Thursday, April 18, 2024

शहादत सप्ताह: युगों तक प्रासंगिक बने रहेंगे चंद्रशेखर

चंदू को जानना युवा पीढ़ी के लिए बेहद जरूरी है। वे छात्र राजनीति की क्रांतिकारी धारा के निर्माताओं में से एक हैं और इसी धारा की छात्र राजनीति के दुर्लभ उत्पाद भी हैं। वे बेहतर दुनिया की इच्छा रखने वाले युवाओं की क्या करें क्या न करें वाली स्थिति का समाधान हैं । चंदू का जीवन ही चंदू के विचारों की अभिव्यक्ति है । चंदू के यहाँ कथनी-करनी का भेद नहीं है। जब कभी विचारों का संकट पैदा होगा या विचार और कर्म के तालमेल की समस्या आएगी, चंदू याद किये जाएंगे ।

हमने समाज से बहुत कुछ लिया है, उसे समाज को लौटाना हमारा दायित्व है – यह हमारे समय में हाशिये का विचार है। पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव बढ़ने के साथ-साथ ऐसे विचारों के गायब होने की प्रक्रिया तेज होती जाती है। हमारे देश में नब्बे का दशक ऐसे ही विचारों के विलोप की प्रक्रिया का दशक था। वह दशक बीत गया बल्कि नयी सदी का भी एक दशक बीत गया है । ऐसे विचार हाशिये पर होते हुए भी आज तक मिटे नहीं हैं  ऐसे ही विचारों के प्रभाव से परिवर्तन कामी शक्तियां निर्मित होती रहती हैं ।

सामान्यतः यह निर्माण प्रक्रिया धीमी होती है फिर भी शोषण और अन्याय आधारित व्यवस्था के झंडाबरदार इससे बुरी तरह भयाक्रांत रहते हैं । प्रतिकूल समय में ऐसे विचारों को जिंदा रखने व उसे स्थापित करने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ता है । ईमानदारी से इस तरह के संघर्ष का संकल्प ले लेने के बाद कोई और विकल्प नहीं बचता । यह खतरे उठाने का संकल्प होता है । कहीं कोई सुविधा नहीं बचती । चंदू ने पूरे होशो-हवास में असुविधा का रास्ता चुना था ।

चंद्रशेखर प्रसाद उर्फ चंद्रशेखर, जिन्हें प्यार से चंदू कहा जाता था का जन्म 20 सितम्बर 1964 को सिवान जिला मुख्यालय से 2 किमी दूर बिंदुसार गाँव में हुआ था। वे आठ वर्ष के थे जब उनके पिता जीवन सिंह का देहांत हो गया था। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन माँ कौशल्या देवी चाहती थीं कि इकलौते बेटे चंदू की पढ़ाई लिखाई नहीं रूके । चंद्रशेखर ने बारहवीं तक की पढ़ाई सैनिक स्कूल, तिलैया से की। बाद के दिनों में वे नेशनल डिफेंस एकेडमी, पुणे में भर्ती हुए। चंदू ने जो विचार और मिजाज पाया था वह सैन्य प्रशिक्षण के माहौल के अनुकूल नहीं था। दो साल बाद उन्होंने एनडीए छोड़ दिया। पटना आ गये। यहाँ पटना विश्वविद्यालय में वे प्रवेश का प्रयास कर रहे थे ।

उन्हीं दिनों 15 अप्रैल 1983 को उन्होंने अपनी माँ को एक पत्र लिखा था। यह पत्र चंदू के संघर्ष, उनकी वैचारिक मजबूती और बेहतर दुनिया के लिए उनकी छटपटाहट को प्रकट करता है, इसलिए ऐतिहासिक महत्व का है । पत्र की शुरूआत में चंदू ने एनडीए छोड़ने के बाद की माँ की चिंता को संबोधित किया है । चंदू ने उन्हें  150 रुपये  के दो ट्यूशन पढ़ाने की सूचना दी है ताकि उनकी माँ आर्थिक चिन्ता से कुछ मुक्त महसूस कर सकें ।

