विख्यात समाजशास्त्री नन्दिनी सुन्दर बस्तर की गंभीर अध्येता हैं। वह बस्तर के सघन जंगली इलाकों में बहुत पहले से आती-जाती रही हैं। जब अखबारों के रिपोर्टर भी जंगल के इलाके में दाखिल होने से बचते रहे, एक जिज्ञासु समाजशास्त्री के रूप में नन्दिनी ने जोखिम लेकर जंगल के सुदूर इलाकों में जाना शुरू किया। उन्होंने वहां के समाज और संकट के विविध पहलुओं का गभीर अध्ययन किया। बस्तर पर उनकी पहली पुस्तक-‘गुंडा धूर की तलाश में (1854-1996)’ बरसों पहले आई थी।
उसमें बस्तर के औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास का आकलन है। मैंने वह किताब नहीं पढ़ी है। लेकिन ‘दावानल’ को पढ़ने के बाद पूरे भरोसे से कह सकता हूं कि नन्दिनी ने बस्तर को सिर्फ देखा ही नहीं है, समझा है और अपने अंदर से जीया भी है। यह किताब मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गई और The Burning Forest:War Against The Maoists शीर्षक से छपी थी। ‘दावानल माओवाद से जंग’ इसका हिंदी अनुवाद है। इसे दो योग्य पत्रकारों-जितेन्द्र कुमार और सत्यप्रकाश चौधरी ने किया है।
बस्तर के साथ नन्दिनी सुन्दर का लगाव किताबी नहीं है, सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए नहीं है, वह सोच और संवेदना के गलियारों से गुजरते हुए उनके अंतस तक जा पहुंचा है। इसीलिए यह किताब जितनी सूचनात्मक व तथ्यात्मक है, उतनी ही विश्लेषणात्मक और संवेदनात्मक है। नन्दिनी का विश्लेषण तथ्यों और आँकड़ों से भरे विश्वविद्यालयीय शोध-प्रबंधों जैसा नहीं है। यह तथ्यात्मक के साथ बेहद संवेदनात्मक है। यह न राज्य का पक्ष लेता है और न माओवादियों का। यह बस्तर और उसके लोगों का पक्ष लेता है।
यह बात किताब की प्रस्तावना की इन पंक्तियों से भी समझी जा सकती हैः ‘यह किताब माओवादी आंदोलन को लेकर सरकार की सैन्यवादी समझ जो इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हुए हर हाल में कुचलने की पक्षधर है तथा माओवादियों और उनके हमदर्दों, जो मानते हैं कि क्रांति ही एकमात्र समाधान है, दोनों के खिलाफ लिखी गई है। यह उन सभी के लिए लिखी गई है, जो भारतीय राज्य की हेकड़ी और उसके किसी सजा से ऊपर होने से नफरत करते हैं, जो माओवादियों को उनकी कुर्बानियों के लिए सराहते तो हैं लेकिन उनके रास्ते की अक्लमंदी से असहमत हैं, और जो यह मानते हैं कि हिंसा, भले ही वह अन्याय के खिलाफ हो, नृशंसता और भ्रष्टाचार में पतित हो सकती है।
यह किताब उन सभी आम आदिवासियों के लिए लिखी गई है जिन्हें मैं जानती हूं, जो जटिल सीमाबद्धताओं के बीच मुश्किल नैतिक विकल्प चुनते हैं और उनमें से कई तो सारी सीमाओं से परे इतने बड़े नायक हैं कि मेरे लिए यह कल्पना कर पाना भी असम्भव है। आज के हालात में उनको महज जीने के लिए महामानवीय प्रयास करने होते हैं। यह किताब इसलिए लिखी गई है कि इंसाफ की गैरमौजूदगी में कम से कम सच्चाई तो दर्ज रहे।’(पुस्तक की भूमिका से)।
कुल 358 पृष्ठों की किताब में तीन भाग या खंड हैं। पहले भाग का शीर्षक है-प्रतिरोध का परिदृश्य। इसमें चार अध्याय हैं। इसी तरह दूसरे भाग में छह अध्याय हैं और इसका शीर्षक है-गृहयुद्ध। तीसरे और आख़िरी भाग का शीर्षक है-कठघरे में संस्थान। इससे पहले साढ़े तीन पृष्ठों की बहुत ज़रूरी प्रस्तावना हैं। प्रस्तावना का शीर्षक है – दंडकारण्य, वनवास का वन। इसके बाद शुरू होता है पहले भाग-‘प्रतिरोध का परिदृश्य’ का पहला अध्याय-‘जले हुए चावल’।
