आज बुद्ध पूर्णिमा है। पूर्णिमा के दिन ही बुद्ध का जन्म हुआ, पूर्णिमा के दिन ही निर्वाण (निब्बान), और पूर्णिमा के ही दिन देहावसान। निब्बान का सरल, सीधा अर्थ उन्होंने बताया था दुःख-ध्वंस या दुःख की समाप्ति। व्यक्तिगत और समष्टिगत दोनों स्तर पर, क्योंकि दोनों एक दूसरे से अलग नहीं। मृत्यु के बाद जीवन, आत्मा, परमात्मा से संबधित सवालों पर बुद्ध चुप्पी साध लेते। उनका कहना था कि ऐसा नहीं कि उनके पास इन प्रश्नों के उत्त्तर नहीं। बस इतना ही कि उनका संबंध दुःख और उसकी समाप्ति के उपायों से है। यही उनकी पहली और आखिरी फ़िक्र है।
बुद्ध ने सबसे खास बात तो यही कही कि ‘अत्त दीपो भव’ (पाली: अप्प दीपो भव)। अपनी रोशनी खुद बनो। मुझ पर निर्भर न करो। मेरी बातें तो चाँद की ओर इशारा करती उंगली की तरह हैं। तुम चाँद की ओर देखो, मेरी उंगली की ओर नहीं। और एक जगह कहा कि जैसे आप किसी नदी को पार करने के लिये एक नौका का इस्तेमाल करते हैं, और दूसरे तट पर पहुँच कर उसे और लोगों के लिये वहीं छोड़ देते हैं, अपने साथ लेकर नहीं घूमते, बस वैसे ही मेरी बातों को लेकर ढोल न बजाएं, उसे देखें, समझें, ठीक लगे तो अपनाएं, वर्ना न अपनाएँ। और यदि देख लें, तो फिर उनको छोड़ भी दें। यह भी कहा कि “तथागत तो केवल सिखाते भर हैं, कोशिश तो आप को ही करनी है”। और बुद्ध ने सजगता की बात कही सतिपट्ठान सुत्त मे। किसी ने उनसे पूछा कि आप मानव हैं या अतिमानव, और उनका जवाब था: “मैं तो बस सजग हूँ; होश में हूँ “। वह एक अनीश्वरवादी, रेशनलिस्ट, परम्पराओं और रूढ़ियों के खिलाफ़ पूरी ऊर्जा के साथ खड़े रहने वाले विलक्षण चिंतक थे। उनका एकमात्र मकसद था दुख को समझना और उससे मानव मन की चेतन और अवचेतन गहराइयों से उसके शूल को पूरी तरह बाहर निकाल देने का तरीका तलाशना।
ज़ैन बौद्ध धर्म की एक लोकप्रिय शाखा है। ज़ेन शब्द संस्कृत के ध्यान से आया है। इससे चीनी भाषा का चान और जापानी भाषा का ज़ेन शब्द आया। बुद्ध की जितनी प्रतिमाएं और तस्वीरें देखें उनमें उन्हें ध्यान मग्न देखेंगें। विपश्यना बौद्ध धर्म का एक विशेष आकर्षण है। किसी जिज्ञासु ने बुद्ध से एक बार पूछा: “आप आखिर करते क्या हैं?”बुद्ध का उत्तर था: “मैं चलता हूँ, उठता बैठता हूँ, खाता हूँ, बातचीत करता हूँ”। “यह तो सभी करते हैं!” उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा। “अवश्य, पर जब मैं बैठता हूँ, तो सिर्फ बैठता हूँ; चलता हूँ तो सिर्फ चलता हूँ। हिलता डुलता नहीं।“ विपस्सना (विपश्यना) की शुरुआत इसी संवाद के साथ हुई बताई जाती है। इसका अर्थ है, गौर से, गहराई से देखना। क्या देखना? देह की, मन की, विचारों कि हरेक गतिविधि को। आज पूरी दुनिया में विपश्यना के हज़ारों केंद्र खुले हुए हैं। इसका अभ्यास करने वालों को इसके क्या परिणाम मिलते हैं, यह तो वही बता सकते हैं।