पटना विश्वविद्यालय में सत्र शुरू हो जाने के कारण उस सत्र में प्रवेश की संभावना के क्षीण होने लेकिन प्रयास जारी रखने की सूचना भी उन्होंने अपनी माँ को दी है । लेकिन बाद में यह पत्र सामाजिक चिंताओं पर केन्द्रित हो जाता है और तीव्र से तीव्र तम होता चला जाता है । इस पत्र में उन्होंने लिखा है- ‘मुझे इस सामाजिक व्यवस्था से आंतरिक दुश्मनी है क्योंकि मैंने इसकी दी हुई प्रताड़नाओं को भोगा है और तुम्हें भी, अपनी माँ को घुटते हुए देख रहा हूँ । इस व्यवस्था ने हमें पैंतीस साल में कुछ नहीं दिया है सिवाय एक मजबूत बुर्जुआ वर्ग के जो हमें और भी नोच खसोट रहा है ।

हमको किसी भी प्रकार की सामाजिक आर्थिक राजनैतिक सुरक्षा नहीं दी गई है । अगर कोई कमजोर को मार देता है तो सब आँख मूंद लेते हैं परंतु किसी मजबूत आदमी को मार देने पर हंगामा हो जाता है । आखिर हमें अपना संवैधानिक अधिकार भी तो नहीं मिल रहा । आजादी के लिए हम यूँ ही नहीं लड़े थे । हमने चाहा था एक देश, जहाँ सब सुखी हों । क्या यही वो सुख है ? ”  पत्र के अंत मे उन्होंने लिखा है – ‘शायद तुम भी किसी दिन गोर्की के उपन्यास माँ की कैरेक्टर बनो और मैं तुम्हारा बेटा उसका नायक जो कभी भी सड़ी हुई व्यवस्था से समझौता नहीं करता ।”

पटना विश्वविद्यालय उनकी वामपंथी छात्र राजनीति से जुड़ाव का पहला गवाह बना। एआईएसएफ से अपनी छात्र राजनीति शुरू करने वाले और इस संगठन के राज्य उपाध्यक्ष के पद तक पहुंचने वाले चंद्रशेखर का आइसा के साथ आना एक ऐसी घटना है जिसे समझा जाना बहुत जरूरी है । एआईएसएफ और एसएफआई जैसे वामपंथी छात्र संगठन अपने वामपंथी दायित्वों से दूर जाने लगे थे । सिद्धांतों पर बहस करने मात्र से वाम राजनीति नहीं हो सकती ।

अपने आदर्श कम्युनिस्ट पार्टियों भाकपा और माकपा की तरह इनकी कथनी और करनी में आए फर्क को चंदू ने पहचाना और उन्होंने बतौर एक ईमानदार संगठन आइसा की पहचान की । इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि सीपीआई के कम्युनिस्ट छद्म को समझ पाने के बाद उन्होंने भाकपा (माले) को ईमानदार कम्युनिस्ट ताकत के बतौर पहचाना । यह घटना बताती है कि किसी कम्युनिस्ट संगठन में काम करते हुए भी अपनी आँखों और दिमाग को खोलकर रखना कितना जरूरी होता है। सामान्यतः किसी कम्युनिस्ट पार्टी में कार्य करते हुए उसकी नीतियों से असहमत होना कठिन होता है । असहमतियों के स्वागत की संस्कृति यदि उस कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं ।

कम्युनिस्ट राजनीति के बुनियादी कार्यक्रम के प्रति कार्यकर्ताओं की आस्था के कारण वे पार्टी के भीतर अप्रिय स्थिति से बचना चाहते हैं । उन्हें लगता है कि ऐसी स्थिति कम्युनिस्ट कार्यक्रम को कमजोर बनाएगी-हालाँकि यह एक खतरनाक भ्रम मात्र होता है । ऐसी स्थिति खास तौर पर तब बनती है जब देश में कम्युनिस्ट राजनीति मजबूत स्थिति में नहीं हो यानी वह अपनी स्वीकृति के लिए जूझ रही हो। ठीक इससे उलट स्थिति यह भी हो सकती है कि जब कोई कम्युनिस्ट पार्टी मजबूत स्थिति में हो तो उसके कार्यकर्ता पार्टी के गलत लाइन के खिलाफ जाने का साहस आसानी नहीं कर पाएं । लेकिन इतिहास में कम्युनिस्ट राजनीति में जब कभी कहीं पार्टी के वैचारिक भटकाव के खिलाफ किसी ने मुखर होकर ठोस निर्णय लिया है, परिणाम बेहतर आया है ।

