपराधी पैसे, धर्म और जाति से ‘पावरफुल’ पोजिशन में हैं और अन्दर बंद अपराधी इन तीनों ही मामलों में ‘पावरलेस’ है। लेकिन यह बहुत बड़ा फर्क है। इन दोनों जेल डायरियों में पावरलेस ‘अपराधियों’ की दुनिया दर्ज है, जिसे पढ़ना दुनिया के बारे में राय बनाने के लिए बेहद ज़रूरी है।

मनीष ने अपनी जेल डायरी में अपनी बातें कहने के लिए एक बच्चे को माध्यम बनाया है, जो बाहर और महिला जेल की दुनिया में यथार्थ है, लेकिन पुरूष जेल की दुनिया में कल्पना है। इसलिए यह काफी रोचक है। क्रांतिकारी कवि वरवर राव ने अपनी जेल डायरी में लिखा है कि ‘जेल सबसे सृजनशील लोगों की जगह है’। यह बात पहले अजीब लगती थी, खुद जेल जाने के बाद ये बात बिल्कुल सही लगने लगी। इसपर बहुत बातें उदाहरण के साथ हो सकती हैं, लेकिन यहां मैं अपना और मनीष का ही उदाहरण दूंगी। जेल जाने के बाद से ही मेरे अन्दर कवितायें-कहानियां कागज पर उतरने के लिए जोर मारने लगी थीं। मैंने ढाई साल में खूब पढ़ा और खूब लिखा। मनीष पहले राजनीतिक और साहित्यिक लेख ही लिखते थे, लेकिन जेल में उनकी कल्पनाशीलता को पंख लग गये। जब जेल में उन्होंने ‘अब्बू की नज़र में जेल’ लिखना शुरू किया, तो हम सुखद आश्चर्य से भर गए और ये सोचकर उत्साहित हो गए कि एक नए तरीके के जेल साहित्य का जन्म हो रहा है और यह अब हमारे हाथ में है। जेल से बाहर आकर वे शानदार कविताएं भी लिख रहे हैं। अपने साहित्यिक और राजनैतिक ज्ञान का इस्तेमाल उन्होंने अपनी डायरी में विभिन्न सन्दर्भों में खूब किया है। जिससे इसे पढ़ते हुए सिर्फ जेल के बारे में ही जानकारी नहीं मिलती, बल्कि साहित्यिक-राजनीतिक आनंद भी मिलता है।

चूंकि मनीष मेरे बड़े भाई हैं और मैं उनकी इस यात्रा की साक्षी रही हूं। इसलिए उनकी डायरी को पढ़ते हुए बहुत सारी बातें मेरे दिमाग में भी चलने लगी, जिसे डायरी का विस्तार मानकार बताना चाहती हूं। सबसे सघन याद मनीष के रिमांड की है।

जैसे-जैसे भारतीय लोकतंत्र फासीवादी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है, पुलिसिया एजेन्सियां मजबूत हो रही हैं। इसकी मजबूती के लिए ही सरकार ने लखनऊ के बाहरी हिस्से अनौरा में एटीएस यानि ‘एण्टी टेररिस्ट स्क्वॉड’ का भव्य महलनुमा ऑफिस बनाया है। एकदम विराने में विशाल भूखण्ड पर शीशों और सफेदी से जगमगाता सेन्ट्रली एसी, ब्लैक कमाण्डो की पहरेदारी से घिरा।

इसका‘औरा’ ही इतना डरावना है कि आम इंसान इसके आस-पास जाने से भी डरे। मैं खुद शायद इसके अन्दर प्रवेश न करती, अगर मेरे साथ मुहम्मद शोएब जैसा साहसी, जुझारू वकील न होता। हमारा ड्राइवर तो हमें यहां छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इसी खतरनाक जगह पर मनीष को 5 दिन तक कैद करके पूछताछ की गयी थी। इस डरावनी जगह पर जब मैं मनीष से मिली, उनके कमरे के बाहर ही नहीं अन्दर भी ब्लैक कैट कमाण्डो अत्याधुनिक हथियारों से लैस होकर पोजिशन लिए खड़े थे।