धार्मिक असहिष्णुता ज़्यादातर धार्मिक पुस्तकों की सत्ता और पवित्रता को लेकर है। हमारे ग्रन्थ और उनके व्याख्याता जो कहते हैं वह सही है, बाकी सब गलत है, यही सोच धार्मिक असहिष्णुता के मूल में है। बुद्ध के गहरे अर्थ में सहिष्णु होने की शिक्षा उनके जीवन के अंतिम वाक्य “अत्त दीपो भव’ से ही स्पष्ट हो जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि किसी पवित्र ग्रन्थ, गुरु, व्यक्तिगत अनुभव की सत्ता को उन्होंने पहले ही नकार दिया। उन्होंने प्रत्यक्ष बोध और अपनी व्यक्तिगत समझ पर जोर दिया। उन्होंने कई बार पहले भी यह स्पष्ट किया था कि जिस तरह एक सुनार सोने को घिस कर, देखकर, हर तरह से परख कर उसकी शुद्धता को स्वीकारता है, बस उसी तरह उनकी शिक्षाओं को अपने रोज़मर्रा के जीवन की कसौटी पर कसा जाए, और तभी स्वीकार किया जाए, जब वे तर्कसंगत और उचित लगें। ऐसा कह कर बुद्ध ने दूसरे ग्रन्थों की, वेदों-उपनिषदों की, गुरुओं की सत्ता को ही चुनौती नहीं दी, खुद की सत्ता को भी एक तरह से नकार दिया। एक सर्वमान्य, सम्यक-सम्बुद्ध व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने खुद की बातें कभी किसी पर थोपने की कोशिश ही नहीं की।
बुद्ध के जीवन का आखिरी वाक्य उनके असाधारण रूप से प्रज्ञाशील होने को पूरी तरह स्थापित कर देता है। आज के समय में जब हर धर्म का अनुयायी सत्य को अपनी जेब में रखने का, उसके अकाट्य होने का दावा करता है, बुद्ध ने खुद लोगों से आग्रह किया कि वे उनकी ही शिक्षाओं को चुनौती दें, उनपर सवाल करें। आज के असहिष्णुता के काल में बुद्ध होना कितना कीमती है, यह सिर्फ उनके अंतिम शब्दों का अर्थ समझ कर ही कोई साफ़ साफ़ देखा जा सकता है। गीता के ‘अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षइष्यामि मा शुचः’ बाइबिल के ‘मेरे पीछे चलने वाले कभी अँधेरे में नहीं पड़ते’, और कुरान की अंतिम सत्यता के बारे में दावे करने वालों और ‘अत्त दीपो भव” के बीच फर्क किसी भी गंभीर अध्येता को तुरंत दिख जाएगा।
उन्होंने ताउम्र यह बताया कि सब कुछ अनित्य है। बुद्ध ने चमत्कार नहीं किए, जबकि अधिकांश धर्म अपने संस्थापक और गुरु की चमत्कार करने की क्षमता का जी भर कर महिमामंडन करते हैं, बुद्ध ने ऐसी कोई सतही बात ही नहीं की। जब बुद्ध की मृत्यु समीप थी और वे साल वन में भूमि पर लेट गए थे, यह कहते हुए कि उनका अंत निकट है, तभी राहुल सहित उनके कई शिष्यों ने विलाप शुरू कर दिया। राहुल बुद्ध का चचेरा भाई था। उसकी दशा देख कर बुद्ध ने कहा कि उसके दुःख को देख कर उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उसने (राहुल ने) उनकी शिक्षा को रत्ती भर भी नहीं समझा है।
बुद्ध के जन्म के बाद असित नाम का एक वृद्ध सन्यासी शुद्धोधन के दरबार में पहुंचा था। शिशु सिद्धार्थ गौतम को देख कर पहले हंसा और फिर रोने लगा। जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बहुत भावुक होकर कहा:“ मैं हंसा इसलिए, क्योंकि यह बच्चा बड़ा होकर सम्यक सम्बुद्ध होगा; और रोया इसलिए क्योंकि जब यह अपनी देशना देगा, मैं जीवित नहीं रहूँगा!” हमारी त्रासदी यह है कि इस देश में बुद्ध हुए, अपनी बातें कहीं, और हम उन्हें सुन भी नहीं पा रहे। ज्यादा से ज्यादा अपने राजनीतिक चातुर्य और दांव पेंच में उन्हें लपेटे ले रहे हैं।
कुछ मार्क्सवादियों ने माना है कि कार्ल मार्क्स और बुद्ध में बहुत समानता है। न सिर्फ सतह पर बल्कि दार्शनिक विमर्श के क्षेत्र में भी वे बहुत हद तक एक-से हैं। गौरतलब है बुद्ध जितने सीधे और स्पष्ट हैं उतने ही क्रांन्तिकारी हैं। असल में स्पष्टता और सीधापन ही वास्तविक क्रांति है। वे जीवन और जगत के सभी मुद्दों को जिस “लौकिक” दृष्टि से हल करते हैं उसमे एक विराट क्रांति के बीज छिपे हैं।