जेएनयू में जब चंद्रशेखर आए थे तब आइसा वहाँ बना नहीं था। यह आइसा के निर्माण का दौर था। चंद्रशेखर में संगठन विस्तार करने की भारी क्षमता थी। तपस रंजन ने अपने आलेख जेएनयू में चंदू की राजनीति : तब और अब में, जब वह खुद एसएफआई में थे, और एसएफआई की नकारात्मक राजनीति से उनमें और उनके संगठन के कई अन्य छात्र नेताओं में निराशा थी, उन दिनों को याद करते हुए लिखा है, ’इस पूरे समय चंद्रशेखर हमारे साथ गहरा राजनीतिक संवाद बनाए हुए थे । मेरे सवाल एसएफआई में मेरे प्रशिक्षण के आधार पर ही होते थे लेकिन हंसमुख चंदू ने बड़े धैर्य के साथ हममें आइसा के जुझारू और रचनात्मक प्रयोगों के प्रति विश्वास पैदा किया।” इसी आलेख में तपस ने लिखा है- ‘आइसा के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं के दृढ़निश्चय ने कैंपस के तमाम छात्रों के साथ संवाद बना लिया और मेरे साथ भी । इसके बाद चंदू ही थे जो मुझे और कई दूसरे लोगों को उनकी राजनीतिक बहस हल करके आइसा में ले आए ।”

आइसा ने जेएनयू में अपने निर्माण के कुछ वर्षों बाद ही वहां के छात्रसंघ में अपनी जगह बना ली। पारंपरिक रूप से एसएफआई का गढ़ रहे जेएनयू में आइसा ने अपने क्रांतिकारी रूझान व सामाजिक न्याय के प्रति अपनी आस्था के बदौलत यह जगह हासिल की थी । यह एसएफआई की सुविधापरस्त राजनीति का जवाब भी था । चंद्रशेखर 1991-92 और 1992-93 छात्रसंघ चुनाव में आइसा से महासचिव पद के उम्मीदवार थे । लेकिन आइसा और उनकी पहली जीत 1993-94 छात्रसंघ चुनाव में हुई जब वे उपाध्यक्ष चुने गए थे। 1994-95 व फिर 1995-96 में वे इस छात्र संघ के अध्यक्ष रहे ।

इस दौरान इन्होंने अपनी चिंताओं से मुँह नहीं मोड़ा बल्कि इन्होंने इस अवसर का उपयोग अपने बेहतर राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए किया जिसके माध्यम से वे खुद को आगे की लड़ाई के लिए तैयार कर रहे थे । यह प्रशिक्षण जेएनयू और इससे बाहर के संघर्षों से मिल रहा था । इसी बीच 1995 मे संयुक्त राष्ट्र द्वारा दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल में आयोजित इंटरनेशनल यूथ कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला । यहाँ उन्होंने अमेरिका और पश्चिमी देशों की तरफदारी करने वाले प्रस्तावों के विरोध में तीसरी दुनिया के छात्रों को संगठित करने का प्रयास किया ।

अंततः उन्होंने तीसरी दुनिया के अपने कुछ मित्रों के साथ उस सम्मेलन का बहिष्कार किया । बाद में कोरियाई प्रशासन के कोप का खतरा उठाते हुए भी उन्होंने वहाँ के उग्र विचारों वाले वामपंथी छात्रनेताओं से सम्पर्क किया । ‘कोरिया का एकीकरण’ विषय पर छात्र-युवाओं की एक बड़ी रैली आयोजित की गयी जिसे चंदू ने संबोधित किया । इस प्रसंग का उल्लेख दीपंकर भट्टाचार्य ने अपने आलेख ‘Crossing the Barriers’ में किया है । गलत का विरोध करना उनका चरित्र था ।