कमरे के इस माहौल में अपनी बहादुरी दिखने वाले इण्टेलिजेंस के दो-तीन अफसर कुर्सी पर बैठे थे। मेरा भाई नीचे कुर्सी पर डले गद्दे पर बैठा था। वहां का ऐसा माहौल देखकर मेरा दिल दहल गया साथ ही बहुत तेज गुस्सा भी आया।आवश्यकता से अधिक जोर से चिल्लाकर मैं मनीष से कई सवाल पूछ गई-‘‘ये लोग टार्चर तो नहीं कर रहे, सोने दिया कि नहीं, खाना खाने को दिया या नहीं, परेशान किया हो तो बताओ।’’ मेरी ओर से बातचीत की ऐसी शुरूआत से वे सकपका गए थे। थोड़े से सन्नाटे के बाद उधर से जवाब आया-‘‘अरे हम लोग कोई जल्लाद नहीं हैं’’ इसके बाद ‘वे जल्लाद हैं या नहीं’ इस बहस में विश्वविजय और शोएब साब भिड़ गये और मनीष ने मुझसे थोड़ी बात कर ली। आते समय मैंने मनीष से उसकी शर्ट का साइज पूछा, तो उसने 28 बताया, सब हंसने लगे लेकिन मैं समझ गयी कि वो अच्छी मनःस्थिति में नहीं है। ऐसे माहौल में सामान्य हो भी कौन सकता है। जब मैं मनीष से मिलकर लौटी, तो उनकी गिरफ्तारी के बाद पहली बार रोई।

मेरा भाई जल्लादों के बीच हथियारों से घिरा हुआ बैठा था, यह दृश्य और इससे बनी बेचैनी ने जो उसदिन मेरे अन्दर प्रवेश किया, उसने मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ा। उसके रिमाण्ड से लौटने के बाद भी नहीं, जेल से छूटने के बाद भी नहीं। बाद में इससे निकलने का मुझे सायास प्रयास करना पड़ा। मुझे याद आया मेरे पुलिस रिमाण्ड में मेरी दीदी मुझे थाने के बाहर अकेली खड़ी दिखी। उस समय बहन को वहां देखकर बहुत दुख हुआ, लेकिन वो वहां से क्यों नहीं हट पा रही थी, ये अब समझ में आया।

हम खुद बहादुरी से कठिन परिस्थिति में रह लेते हैं, लेकिन अपने प्रियजनों को उस परिस्थिति में नहीं देख पाते। पर मैं अनौरा स्थित डरावने एटीएस मुख्यालय की बात कर रही थी, अगर कोई मानसिक रूप से मजबूत न हो, तो यहां अपने को अकेला पाकर ही पागल हो सकता, उसका बीपी बढ़ सकता या वह हार्ट अटैक से मर भी सकता है और यह अनायास नहीं है, उनके मानसिक उत्पीड़न का हिस्सा ही है, यह यहां बनी नई तरीके की ‘अबू गरेब’ है। इसी मुकदमें में अनीता, बृजेश, बिन्दा और कृपाशंकर को भी यहीं बुलाकर पूछताछ की गई, जबकि यहां तक जाना ही किसी यातना से कम नहीं है। जैसा कि मनीष ने अपनी डायरी में लिखा है जेलों पर बुलडोजर चलना चाहिए, मैं इसमें जोड़ना चाहती हूं कि यातना के इन महलों पर भी बुलडोजर चलना चाहिए।

दूसरी डरावनी याद ये है कि मनीष के पुलिस रिमांड से जेल में लौटने के बाद मैं और विश्वविजय बस से रात में इलाहाबाद वापस लौट रहे थे। अचानक हमारे पीछे से जोर-जोर से ‘मनीष’ ‘नक्सल‘ ‘भोपाल’ जैसे शब्द सुनाई दिए, मुझे लगा भ्रम हो रहा है, लेकिन ये न तो भ्रम था, न ही इत्तेफाक। यह एटीएस वालों की हमें डराने की सोची-समझी साजिश थी। हमारे पीछे लंपट लगा दिये गये थे, जो कई दिनों तक इलाहाबाद में हमारा पीछा करते रहे, खासतौर से विश्वविजय का।