इस बारे में बौद्ध दर्शन के अध्येता संजय जोठे कहते हैं: “आत्मा स्व या आत्म की सनातनता और अमरता का दावा न तो विज्ञान सम्मत है न ही कॉमन सेंस बनाता है। आत्मा और उसकी अमरता सहित परमात्मा का दावा इंसानियत के खिलाफ रचा गया सबसे गहरा षड्यंत्र है”। जोठे का कहना है, ”अनत्ता बुद्ध की केंद्रीय शिक्षा है। और यह विशुद्ध भौतिकवाद है। बुद्ध के लिए शरीर भी पदार्थ है और मन सहित विचार भी पदार्थ है। कोई हवा हवाई आत्मा या परमात्मा नहीं होता। इस अर्थ में बुद्ध का जोड़ लोकायत, चार्वाक और मार्क्स से बनता है”।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर कहते थे कि कितने दुःख की बात है कि जब गौतम बुद्ध जीवित थे, तब मैं नहीं था। टैगोर चाहते थे कि वह बुद्ध से बातचीत कर पाते तो कितना अच्छा होता! सौभाग्य है कि हम उसी धरती पर हैं जहाँ कभी बुद्ध चले, अपनी बातें कहीं; दुर्भाग्य है कि मानवता के उस महानतम कल्याण मित्र ने जो कुछ कहा उसे समझने मे बहुत कम लोगों की रुचि है। हमें रुचि है पूजा-उपासना, अनुगमन और पूजा स्थलों में। इतिहास ने अपने बुद्धों को या तो मार डाला है, या तो उनकी पूजा की है, जो कि वास्तव में उनकी हत्या के सामान ही है, और या ऐसे लोगों के लिए हमारे पास तीसरा तरीका रहा है, उनकी बगल से गुज़र जाना। धीरे से। उनसे नज़रें बचाते हुए।
(चैतन्य नागर का लेख।)
असहिष्णुता के समय में तथागत की देशना
Budhha, Poornima, death, birth,
चैतन्य नागर
आज बुद्ध पूर्णिमा है। पूर्णिमा के दिन ही बुद्ध का जन्म हुआ, पूर्णिमा के दिन ही निर्वाण (निब्बान), और पूर्णिमा के ही दिन देहावसान। निब्बान का सरल, सीधा अर्थ उन्होंने बताया था दुःख-ध्वंस या दुःख की समाप्ति। व्यक्तिगत और समष्टिगत दोनों स्तर पर, क्योंकि दोनों एक दूसरे से अलग नहीं। मृत्यु के बाद जीवन, आत्मा, परमात्मा से संबधित सवालों पर बुद्ध चुप्पी साध लेते। उनका कहना था कि ऐसा नहीं कि उनके पास इन प्रश्नों के उत्त्तर नहीं। बस इतना ही कि उनका संबंध दुःख और उसकी समाप्ति के उपायों से है। यही उनकी पहली और आखिरी फ़िक्र है।
बुद्ध ने सबसे खास बात तो यही कही कि ‘अत्त दीपो भव’ (पाली: अप्प दीपो भव)। अपनी रोशनी खुद बनो। मुझ पर निर्भर न करो। मेरी बातें तो चाँद की ओर इशारा करती उंगली की तरह हैं। तुम चाँद की ओर देखो, मेरी उंगली की ओर नहीं। और एक जगह कहा कि जैसे आप किसी नदी को पार करने के लिये एक नौका का इस्तेमाल करते हैं, और दूसरे तट पर पहुँच कर उसे और लोगों के लिये वहीं छोड़ देते हैं, अपने साथ लेकर नहीं घूमते, बस वैसे ही मेरी बातों को लेकर ढोल न बजाएं, उसे देखें, समझें, ठीक लगे तो अपनाएं, वर्ना न अपनाएँ। और यदि देख लें, तो फिर उनको छोड़ भी दें। यह भी कहा कि “तथागत तो केवल सिखाते भर हैं, कोशिश तो आप को ही करनी है”। और बुद्ध ने सजगता की बात कही सतिपट्ठान सुत्त मे। किसी ने उनसे पूछा कि आप मानव हैं या अतिमानव, और उनका जवाब था: “मैं तो बस सजग हूँ; होश में हूँ “। वह एक अनीश्वरवादी, रेशनलिस्ट, परम्पराओं और रूढ़ियों के खिलाफ़ पूरी ऊर्जा के साथ खड़े रहने वाले विलक्षण चिंतक थे। उनका एकमात्र मकसद था दुख को समझना और उससे मानव मन की चेतन और अवचेतन गहराइयों से उसके शूल को पूरी तरह बाहर निकाल देने का तरीका तलाशना।
