इलाहाबाद राजनैतिक और अदबी हलचलों का लंबे दौर से एक मजबूत केंद्र रहा है। दोनों की एक दूसरे में आवाजाही जितनी सहजता से यहां दिखती है, वैसा कम जगहों पर ही दिखाई पड़ता है।
इसी कारण यहां सियासी और अदबी दोनों तरह की धाराओं में एक साथ शुमार शख्सियतों की लंबी फेहरिस्त दिखाई देती है, जिसके एक प्रतीक रवि किरन जैन भी थे।
उनकी पीढ़ी के सक्रिय लोगों में अब के इलाहाबाद को देखें तो कम ज्यादा शायद एकाध नाम ही हम याद कर सकेंगे। जहां एक ओर वह संविधान विशेषज्ञ और नागरिक अधिकारों के लिए प्रदेश के सबसे मजबूत निडर योद्धा थे।
वहीं दूसरी तरफ वे प्रगतिशील लेखक संगठन के अध्यक्ष मंडल से लेकर संरक्षक मंडल के सदस्य के बतौर ताजिंदगी अपनी सक्रिय भूमिका तमाम कठिन बीमारियों के बावजूद निभाते रहे।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के सीनियर एडवोकेट और नागरिक अधिकारों के अलंबरदार जैन साहब ने दिसंबर 28- 29 की दरमियानी रात को इलाहाबाद के नाजरेथ अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनके अंतिम समय में अस्पताल में उनके साथ उनकी बेटी रुपाली, उनके जूनियर रहे आशीष सिंह, सुबीर, दिनकर, गुड्डू जी थे।
जफर भाई लगातार संपर्क में बने हुए थे अस्पताल वगैरह को लेकर। और यह बुरी खबर भी हम लोगों के पास उन्हीं की मार्फत अंशु मालवीय से होते हुए रात लगभग 2 बजे मिली। काश कि मैं फोन साइलेंट करके न सोया होता…..कुछ नहीं तो जो लोग वहां थे, उनके साथ खड़ा तो रहता।
1 जून 1945 को सहारनपुर के एक प्रसिद्ध कांग्रेसी और कागज के बड़े व्यवसायी के घर में जन्मे (हालांकि हम लोग और वो खुद अपना जन्मदिन 5 सितंबर टीचर्स डे को मनाते थे और हम सब आज भी उनके जीवन को देखते हुए इसी को मानते हैं।)
एडवोकेट रवि किरन जैन लोहिया जी से प्रभावित होकर कांग्रेस की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ राजनीति में उतरे। छात्र राजनीति करते हुए अपने कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष बने और बाद में मेरठ मंडल के सभी कालेजों के अध्यक्षों के अध्यक्ष भी चुने गए।
उन्होंने चंडीगढ़ से अपनी वकालत की शुरुआत की लेकिन जल्द ही वे इलाहाबाद आए, और खुद को यहां के हाई कोर्ट से लेकर समाज में एक बड़ी शख्सियत के बतौर स्थापित किया। क्रिमिनल लॉ के शानदार जानकार होने के साथ-साथ राजनीति में रुचि होने के कारण उन्होंने संवैधानिक और नागरिक कानून दोनों के लिए अपनी भूमिका तय की और उसमें विशेषज्ञता हासिल की। इलाहाबाद में सीनियर एडवोकेट बने जैन साहब आपातकाल के समय पीयूसीएल के गठन के समय से ही जस्टिस सच्चर के साथ न सिर्फ आजीवन जुड़े रहे बल्कि 2016 से लेकर 2022 तक पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।
1986 में जब इलाहाबाद में दो समुदायों के बीच दंगा भड़का, जो दंगा भी क्या कहना एक छोटी सी घटना के बाद पीएसी ने मुस्लिम समुदाय पर भयानक दमन किया था, जिसकी एक रिपोर्ट पीएसओ (आज का आइसा) ने छापी थी, उस समय कर्फ्यू तोड़ने का आह्वान आया था।
मरहूम जस्टिस सच्चर के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस की शक्ल में हम लोग जानसेनगंज चौराहे पर पहुंचे। वहीं पहली बार मैंने जैन साहब को देखा था।
तब मैंने बीए पास किया था। जहां तक मुझे याद है उसमें अब इस दुनिया में नहीं रहे चितरंजन जी, ओडी भाई, प्रो. बनवारी लाल शर्मा, प्रो ओपी मालवीय जी के अलावा कुमुदिनी पति, लाल बहादुर सिंह, केके रॉय, अशोक भौमिक, राकेश द्विवेदी समेत काफी लोग थे।