इसमें गौर करने की बात ये है कि वे हमें दिखा कर पीछा करते थे। मुझे याद आया कि जब मैं और विश्वविजय जेल गये तो ऐसे ही कुछ लोग मेरी बहन का पीछा करते थे। लेकिन हमारी तरह मेरी बहन भी नहीं डरी और हमसे मिलती रही। ये दरअसल ‘आओ डरायें’ का खेल था, जो शायद वे हर जेल जाने वाले संबंधियों के साथ खेलते हैं। पीछा करने के साथ-साथ वे गोदी मीडिया में व्यक्ति के खिलाफ दुष्प्रचार करते हैं।
मनीष की डायरी पढ़ते समय एक बात फिर से एहसास हुई कि सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता जब जेल जाते हैं तो उनके कुछ अनुभव बेहद समान होते हैं। जैसे एक ये कि कठिन परिस्थिति में घिरने पर उन्हें भगवान नहीं कई क्रांतिकारी, और साहस देने वाले साहित्य याद आते हैं, वे साहित्य और क्रांतिकारी हमारे साथ आकर खड़े हो जाते हैं। फिर इनके साथ वह कठिन समय पार हो जाता है। इनको पढ़े जाने का महत्व उस कठिन समय में ही समझ में आता है। ‘समाज को कैसे साहित्य की ज़रूरत है’? यह सवाल जेल जाने वालों से ही पूछा जाना चाहिए।

अमिता की जेल डायरी में गिरफ्तारी पूछताछ और जेल जीवन का अधिक विस्तार से वर्णन है। इसमें जेल में बंद औरतों का जीवन है, जिसमें काफी कुछ जेल के बाहर का जीवन है और बाकी जेल के अंदर की स्थिति को बयां करता है। औरतों के तो जेल का दायरा ही बस इस जेल से उस जेल तक का है। इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि किसी भी शहर या प्रदेश की जेल हो, औरतों के जेल आने की कहानी कमोबेश एक जैसी ही है।

औरतों के जेल को करीब से देखने के कारण शायद ये मुझे ही लगा हो, लेकिन लगा- कि कहानियों में कुछ ‘मिसिंग’ है। मेरा ऐसा अनुभव है कि जेल आने वाली औरतों का ‘अपराध’ परिस्थितियों की देन होती हैं। अपने किये को ‘अपराध’ मानकर वे खुद उन परिस्थितियों को छुपा लेती हैं, जिनसे ‘अपराध’ के कारण का पता चलता है और वास्तव में इस कारण में ही उस अपराध के होने की बात छिपी होती है।

गरीबी और बेबस परिस्थितियों में ढकेल दिया जाना अपने आप में ‘अपराध’ घटित होने का एक ठोस कारण है, उससे निकलने की जद्दोजहद में इंसान जो-जो कर सकता है, उसमें से बहुत सारी चीजों को ये समाज ‘अपराध’ मानता है। इसलिए अपराध को समझने के लिए इसमें जाना जरूरी है।

लेकिन अमिता की कहानियों में महिलाओं के निर्दोष होने का सरलीकरण और सामान्यीकरण अधिक दिखता है। जैसे शानो की कहानी में यह पता नहीं चलता कि किस धोखाधड़ी के मामले में उसके देवर ने उसे फंसा दिया। यानि वह कौन सी घटना या कृत्य था, जिसे ‘धोखाधड़ी’ कहा गया और उसे जेल भेज दिया गया, यह समझ में नहीं आता।

बतौर लेखक अपने आस-पास के लोगों पर कहानी या कविता न सिर्फ लिख देना, बल्कि अपनी रचना में इस खुलासे का संकेत भी छोड़ देना कि कहानी या कविता किस पर लिखी गयी है, के ‘एथिक्स’ पर भी सवाल एक पात्र ने ही उठा दिया, यह बेहद रोचक लगा। सभी लेखकों को इस पर सोचना चाहिए।
फिर भी अमिता की इन कहानियों से हर जगह औरतों के कैद जीवन का एहसास तो गहराता ही है।
अमिता ने अपनी डायरी में बताया है कि अनपढ़ जेलर कैसे अपनी पसन्द-नापसन्द के आधार पर उनकी किताबें रोक लेता था। अमिता और मनीष के लिए जेलर से किताबें हासिल करना और मेरे लिए अन्दर भिजवाना भी एक जंग थी। एक बार जब मैं कई किताबें और पत्रिकाएं लेकर गई, तो उसमें से ‘दस्तक’ और ‘आउटलुक’ मैंगजीन जेलर ने रोक ली। इसके खिलाफ मैं जेल अधीक्षक के पास पहुंच गयी।