इसमें बस्तर के जंगल, आदिवासी गाँव और उनके माल-मवेशी सब हैं। लेकिन कैसे बस्तर के ये गाँव अचानक किसी दिन गुम हो जाते हैं या नन्दिनी के शब्दों में मर जाते हैं, तथ्य और समय के साथ इसका मार्मिक वर्णन किया गया है। शुरुआत होती है, फ़रवरी, 2006 की एक घटना से, जब भोर की फूटती रोशनी में बिला रहे तारों को गिनते, सुबह के अपने कामों को कुछ देर टालते हुए हुंगी लेटी हुई है। वह अलसाई सी है। इसी बीच गाँव के संतरियों में से एक सोलह साल का लड़का जिसका नाम मासा है, पूरे गाँव को दौड़ते-चिल्लाते हुए बता रहा है कि उनके गाँव की तरफ़ ‘जुड़ुम’ आ रहा है। वह पास के इटापल्ली तक पहुँच गया है। जुड़ुम यानी सलवा जुड़ूम! पूरा गाँव बदहवास-सा तैयार होने लगा।
गाँव छोड़कर भागने के लिए। कुछ समय बाद यह गाँव गुम हो जायेगा-आखिरकार गाँव मर जायेगा। अपनी और अपने माल-मवेशियों को लेकर लोग यहाँ से पलायन कर जायेंगे! यह सिर्फ़ किसी हुंगी की ही नहीं, बस्तर के असंख्य गावों की कहानी है। सैकड़ों हथियारबंद लोग ‘कैमोफ्लाज ड्रेस’ और सर पर काला स्कार्फ़ बांधे गाँवों पर धावा बोलते हैं। इनमें कइयों के पास कलाश्निकोव राइफ़लें तक होती हैं। सलवा जुडूम शब्द गोंडी भाषा का है, जिसका मतलब है-शांति मार्च। पर सलवा जुडूम कहीं से भी शांति मार्च नहीं था।
नन्दिनी के अपने वर्णन से भी पता चलता है कि गाँव पर धावा बोलने वाले हथियारबंद गिरोह(मिलिशिया) के पास कलाश्निकोव जैसी अत्याधुनिक राइफ़लें तक होती थीं। दरअसल, इसका गठन राज्य-संरक्षण में 2005 के आसपास हुआ था। मक़सद था-नक्सली समूहों और उनके समर्थकों का ख़ात्मा। राज्य-संरक्षित इस मिलिशिया के शीर्ष संचालक कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा बताये गये थे।
नन्दिनी सुंदर और कुछ अन्य लोगों ने सलवा जुडूम जैसे अवैध हथियारबंद गिरोह को प्रतिबंधित और भंग कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। जुलाई, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मिलिशिया को अवैध घोषित कर इसे भंग करने का आदेश सुनाया था। यही नहीं न्यायालय ने इस मिलिशिया की तमाम अवैध और हिंसक गतिविधियों की पूरी जाँच का आदेश दिया। 2013 में इस मिलिशिया के शीर्ष संचालक माने गये महेंद्र कर्मा सहित कई कांग्रेस नेताओं की बस्तर में नक्सलियों ने हत्या कर दी थी।
अपनी किताब में नन्दिनी ने आदिवासी गाँवों पर सलवा जुड़ूम के हमले का बहुत प्रामाणिक वर्णन किया है। संभवतः सुप्रीम कोर्ट में दायर उनकी याचिका ऐसे प्रामाणिक दस्तावेज़ों के चलते बहुत तार्किक और ठोस बनी होगी, जिसके आधार पर कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। इस तरह नन्दिनी ने बस्तर की सिर्फ़ कहानी नहीं लिखी, आदिवासियों की बेहाली, उन पर ढाये जा रहे जुल्मो सितम पर शब्दों के कुछ आंसू ही नहीं बरसाये अपितु अपनी बस्तर-कहानी से लैस होकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया। उन्हें कामयाबी मिली और आदिवासियों को फ़ौरी तौर पर न्याय भी!