गोपाल प्रधान (चंदू के साथी और मौजूदा समय में दिल्ली में प्रोफेसर) ने चन्द्रशेखर के एमफिल लघु शोध प्रबंध- ‘लोकप्रिय संस्कृति का द्वंदात्मक समाजशास्त्र – संदर्भ : बिदेसिया’ को किताब के रूप में संपादित करते हुए एक घटना का जिक्र किया है जिसे गलत को बर्दाश्त न कर पाने वाले उनके चरित्र की पुष्टि होती है – ‘दिल्ली की बसों में छेड़खानी आम बात है । 670 के किसी बस में कंडक्टर किसी महिला के साथ बदतमीजी कर रहा था । चंदू हत्थे से उखड़ गये । बस वालों ने बस मार्कंडेय सिंह (तत्कालीन गवर्नर, दिल्ली)  के अहाते में रोकी । वहाँ के सुरक्षाकर्मियों के साथ मिलकर कंडक्टर-ड्राइवर ने चंदू को पीटा । कई घंटों की कोशिश के बाद एक पुलिस जिप्सी में शिकायत दर्ज हो सकी लेकिन हुआ कुछ नहीं ।”

जेएनयू की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के बाद वे अपने गृह-क्षेत्र सिवान लौटे । सिवान उन दिनों सामंती ताकतों का गढ़ हुआ करता था । इन सामंती ताकतों के शोषण के खिलाफ इस जिले में भाकपा (माले) का संघर्ष जारी था । भाकपा (माले) का राजनीतिक पार्टी के तौर पर इस जिले में जनाधार व्यापक होता जा रहा था । यह वहाँ से जनता दल के बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन को भयभीत कर रहा था । इस स्थिति में शहाबुद्दीन ने खुद को सामंतों के मसीहा के रूप में प्रस्तुत किया । शहाबुद्दीन का सिवान में आतंक था । दिनदहाड़े हत्या करवा देने वाले शहाबुद्दीन का कोई बाल भी बाँका नहीं कर पाता था ।

उसके खिलाफ एक व्यक्ति भी, बतौर गवाह पेश होने के लिए तैयार नहीं होता था । इसी शहाबुद्दीन के साथ  सामंतों का गठजोड़ हुआ । शहाबुद्दीन ने उन्हें यकीन दिलाया कि भाकपा (माले) से उन्हें सिर्फ वही निजात दिला सकता है । इसके बाद भाकपा (माले) के प्रतिबद्ध नेताओं की हत्यायों का सिलसिला सिवान में शुरू हो गया था। सिवान लौटने के अपने फैसले से पूर्व चंदू को वहाँ के हालात की पर्याप्त जानकारी थी । सिवान में भाकपा (माले) के कार्यकर्ताओं पर शहाबुद्दीन-सामंती गठजोड़ के सुनियोजित हमलों पर उन्होंने कुछ आलेख भी लिखे थे । सिवान में इस जुझारू युवा ने कुछ ही दिनों में जबरदस्त लोकप्रियता हासिल कर ली थी । सामंतों के शोषण और दबंगों के आतंक से मुक्ति का भाकपा (माले) का एजेंडा, चंदू निर्भीक होकर आम जनता के बीच ले जा रहे थे ।

वर्षों से घुट रही सिवान की आम जनता के लिए चंदू आशा की किरण बन कर आए थे । इसलिए निहत्थे चंदू भी शहाबुद्दीन और अन्य सामंतों के लिए भय का विषय हो गये थे । 2 अप्रैल 1997 को भाकपा (माले) ने बिहार बंद का आह्वान किया था । इसी सिलसिले में 31 मार्च 1997 को सिवान के जेपी चौक पर चंदू एक नुक्कड़ सभा को संबोधित कर रहे थे । तभी मोटर साइकिल सवार कुछ लोगों ने उन पर और भीड़ पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दी । यह दिन दहाड़े किया गया जघन्य और कायरतापूर्ण कृत्य था । इस हमले में चंद्रशेखर के अलावा माले नेता श्यामनारायण यादव और भुट्टन मियाँ की मौत हो गयी थी ।