ज़ैन बौद्ध धर्म की एक लोकप्रिय शाखा है। ज़ेन शब्द संस्कृत के ध्यान से आया है। इससे चीनी भाषा का चान और जापानी भाषा का ज़ेन शब्द आया। बुद्ध की जितनी प्रतिमाएं और तस्वीरें देखें उनमें उन्हें ध्यान मग्न देखेंगें। विपश्यना बौद्ध धर्म का एक विशेष आकर्षण है। किसी जिज्ञासु ने बुद्ध से एक बार पूछा: “आप आखिर करते क्या हैं?”बुद्ध का उत्तर था: “मैं चलता हूँ, उठता बैठता हूँ, खाता हूँ, बातचीत करता हूँ”। “यह तो सभी करते हैं!” उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा। “अवश्य, पर जब मैं बैठता हूँ, तो सिर्फ बैठता हूँ; चलता हूँ तो सिर्फ चलता हूँ। हिलता डुलता नहीं।“ विपस्सना (विपश्यना) की शुरुआत इसी संवाद के साथ हुई बताई जाती है। इसका अर्थ है, गौर से, गहराई से देखना। क्या देखना? देह की, मन की, विचारों कि हरेक गतिविधि को। आज पूरी दुनिया में विपश्यना के हज़ारों केंद्र खुले हुए हैं। इसका अभ्यास करने वालों को इसके क्या परिणाम मिलते हैं, यह तो वही बता सकते हैं।
धार्मिक असहिष्णुता ज़्यादातर धार्मिक पुस्तकों की सत्ता और पवित्रता को लेकर है। हमारे ग्रन्थ और उनके व्याख्याता जो कहते हैं वह सही है, बाकी सब गलत है, यही सोच धार्मिक असहिष्णुता के मूल में है। बुद्ध के गहरे अर्थ में सहिष्णु होने की शिक्षा उनके जीवन के अंतिम वाक्य “अत्त दीपो भव’ से ही स्पष्ट हो जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि किसी पवित्र ग्रन्थ, गुरु, व्यक्तिगत अनुभव की सत्ता को उन्होंने पहले ही नकार दिया। उन्होंने प्रत्यक्ष बोध और अपनी व्यक्तिगत समझ पर जोर दिया। उन्होंने कई बार पहले भी यह स्पष्ट किया था कि जिस तरह एक सुनार सोने को घिस कर, देखकर, हर तरह से परख कर उसकी शुद्धता को स्वीकारता है, बस उसी तरह उनकी शिक्षाओं को अपने रोज़मर्रा के जीवन की कसौटी पर कसा जाए, और तभी स्वीकार किया जाए, जब वे तर्कसंगत और उचित लगें। ऐसा कह कर बुद्ध ने दूसरे ग्रन्थों की, वेदों-उपनिषदों की, गुरुओं की सत्ता को ही चुनौती नहीं दी, खुद की सत्ता को भी एक तरह से नकार दिया। एक सर्वमान्य, सम्यक-सम्बुद्ध व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने खुद की बातें कभी किसी पर थोपने की कोशिश ही नहीं की।
बुद्ध के जीवन का आखिरी वाक्य उनके असाधारण रूप से प्रज्ञाशील होने को पूरी तरह स्थापित कर देता है। आज के समय में जब हर धर्म का अनुयायी सत्य को अपनी जेब में रखने का, उसके अकाट्य होने का दावा करता है, बुद्ध ने खुद लोगों से आग्रह किया कि वे उनकी ही शिक्षाओं को चुनौती दें, उनपर सवाल करें। आज के असहिष्णुता के काल में बुद्ध होना कितना कीमती है, यह सिर्फ उनके अंतिम शब्दों का अर्थ समझ कर ही कोई साफ़ साफ़ देखा जा सकता है। गीता के ‘अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षइष्यामि मा शुचः’ बाइबिल के ‘मेरे पीछे चलने वाले कभी अँधेरे में नहीं पड़ते’, और कुरान की अंतिम सत्यता के बारे में दावे करने वालों और ‘अत्त दीपो भव” के बीच फर्क किसी भी गंभीर अध्येता को तुरंत दिख जाएगा।