इस कारण भी नन्दिनी के बस्तर-अध्ययन का ऐतिहासिक महत्व है। एक लेखिका किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के बग़ैर कैसे सच का संधान करती है, जब वह आदिवासियों पर चौतरफ़ा अन्याय और अत्याचार की बौछार देखती है तो उनका पक्ष लेती है-बस्तर का पक्ष लेती है और मामले को न्यायालय तक ले जाती है और फिर आदिवासियों की फ़ौरी जीत का रास्ता बनाती है। हमारे जैसे देश में जहां न्याय बहुत मुश्किल से मिलता है; यह कोई मामूली बात नहीं! इसलिए नन्दिनी की बस्तर पर लिखी यह किताब वहाँ के आदिवासियों के लिए किसी धर्मग्रंथ से ज़्यादा पवित्र और उपयोगी है। यह मुसीबत भरे उनके जीवन की जटिल सच्चाइयों का ईमानदार दस्तावेज है।
नन्दिनी बस्तर एक या दो बार नहीं, बार-बार गयी हैं। वहाँ जाकर वह वक़्त के साथ आये बदलाव की शिनाख्त करती रही हैं। लेखक के तौर पर उनका यह तरीक़ा उनके लेखन को विशिष्ट बनाता है। किताब के पहले भाग में ‘प्रतिरोध का परिदृश्य’ है। शुरुआती अध्याय में उन्होंने एक शोध-छात्र की तरह बस्तर की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बनावट का तथ्यात्मक वर्णन किया है। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि नन्दिनी ने उपनिवेशवाद और प्रतिरोध से जुड़े विषय के अध्ययन के लिए 1990 में पहली बार बस्तर का दौरा किया था। तब वह एक शोध-छात्रा थीं। शोध के क्रम में वह जाती रहीं और बस्तर की दुनिया में डूबती रहीं। फिर वह ‘विज़िटर’ की बजाय बस्तर के गाँवों और हाटों का हिस्सा बनती गईं। उन्होंने यहाँ की बोली ‘धुरवा’ सीखा।
आदिवासी परिवारों की गणना करना, वंशावली जुटाना, उनके अनुष्ठानों में हिस्सा लेना, अनाज कूटती और इमली की फलियों को फोड़ने में लगी औरतों से गपशप करना और शुक्रवार को लगने वाले साप्ताहिक हाटों में जाना नन्दिनी के बस्तर-प्रवास की दिनचर्या में शामिल हो गये। ऐसा करते हुए उन्होंने बस्तर को सिर्फ़ पढ़ा ही नहीं, वहाँ की ज़िंदगी में घुसकर उसे जिया भी। उनका एक वर्णन देखियेः ‘मुझे मेलों और शादियों के दौरान नाचने की कुछ उन्मत्त रातें और मुर्ग़ों की लड़ाई के तनावपूर्ण क्षण याद पड़ते हैं पर शायद ही कभी आपस में मारने-पीटने की कोई आवाज़ आती हो। गाँव के विवादों के निपटारे में बहुत ही जटिल मोल-तोल चलता था, जैसे कि एक मामले में पुजारी ने पूरा सुअर हड़प लिया, जबकि दस्तूर के हिसाब से उसका हक़ केवल सर पर बनता था।