वहाँ मौजूद लोगों ने हत्यारों की पहचान शहाबुद्दीन के गुर्गों के रूप में की थी । इस घटना के बाद देश भर में हुए विरोध-प्रदर्शनों और उसके दमन के प्रयास का भी अपना एक ऐतिहासिक महत्व है । इस घटना के बाद चंदू का अपने माँ को लिखे पत्र का गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ की चर्चा वाला अंश तब अक्षरशः सच साबित हो गया जब चंदू की माँ बेटे के हत्यारों को फाँसी दिलाने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शनों में नेतृत्वकारी भूमिका में आ गयीं । एक और प्रसंग चंदू की माँ की गरिमा को बहुत बढ़ा देता है । तात्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार ने तत्काल राहत के बतौर चंदू की माँ को एक लाख रूपये का चेक भेजा था । चंदू की माँ ने वह चेक लौटाते हुए प्रधानमंत्री को लिखा- ‘इस एवज में कोई भी राशि लेना मेरे लिए अपमानजनक है ।”

इसी पत्र में उन्होंने लिखा है- ‘मुझे यह जानकर और भी दुख हुआ कि इसकी सिफारिश आपके गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त ने की थी, वे उस पार्टी के महासचिव रह चुके हैं जहाँ से मेरे बेटे ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी। मुझ अनपढ़ गंवार माँ के सामने आज यह बात और भी साफ हो गयी कि मेरे बेटे ने बहुत जल्दी ही उनकी पार्टी क्यों छोड़ दी। इस पत्र के माध्यम से मैं आपके साथ-साथ उन पर भी लानतें भेज रही हूँ जिन्होंने मेरे साथ यह घिनौना मजाक किया है और मेरे बेटे के जान की ऐसी कीमत लगायी है । एक ऐसी माँ के लिए जिसका इतना बड़ा और इकलौता बेटा मार दिया गया हो- और जो यह भी जानती हो कि उसका कातिल कौन है – एक मात्र काम जो हो सकता है,वह यह है कि कातिल को सजा मिले । मेरा मन तभी शांत होगा महोदय । ” इस पत्र को पढ़ते हुए लगता है कि चंदू के ‘चंदू’ होने में उनकी माँ कौशल्या देवी के विचारों और व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी । यह दीगर है कि शहाबुद्दीन को आज तक सजा नहीं मिल सकी है ।

जेएनयू को क्रांतिकारी वाम राजनीति का पाठशाला माना जाता है । जेएनयू के किले में क्रांति की बात करना अनुकूल है और अक्सर लोगों को अपना दोहरा चरित्र आनंद देता है । लेकिन चंदू ने यह साबित किया कि वे दोहरेपन के खिलाफ थे । वे भविष्य में पूछे जाने वाले सवालों की कल्पना कर पा रहे थे, और भविष्य में इन सवालों के आगे शर्मिंदा नहीं होना चाहते थे । वे कहते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ हमसे सवाल करेंगी कि तब आप कहाँ थे, जब रोज के रोज लोग मारे जा रहे थे ?

तब आप कहाँ थे, जब कमजोरों की आवाजों को कुचला जा रहा था ? जेएनयू में अपनी महात्वाकांक्षा को स्पष्ट करते हुए चंदू ने कहा था- ‘हम अगर कहीं जाएँगे तो हमारे कंधे पर उन दबी हुई आवाज की शक्ति होगी जिसे डिफेंड करने की बात हम सड़कों पर करते हैं । इसलिए अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा होगी तो भगत सिंह की तरह शहीद होने की महत्वाकांक्षा होगी न कि जेनयू से इलेक्शन में काट-जोड़ कर जीतने या हारने की महत्वाकांक्षा होगी।” तब यह बात कई लोगों को अविश्वसनीय लगी होगी ।

कई लोगों के लिए सिवान एक दुःस्वप्न है । चंदू सिवान के लिए सुंदर सपने देखा करते थे । उनके लिए सिवान, सिवान नहीं था- सिवान एक जिम्मेदारी थी जिससे वे मुँह नहीं मोड़ सकते थे । धीरेन्द्र झा (आइसा के तत्कालीन नेता) ने अपने आलेख ‘नई पीढ़ी के प्रकाश स्तंभ थे कॉ. चंदू’ में तात्कालीन माले महासचिव विनोद मिश्र के उस सवाल की चर्चा की है जो उन्होंने पटना के पार्टी कार्यालय में धीरेन्द्र से चंदू की उपस्थिति में पूछा था । सवाल था- चंदू को युवा संगठन की बागडोर देना कैसा रहेगा?