भारी संख्या में नौजवान थे और संभवतः पुलिस विभाग में वीएन राय जी किसी बड़े पद पर थे। कर्फ्यू टूटा और जुलूस घंटाघर तक गया।
इस घटना पर मरहूम कवि, नाटककार नीलाभ ने ‘संगम की धरती पर देखो दंगा भड़का आज’ नामक नाटक लिखा था, जिसे दस्ता की टीम; जिसमें उदय, विमल, पंकज आदि कई साथी थे, जो कर्फ्यू ग्रस्त इलाके की गलियों के भीतर जाकर यह नाटक करते थे।
कर्फ्यू हटने के बाद पीएसओ के साथी रवि पटवाल, इरफ़ान आदि ने छपी हुई जांच टीम की रिपोर्ट लेकर घर-घर वितरित की थी। खैर, यहीं से मेरा जैन साहब को और इलाहाबाद के साहित्य, राजनीति, नागरिक अधिकार और समाज को जानने समझने की शुरुआत हुई।
उसके बाद बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर, देश के सेक्युलर मूल्यों में गिरावट, बढ़ते राज्य दमन, नागरिक अधिकारों पर होते हमलों, 90 के दशक में डंकल प्रस्ताव से लेकर नई आर्थिक नीतियों को लेकर जैन साहब पूरी ताकत लगाकर लड़ते-भिड़ते अदालतों से लेकर शहर की सड़कों तक।
इस प्रक्रिया में न सिर्फ वह निखरते गए बल्कि अपने बाद की राजनैतिक और मुद्दा आधारित आंदोलनों के कार्यकर्ताओं के भीतर भी संवैधानिक और जमीनी लड़ाइयों के बीच गहरे रिश्तों की समझ भी पैदा करते गए।
मजदूरों, किसानों, अल्पसंख्यक समुदायों और उनके लिए संघर्ष करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हो रहे राज्य दमन के खिलाफ वह खासकर उत्तर प्रदेश में सड़क से लेकर अदालत तक सबसे मुखर और निडर आवाज थे। राज्य द्वारा बनाए गए दमनकारी कानूनों यूपी गैंगस्टर एक्ट से लेकर गुंडा एक्ट तक को उन्होंने खुद अदालत में चुनौती दी बहस की।
सबसे दमनकारी यूएपीए में जब इलाहाबाद के राजनैतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई और उसके पहले डा. बिनायक सेन को इसी कानून के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था, तब उस समय इलाहाबाद में बने दमन विरोधी मंच में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई।
उस मंच के संयोजक ओ डी भाई थे और सह संयोजक के रूप में मैं था। जिसका एक बड़ा सम्मेलन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ भवन में हुआ।
जिसके मुख्य वक्ता उस समय जमानत पर बाहर आए बिनायक सेन ही थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जैन साहब ने इस दमन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और सीमा, विश्व विजय को सम्मेलन के दिन ही जेल से बाहर निकालने में सफल हुए।
संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर उच्चतम न्यायालय तक के फैसलों पर सहमति-असहमति, उसकी संवैधानिक व्यवस्था पर वह लिखित रूप में पुस्तिका निकाल कर, अपनी राय सार्वजनिक तौर पर रखते थे।
संविधान की बुनियादी संरचना और चरित्र को बदलने वाले कानून के खिलाफ वो चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो अथवा मोदी शाह की भाजपा सरकार, उसके खिलाफ वह हमेशा तार्किक, संविधान सम्मत बहसों को न सिर्फ अदालत में चुनौती देते थे बल्कि समाज के भीतर भी उस पर बहस चलाते रहे।
देश के सेकुलर चरित्र को बदलने, पर्यावरण विनाश से लेकर विकास के कॉरपोरेट मॉडल और 90 के दशक में लाई गई आर्थिक नीतियों तक की तार्किक आलोचना और इसे लेकर चलने वाले हर आंदोलन को सक्रिय सहयोग उनका खुला जीवन था।
जैन साहब का एक और जबरदस्त पहलू था और वह था एक आयोजक और एक शानदार दोस्त का किरदार। हम जैसे तमाम लोगों ने बड़े संविधान विशेषज्ञों, न्यायविदों, विपक्ष के राजनेताओं, जमीनी संघर्ष में लगे नेतृत्व कर्ताओं सहित हिंदुस्तान और बाहर की भी कई हस्तियों को उनके घर पर होने वाली गोष्ठियों में सुना।