लेकिन अमूमन सारे विवाद बड़े-बुजुर्ग एक साथ-पीते और हंसते हुए ख़त्म कर लेते।’ नन्दिनी बताती हैं कि आदिवासियों की यह दुनिया कुछ ही समय बाद तेज़ी से बदलने लगी-‘ 2005 में जब सरकार ने अपने विनाशकारी काउंटर-इन्सर्जेन्सी अभियान शुरू किये तो दंतेवाड़ा या दक्षिण बस्तर ज़िले के माओवादी गढ़ों में रहने वाले ग्रामीणों के लिए अचानक यह सब बदल गया। मेरा जीवन जो मुझे नई शोध-रूचियों के सिलसिले में कहीं और ले गया था, वह भी बदल गया क्योंकि बस्तर से हिंसा की ख़बरें रिस-रिस कर आनी शुरू हो गईं थीं।’
उसके बाद तक़रीबन एक दशक के दौर में नन्दिनी ने अनेक बार बस्तर का दौरा किया। सन् 2007 में वह आईसीआई की तीन सदस्यीय टीम में गईं, जिसमें उनके अलावा लेखक रामचंद्र गुहा और सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ईएएस सरमा भी शामिल थे। इसके बाद बस्तर में मानवाधिकार के हनन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दर्ज कराई गई। नन्दिनी अपने इस अनुभव पर लिखती हैं; ‘एक समाजशास्त्री के रूप में स्वतंत्र रूप से यात्रा करने और हर पक्ष से बात करने का जो लाइसेंस मेरे पास था, उसे इस मुकदमेबाजी ने सीमित कर दिया। लेकिन शुरुआत में मैंने जो कुछ देखा, उसने मेरी रातों की नींद उड़ा दी और एक दर्द सदा के लिए मेरे दिल में घर कर गया।’
नन्दिनी ने पुस्तक के इस हिस्से में बस्तर के अंदर काउंटर इन्सर्जेन्सी के इतिहास के साथ गावों की बदलती दुनिया का बहुत विस्तार से वर्णन किया। इस क्रम में उन्होंने सिर्फ़ भारत नहीं, दुनिया के कुछ अन्य देशों में शासकों या हमलावरों की तरफ़ से अमानुषिक प्रयोगों के आज़माने के भी उदाहरण दिये हैं। ऐसे प्रयोगों में गाँवों को जलाने से लेकर ग्रामीणों के बीच अलग-अलग गुट तैयार करने की तरकीबें आज़माई गईं। अपने देश के तेलंगाना इलाक़े और मिज़ोरम का ख़ास उल्लेख है। दूसरे देशों के क्रम में उन्होंने चीन, मलाया और वियतनाम के भी कुछ उदाहरण दिये हैं। बस्तर में ऐसा खूब हुआ है।
किताब के पहले भाग के दूसरे अध्याय ‘कलेजे में लोहा’ में लेखिका ने खनन और सैन्यवाद के रिश्ते को बहुत तथ्यपूर्ण ढंग से पेश किया है। ऐसे विषयों पर लिखी अन्य किताबों या शोध-पत्रों की तरह नन्दिनी के वर्णन में सरकारी विभागों की सांख्यिकी और आँकड़ों की भरमार या इस या उस पक्ष के प्रवक्ताओं के बेमतलब उद्धरण नहीं मिलेंगे। यहाँ वह स्वयं मौजूद हैं और सारा कुछ जो उन्होंने देखा-समझा है, उसे बता रही हैं। जहां ज़रूरी हैं, वहाँ आँकड़े भी पेश कर रही हैं लेकिन उनकी शैली बिल्कुल अलग है। वह खनन से सैन्यवाद तक जैसे जटिल विषय को भी कहानी की तरह पेश करती हैं।