धीरेन्द्र ने लिखा है कि उनके कुछ बोलने से पहले ही चंदू बोल पड़े- ‘मुझे अब सिवान में ही रहने दीजिए । किसान संघर्षों और ग्रामीण गरीबों की राजनीतिक दावेदारी के स्थापित हो रहे नए-नए इतिहास से अभी तो मेरा तादम्य स्थापित होना शुरू ही हुआ है । मैंने सीपीआई के जमाने में भी ऐसा सपना पाला था, लेकिन सीपीआई के सत्ता में समाहित होने की प्रक्रिया के चलते किसान संघर्षों से उसके विलगाव को हमने करीब से देखा है । इसलिए मुझे इतिहास ने जो यह अवसर प्रदान किया है उसमें ही रमने दीजिए ।”  ऐसी थी चंदू की प्रतिबद्धता। जबकि दिल्ली तब भी सुविधाजनक शहर हुआ करता था । जेएनयू का कैंपस तब भी खूबसूरत था । बिहार तक रेल तब भी तय घंटे से कई घंटे देरी से पहुँचती थी । बिजली तब भी वहाँ घंटों गायब रहती थी । एक सिरफिरा शासक तब भी वहाँ राज करता था । वे कहते थे – गाँव के लोग खुश होंगे कि अपना लड़का पढ़-लिख कर वापस आया है ।

चंदू का सपना शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति का सपना था । सड़ी हुई व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का सपना था । शोषकों, अत्याचारियों को जनता की चेतना के बल पर परास्त करने का सपना था । कुल मिला कर एक सुंदर दुनिया का सपना था । ऐसे सपने हम सबने देखे हैं । इस तरह इन सपनों में कुछ खास नहीं है । खास है इसे पूरा करने का तरीका । खास है उस रास्ते का चुना जाना जिस रास्ते पर पता नहीं होता कि कब सीना छलनी हो जाए । खास है वह साहस जो चंदू में था ।

चंद्रशेखर इस तरह युगों तक प्रासंगिक बने रहेंगे । क्रांति के सपने बेचने वाले दोहरे चरित्र के लोगों पर हँसते रहेंगे । हंसेंगे नहीं बस थोड़ा सा मुस्करा देंगे । चंद्रशेखर की मुस्कान बहुत आकर्षक थी, बहुत अर्थपूर्ण । पोस्टरों से निकल कर चंदू लेकिन यह पूछने नहीं आएँगे कि तुम सब जो यह नारा देते हो कि मेरे सपने को मंजिल तक पहुँचाओगे, वह पता है कैसे पहुँचा सकोगे ? लेकिन जब कभी चंद्रशेखर के सपने पूरा करने के संकल्प पर ईमानदारी से विचार किया जाएगा तो वह रास्ता भी दिख जाएगा । चंदू ने सिर्फ सपने नहीं देखे थे,  उसे पूरा करने के रास्ते भी तैयार किये थे । छेनी-हथोड़ों से पथरीली मिट्टियों को तराश कर तैयार किये गये उन रास्तों पर लंबे चुभने वाले घास जरूर उग आए हैं ।

(आत्मसाक्षी ब्लॉग से साभार।)

संदर्भ स्रोत-

  1. अजय भारद्वाज के द्वारा बनायी गयी चंदू पर केन्द्रित डाक्युमेंट्री- एक मिनट का मौन । 
  2. आइसा का केन्द्रीय मुखपत्र- ‘नई पीढ़ी’ का मार्च 2008 का अंक । 

3. चंदू के द्वारा जेएनयू के राजनीति विज्ञान विभाग में जमा कराए गए एम.फिल. लघु शोध प्रबंध – ‘लोकप्रिय संस्कृति का द्वंदात्मक समाजशास्त्र – संदर्भ : बिदेसिया’, इसे किताब के रूप मे गोपाल प्रधान ने संपादित किया है ।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...