उन्होंने ताउम्र यह बताया कि सब कुछ अनित्य है। बुद्ध ने चमत्कार नहीं किए, जबकि अधिकांश धर्म अपने संस्थापक और गुरु की चमत्कार करने की क्षमता का जी भर कर महिमामंडन करते हैं, बुद्ध ने ऐसी कोई सतही बात ही नहीं की। जब बुद्ध की मृत्यु समीप थी और वे साल वन में भूमि पर लेट गए थे, यह कहते हुए कि उनका अंत निकट है, तभी राहुल सहित उनके कई शिष्यों ने विलाप शुरू कर दिया। राहुल बुद्ध का चचेरा भाई था। उसकी दशा देख कर बुद्ध ने कहा कि उसके दुःख को देख कर उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उसने (राहुल ने) उनकी शिक्षा को रत्ती भर भी नहीं समझा है।
बुद्ध के जन्म के बाद असित नाम का एक वृद्ध सन्यासी शुद्धोधन के दरबार में पहुंचा था। शिशु सिद्धार्थ गौतम को देख कर पहले हंसा और फिर रोने लगा। जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बहुत भावुक होकर कहा:“ मैं हंसा इसलिए, क्योंकि यह बच्चा बड़ा होकर सम्यक सम्बुद्ध होगा; और रोया इसलिए क्योंकि जब यह अपनी देशना देगा, मैं जीवित नहीं रहूँगा!” हमारी त्रासदी यह है कि इस देश में बुद्ध हुए, अपनी बातें कहीं, और हम उन्हें सुन भी नहीं पा रहे। ज्यादा से ज्यादा अपने राजनीतिक चातुर्य और दांव पेंच में उन्हें लपेटे ले रहे हैं।
कुछ मार्क्सवादियों ने माना है कि कार्ल मार्क्स और बुद्ध में बहुत समानता है। न सिर्फ सतह पर बल्कि दार्शनिक विमर्श के क्षेत्र में भी वे बहुत हद तक एक-से हैं। गौरतलब है बुद्ध जितने सीधे और स्पष्ट हैं उतने ही क्रांन्तिकारी हैं। असल में स्पष्टता और सीधापन ही वास्तविक क्रांति है। वे जीवन और जगत के सभी मुद्दों को जिस “लौकिक” दृष्टि से हल करते हैं उसमे एक विराट क्रांति के बीज छिपे हैं।
इस बारे में बौद्ध दर्शन के अध्येता संजय जोठे कहते हैं: “आत्मा स्व या आत्म की सनातनता और अमरता का दावा न तो विज्ञान सम्मत है न ही कॉमन सेंस बनाता है। आत्मा और उसकी अमरता सहित परमात्मा का दावा इंसानियत के खिलाफ रचा गया सबसे गहरा षड्यंत्र है”। जोठे का कहना है, ”अनत्ता बुद्ध की केंद्रीय शिक्षा है। और यह विशुद्ध भौतिकवाद है। बुद्ध के लिए शरीर भी पदार्थ है और मन सहित विचार भी पदार्थ है। कोई हवा हवाई आत्मा या परमात्मा नहीं होता। इस अर्थ में बुद्ध का जोड़ लोकायत, चार्वाक और मार्क्स से बनता है”।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर कहते थे कि कितने दुःख की बात है कि जब गौतम बुद्ध जीवित थे, तब मैं नहीं था। टैगोर चाहते थे कि वह बुद्ध से बातचीत कर पाते तो कितना अच्छा होता! सौभाग्य है कि हम उसी धरती पर हैं जहाँ कभी बुद्ध चले, अपनी बातें कहीं; दुर्भाग्य है कि मानवता के उस महानतम कल्याण मित्र ने जो कुछ कहा उसे समझने मे बहुत कम लोगों की रुचि है। हमें रुचि है पूजा-उपासना, अनुगमन और पूजा स्थलों में। इतिहास ने अपने बुद्धों को या तो मार डाला है, या तो उनकी पूजा की है, जो कि वास्तव में उनकी हत्या के सामान ही है, और या ऐसे लोगों के लिए हमारे पास तीसरा तरीका रहा है, उनकी बगल से गुज़र जाना। धीरे से। उनसे नज़रें बचाते हुए।
(चैतन्य नागर का लेख।)
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