समाजशास्त्रीय अध्ययन और लेखन की इसे हम ‘नन्दिनी शैली’ कह सकते हैं, जो ठोस तथ्यों के साथ उस कालक्रम की हर महत्वपूर्ण घटना को उसमें पिरोते हुए सारी कथा सुनाती जाती हैं। खनन और सैन्यवाद के रिश्ते पर लिखते हुए वह 2003 में सरकार का खनन-क्षेत्र में ‘सुधार नीति’ लाना, इलाक़े में कुछ हिंदुत्ववादी संस्थाओं का बड़े योजनाबद्ध ढंग से अभियान चलाना, उसी दौर में बैलाडिला इलाक़े में टाटा और एस्सार सहित कुछ अन्य बड़े कारपोरेट घरानों के साथ सरकार द्वारा किये करार, फिर 2005 में सलवा जुड़ूम की शुरुआत, इस दौरान मालिक मकबूजा घोटाले के आरोपियों के शासकीय इस्तेमाल और फ़िक्की जैसे उद्योगपतियों के संगठनों का आदिवासी-हितों के विरुद्ध सरकारी सैन्यवाद के पक्ष में बयान देना और निजी कंपनियों के कैप्टिव लौह अयस्क खदानों के लिए जबरन या धमकी देकर ज़मीनों का सरकार द्वारा अधिग्रहण कराना; ऐसी तमाम कड़ियों को जोड़ते हुए वह इस इलाक़े के विराट सच की तस्वीर पेश करती हैं।
बस्तर ही नहीं, समूचे आदिवासी जीवन, उनकी सामाजिकता और आर्थिकी में कथित सुधार या बदलाव के शासकीय या मध्यवर्गीय विमर्शों की विडम्बना पर नन्दिनी का सोच और आकलन बहुत स्पष्ट और सुसंगत है। वह बताती हैं कि सन 1938 में बस्तर के अंग्रेज प्रशासक रहे विल्फ़्रेड ग्रिग्सन हों या कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के गृहमंत्री पी चिदम्बरम हों या बीजेपी-राज में आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों, आदिवासी समाज और जीवन की तरक़्क़ी की इन सबके पास एक जैसी धारणा है, लगभग समान विमर्श है।
वह साफ़ शब्दों में कहती हैं: ‘ग्रिग्सन के ज़माने से चिदम्बरम या नरेंद्र मोदी के ज़माने तक सबसे बड़ा बदलाव, आप्रवासी लोगों की एक स्थानीय कांस्टीट्यूएंसी(एक जैसे हितों वाला तबका) का विकास है।बीते कुछ दशकों में, देश के बहुत से आदिवासी इलाक़े बड़ा जनसांख्यिकी बदलाव देख चुके हैं, जिसका नतीजा बाहर से आकर बसे गैर-आदिवासियों की आबादी के प्रतिशत में तेज़ वृद्धि होना है। उनका नौकरशाही पर क़ब्ज़ा और व्यापार पर नियंत्रण है। अपरिहार्य रूप से, वे धीरे-धीरे आदिवासी ज़मीनों पर भी क़ाबिज़ हो रहे हैं, जिसमें आदिवासी सम्पत्तियों के संरक्षण के लिए बने क़ानूनों का लचर ढंग से लागू होना उनका मददगार है, और वे चुनावी राजनीति में भी हावी होने लगे हैं।’