उसके सामने ही मेरी जेलर से तीखी बहस हुई। उसका तर्क था कि उसमें अरूंधति रॉय का लेख है और अरूंधति रॉय देशद्रोही हैं। दस्तक में भी ऐसी ही देशद्रोही बातें लिखी हुई हैं। मैं अड़ गई कि कौन सी बात उसमें देशद्रोह की है मुझे बताया जाए। गनीमत थी अधीक्षक काफी सुलझा हुआ आदमी था। बहस बढ़ती देख उसने अचानक जेलर से पूछा- ‘‘दोनों पत्रिकायें रजिस्टर्ड हैं?’’ जेलर ने कहा-‘‘हां’’
जेल अधीक्षक ने जवाब दिया- ‘‘जब सरकार ने इसका रजिस्ट्रेशन कर दिया है, तो हम कौन होते हैं, इसे रोकने वाले?’’
इस बात पर जेलर का मुंह बन गया और वो वहां से उठकर चला गया। इसी तरह एक बार उसने प्लाष्टिक का शतरंज रोक लिया, इसके लिए भी लड़ना पड़ा।

दोनों डायरियां इस मामले में भी महत्वपूर्ण हैं कि दोनों इसका उद्घाटन करती हैं कि नागरिकता कानून के खिलाफ आन्दोलनकारियों, उनके समर्थकों और मुसलमानों से सरकार ने किस तरीके का व्यवहार जेल में किया। दिसंबर के अंत में जब मैं दोनों से मिलने जेल में गयी, तो इसी आन्दोलन के सिलसिले में मोहम्मद शोएब और कई लोग जेल में बंद थे। उनसे मिलने वालों की बाहर भारी भीड़ लगी हुई थी, जिनमें अधिकांश मुसलमान ही थे। जेल के कर्मचारी इनसे बुरा बर्ताव कर रहे थे और कह रहे थे – ‘‘किससे मिलने आई हो/आये हो, दंगाइयों से? शोएब साब से मिलने के प्रयास में उन्होने मुझसे भी ये सवाल पूछा। मौका देखकर मैंने जोर-जोर से बोलकर उस सिपाही की क्लास ले ली। दरअसल शोएब साब से मिलने के प्रयास में मैंने भी पर्ची लगाई, लेकिन उनसे पहले ही इतने लोग मिल चुके थे कि किसी और को मिलने से मना कर दिया गया। नागरिकता से बाहर करने के पहले ही इस सरकार ने घोषित कर दिया कि उनकी नज़र में मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।

मनीष की डायरी जब जेल के अन्दर लोग पढ़ रहे थे (पुरूष और महिला कैदी दोनों) तो उन्हें मनीष की कल्पना के साथी ‘अब्बू’ के लिए वास्तविक दुख होता था। वे मनीष को कहते कि अब अपनी डायरी में उसे जेल से रिहा कर दीजिए। मनीष ने भी दुखी मन से उसे रिहा करने के बारे में सोच लिया था, लेकिन उनकी ही रिहाई हो गई। यहां एक सवाल उठता है कि बेशक पुरूष जेल में एक बच्चा कल्पनामात्र है, लेकिन जेल में बच्चे का होना कल्पना नहीं है। वहां ‘अब्बुओं’ का होना वास्तविकता है। वे महिला जेल में अपनी माओं के साथ रहते ही हैं। और माऐं उन्हें पुलिसाइनों के आतंक से बचाने का वैसे ही प्रयास भी करती हैं, जैसे मनीष काल्पनिक अब्बू को बचाने के लिए करते हैं। बल्कि कई बार तो महिला जेल के वास्तविक अब्बू जेल की सत्ता के सीधे शिकार भी हो जाते हैं। लेकिन लोगों को पुरूष जेल में बच्चे को देखना आखिर क्यों अखरा? इसलिए क्योंकि हमारी मानसिक बुनावट ऐसी ही है। बच्चा अपनी माता के साथ जेल में रह सकता है, तो पिता के साथ क्यों नहीं?