नन्दिनी की इस किताब में बस्तर के बारे में वह सब कुछ है, जिसके बारे में लोगों को काफ़ी ग़लत बताया गया या जिसके बारे में उन्हें ख़ास जानकारी नहीं थी पर जो उन्हें जानना चाहिए। सलवा जुड़ूम से पहले का बस्तर कैसा था, सलवा जुड़ूम क्या था और क्यों शुरू किया गया, बस्तर में माओवादी कैसे और क्यों आये, उनसे पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ने भी कैसे बस्तर में अपने काम को बढ़ाने की कोशिश की, बस्तर के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक जीवन में वनोपज, ख़ासकर तेंदू पत्ते का क्या महत्व है, यहाँ के सभी व्यापारी और ठेकेदार क्यों गैर-आदिवासी आप्रवासी हैं, यहाँ उद्योगपतियों के स्थानीय प्रबंधकों-अफसरों से की जाने वाली वसूली का क्या सच है, माओवादियों के प्रभाव वाले इलाक़ों में सरकारी योजनाओं पर पाबंदी लगाने का जनता पर क्या असर है, अनेक कार्यकर्ताओं में भी कैसी प्रतिक्रिया है और माओवादियों की कथित ‘जनताना सरकार’ की धारणा का क्या सच है; ऐसे बहुत सारे सवालों और मुद्दों पर यह किताब ठोस और तथ्यपरक जानकारी देती है।
ऐसी ज़रूरी और बुनियादी जानकारी शायद ही किसी अन्य जगह मिले। एक और बात, इस किताब में समाजशास्त्री लेखिका ने जिस तरह बस्तर या वहाँ की समस्याओं से सम्बद्ध लोगों से बातचीत की है, उसमें कई बेहद विचारोत्तेजक और रहस्योद्घाटक हैं। कुछ तो बड़ी दिलचस्प भी हैं। मुझे एक ऐसी ही बातचीत ‘सरकारी सैनिक’ शीर्षक अध्याय में दिखी।पढ़ते हुए मुझे हंसी भी आई। राज्य-मशीनरी चलाने वालों के कोप से यह भी साबित होता दिखा कि सत्ता नन्दिनी के शोधपरक काम से उस वक़्त किस कदर कुपित और बौखलाई रही होगी। नन्दिनी ने उस बातचीत के एक हिस्से को पेश करते हुए बताया है कि उन्होंने 2007 में गृह मंत्रालय के सम्बद्ध प्रकोष्ठ के एक बड़े अधिकारी से मिलीं।
उन्होंने पहले तो लेखिका के बस्तर सम्बन्धी लेखन को पूर्वाग्रह-ग्रस्त कहा और फिर एक दिलचस्प धमकी भी दी-‘मैं चाहूँ तो वैसे लोगों को जिन्हें वस्तुनिष्ठ मानता हूं, को अपनी टीम में ले जा सकता हूं-मैं प्रो योगेंद्र सिंह(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त एक वरिष्ठ समाज वैज्ञानिक) सरीखे वस्तुनिष्ठ समाज-वैज्ञानिकों को ले जा सकता हूँ।’(पृष्ठ-208)। सोचिेये, वह महाशय एक ऐसी समाज-वैज्ञानिक को पूर्वाग्रहग्रस्त बता रहे थे, जिसकी तथ्यात्मक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में शासन के संरक्षण और सहयोग से चलाये गये सलवा जुड़ूम जैसे अवैध और आपराधिक अभियान को प्रतिबंधित किया था!
किताब के दूसरे भाग ‘गृह युद्ध’ में सलवा जुड़ूम और माओवादियों के संघर्ष और उसमें पिसते आम आदिवासी जीवन की कहानी है। यह किताब जिस दौर पर केंद्रित है, उसमें दंतेवाड़ा सहित विभिन्न हलकों के राजमार्गों के आसपास सलवा जुड़ूम क़ाबिज़ था और उससे बाद के गावों पर माओवादी। लेखिका ने विभिन्न इलाक़ों में उस दौरान भी दौरे किये और उसके बाद भी। सलवा जुड़ूम की शुरुआत में बीजापुर-गंगालूर सड़क के इर्दगिर्द के इलाक़े में 2005 और फिर 2012 में इसी इलाक़े में किये अपने दौरों का ख़ासतौर पर ज़िक्र किया है।
इसमें मोरना नामक एक गाँव की यात्रा का बहुत मार्मिक वर्णन है, जिसके कुल 75 में 65 घरों को जुड़ूम वालों ने जला दिया था। गाँव के पाँच लोग मारे भी गये। बलात्कार और पिटाई से दहशतज़दा गाँव तब बिल्कुल वीरान था। गाँव के सारे लोग यहाँ से भाग चुके थे। 2012 में हालात कुछ बदले। लोग अपने गाँव दोबारा लौटे। फिर उन पर अमानुषिक अत्याचार ढाये गये। हालत ये थी कि 14 साल या उससे ज़्यादा उम्र का हर व्यक्ति प्रत्येक रात को सोने के लिए पहाड़ी पर चढ़ता। खाने के बाद लोग शाम पाँच-छह बजे के आसपास पहाड़ी की तरफ़ निकल जाते और सुबह आठ बजे घर लौटते। रात में केवल बूढ़े लोग गाँव में बचते।
कठघरे में संस्थान शीर्षक तीसरे भाग में सुरक्षा या विकास, लोकतंत्र का स्मृतिलोप, मानव अधिकार और संवाद की ज़रूरत, न्यायिक प्रक्रिया की कोशिश, प्रचार युद्ध, न्याय के लिए गुहार और क़ानूनी मौत और सलवा जुड़ूम का पुनर्जन्म जैसे महत्वपूर्ण अध्याय हैं। किताब के आख़िरी अध्याय की आख़िरी पंक्ति है: सरकार सोचती है कि उसने नक्सलियों की रीढ़ तोड़ दी है और सम्भवतः ऐसा है भी लेकिन उसने लोकतंत्र की भी रीढ़ तोड़ दी है।(पृष्ठ-329). यह सिर्फ़ बस्तर का ही सच नहीं है, ऐसे ज़्यादातर इलाक़ों का सच है, जहां जल, जंगल और ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए राजनीतिक सत्ता और कारपोरेट का गठबंधन बीते कई वर्षों से लगातार तरह-तरह के हथकंडों को आज़माता रहा है।
इन इलाक़ों में जितनी सम्पदा ज़मीन के ऊपर दिखाई देती है, उससे भी ज़्यादा ज़मीन के नीचे है। इस सम्पदा पर एकाधिकार के लिए आदिवासियों पर लगातार ज़ुल्म ढाये गये हैं। उनकी दुनिया में पहले भी कोई बहुत उजाला नहीं था पर वह निश्चय ही ज़्यादा हरी-भरी थी। सत्ता और कारपोरेट के गठबंधन ने उनकी हरी-भरी दुनिया छीनने की हर कोशिश की है। माओवादियों ने भी आदिवासियों को कोई बेहतर या सार्थक विकल्प नहीं सुझाया है।
कौन जाने आदिवासियों की जादुई ज़मीन का अंधेरा कब मिटेगा! पर नन्दिनी सुंदर ने निश्चय ही अपनी बेहतरीन किताब में बस्तर की दुनिया की वह तस्वीर पेश की है, जिसे इतने मुकम्मल रूप में पहले नहीं देखा-सुना गया था। निश्चय ही, इस किताब में दर्ज बस्तर की सच्चाइयाँ ऐसे इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं, जहां इंसाफ़ की ग़ैरमौजूदगी में हमारी धरती के सबसे सुंदर, सहज और निर्दोष लोगों के साथ बेइंतहा अत्याचार ढाया गया और ढाया जा रहा है। निस्संदेह, ऐसी किताबें न सिर्फ सूचना और ज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं अपितु वंचित और उत्पीड़ित लोगों के लिए न्याय का रास्ता भी बना सकती हैं।
पुस्तक-समीक्षा
दावानल : माओवाद से जंग
लेखिकाः नन्दिनी सुन्दर
अनुवादःजितेन्द्र कुमार, सत्यप्रकाश चौधरी
प्रकाशक राजकमल, दिल्ली, पहला संस्करण-2022
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)
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