महिला जेल में महिलाओं की कोशिश होती है कि उनका बच्चा पांच साल का न होने पाये, क्योंकि फिर उस बच्चे को मां से दूर करके बालगृह भेज दिया जायेगा। मैंने अपने जेल जीवन में माताओं की इस जद्दोजहद को देखा और लिखा भी है। अमिता और मनीष की जेल डायरी में भी इसका जिक्र है। अमिता की आंख के सामने मां से बच्चे को अलग करने का दृश्य कैसा रहा होगा। इसे मैं महसूस कर सकती हूं।

वहां हर मां इतने खराब माहौल में भी अपने बच्चे को अपने साथ रखना चाहती हैं, क्योंकि वहां बच्चे को तमाम दुख-तकलीफों से बचाने के लिए अपने आप को सक्षम समझती हैं। वास्तव में मां-पिता के बगैर बाहर की दुनिया तो और भी भयानक है। इसलिए अब्बू को बाहर भेजने के नाम पर ये सारे सवाल मेरे दिमाग में कौंध गये। जेल में पिता बच्चे को साथ क्यों नहीं रख सकता, ये क्यों सबको इतना खटका? क्या बच्चा जेल में भी अपने मां-पिता दोनों के साथ नहीं रह सकता? क्या बच्चों को मां-बाप से खींचकर बालगृह में डाल देने तक ही सरकार की जिम्मेदारी है?

सवाल काल्पनिक अब्बू के बहाने जेल के वास्तविक बच्चों से शुरू होकर जेल के खात्मे तक जाता है, जिस पर सोचा जाना चाहिए। मनीष 29 फरवरी को और अमिता 14 मार्च 2020 को जेल से बाहर आ गए। 22 मार्च की आधी रात से पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। हम घर पर इकट्ठा रहते हुए ये सोचकर कांप जाते थे, कि अगर अब तक ये दोनों बाहर न आये होते तो क्या होता? उस समय जो जेल में थे, उनके बारे में सोचकर रातों की नींद गायब होने लगी थी।

लखनऊ के बहुत सारे साथियों ने आठ महीने के इस सफर में बहुत साथ दिया, भावनात्मक साथ भी दिया। ऐसे साथियों को याद किये बगैर जेल से बाहर आने का सफ़र पूरा हो नहीं सकता। वे इस यात्रा के अनिवार्य हिस्से हैं। हां अमिता और मनीष के ही कुछ राजनीतिक साथियों ने इलाहाबाद में उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन से यह कहकर मना कर दिया कि ‘हमें नहीं पता कि वे क्या करते हैं।’ इसमें बुरा मानने की तो बात नहीं, लेकिन यह सवाल उठाने की बात ज़रूर है कि इस फासीवादी राज्य में किसी सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता की गिरफ्तारी से हम ही क्यों आशंकित हो जाते हैं? इस तरह सोचने की प्रक्रिया ही उलटी है।

अंत में कुछ तकनीकी बातें- किताब में प्रकाशकीय कमियां बहुत अधिक हैं। ऐसा लगता है एडिटिंग का कोई काम नहीं किया गया है। जैसे उन्हें मैटर दिया गया, वैसे ही उन्होंने रख दिया उसे सजाया तक नहीं है। मनीष की किताब में हर चैप्टर का नाम ‘अब्बू की नज़र में जेल’ ही है बस उसे नम्बरों के माध्यम से अलग किया गया है। इसे अलग-अलग हेडिंग दी जा सकती थी। मनीष की डायरी में दो लोगों की भूमिका है, तो अमिता में एक भी नहीं। प्रूफ की गलतियां भी काफी हैं। अमिता के तो कवर पेज पर ही गलती है। दोनों डायरियां एक ही किताब में आती तो और भी अच्छा होता।

जेल डायरी आज के दौर का महत्वपूर्ण साहित्य है, बेशक साहित्यकार इस ओर नज़र डालना पसंद न करें। लेकिन ये जेल साहित्य का नहीं, उनका दुर्भाग्य है। मनीष और अमिता की जेल डायरी इसी महत्वपूर्ण साहित्य को समृद्ध करती है, इस परपंरा को आगे बढ़ाती है।

(सीमा आज़ाद की रिपोर्ट)

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