जिसमें पूर्व लोकसभा स्पीकर रवि राय, मधु लिमए, जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर, तीस्ता शीतलवाड़, पाकिस्तान की मशहूर कवि फहमीदा रियाज़, इलीना और बिनायक सेन जैसे तमाम लोगों शामिल थे।
मुझे याद है कि इलाहाबाद में चाहे वह 1857 की आज़ादी की लड़ाई के 150 वें साल का 2007 का जलसा हो जिसमें तमाम लोगों के साथ शिरकत करने और उद्घाटन करने प्रो. रणधीर सिंह आए थे या फिर 2011 में इंडो-पाक मैत्री के दो विशाल आयोजन बिना किसी सरकारी अनुदान के और दोनों में भारत व पाकिस्तान से बड़ी संख्या में अलग-अलग विधाओं और विषयों के लोगों ने शिरकत की थी।
उसके अगुआ लोगों में कॉमरेड जियाउल हक़ यानि जिया भाई, जैन साहब के साथ एडवोकेट एसएमए काजमी, एडवोकेट उमेश नारायन शर्मा, प्रो अली अहमद फातमी आदि तमाम वरिष्ठ साथी तो थे ही और उसके इर्द-गिर्द हिंदी और उर्दू या कहें कि दोनों समुदायों से एक बड़ी टीम उनके निर्देशन में लगी थी।
भाई जफर बख्त, प्रणय कृष्ण, सुरेंद्र राही, अविनाश मिश्र से लेकर पद्मा सिंह, अंशु मालवीय तक ढेरों साथी जिनके नाम नहीं ले पा रहा।
जैसा कि इलाहाबाद का मिजाज़ है कि किसी बड़े या थोड़े छोटे अदबी या सियासी जलसे के खत्म होने के बाद भी, लोग बतियाते, बहस करते, गाना गाते, बैठकी जमा ही लेते हैं उसमें जैन साहब जनरेशन गैप का खुला उल्लंघन करते हुए और जेंडर की बाइनरी को तोड़ते हुए वहां भी अगुवा की भूमिका ले लेते थे और नौजवानों को बैठा लेते।
अब ये बैठकी उनके यहां जमी है या ज्यादा बड़ी हुई तो ज़फ़र भाई खुले दिल से अपने यहां रखते ही थे वे साधिकार वहां भी यही करते।
यारबाश ऐसे, अंदाज़ देखिए कि मैं उनसे उम्र में 22 साल छोटा, कहते के के साहब आप सिगरेट पीते हैं तो पैकेट रखते ही होंगे, मैं कहता हां, तो कहते निकालिए फिर पिलाइए। कहां मिलेंगे ऐसे प्यारे दोस्त जिन्हें अपने बड़े होने का कोई इगो न हो। उनसे आप विचारों पर जम कर बिना लिहाज़ किए लड़ लें और दोस्ती में कोई खलल पैदा न हो।
पिछले 27 दिसंबर 2024 को दोपहर इलाहाबाद के उनके अशोक नगर आवास पर चुनाव प्रक्रिया के लिए पेश 129 वां संशोधन जिसे ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ कहा जा रहा है और आने वाले दिनों में नए परिसीमन उससे पड़ने वाले प्रभावों को लेकर संवैधानिक स्थिति, देश के संघीय ढांचे, विकास संबंधी नीतियों पर पड़ने वाले प्रभावों, संविधान और संवैधानिक संस्थाओं की वर्तमान हालत, इन सब पर बातचीत के लिए मैं और साथ में हिंदी की चर्चित कवि रूपम मिश्र गए थे।
इंटरव्यू फेयर करके उनको दिखा लेने की बात भी हुई। अपनी धीमी हो गई आवाज को लेकर थोड़े चिंतित थे कि कोर्ट में आनलाइन भी किसी मसले पर बहस कैसे करेंगे। मैंने कहा कि आप कॉलर माइक का इस्तेमाल कीजिए।
समस्या हल हो जाएगी। शाम को फिर कौन सा माइक लिया जाए, इसको लेकर उन्होंने फोन किया, बेटी से बात कराई और 30 की शाम मिलने और कुछ कसमें तोड़ने की भी बात हुई। तब क्या पता था कि मुलाकात तो होगी, जैन साहब याद दिलाकर बुला लेंगे अपनी उसी मोहब्बत से लबरेज आवाज में के के साहब शाम को आना है, और समय भी पूछ लेंगे कि कब तक आएंगे।
तब क्या पता था कि जैन साहब ऐसे बुला लेंगे। तयशुदा समय से पहले और हमसे कोई बात नहीं करेंगे। जैन साहब भला ऐसे भी कोई वादा निभाया जाता है…
इलाहाबाद में नागरिक अधिकारों के लिए समर्पित एक त्रयी थी। जिनमें से दो लोग इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस राम भूषण मेहरोत्रा, मानवाधिकार के लिए समर्पित और अध्यापक ओडी सिंह पहले ही जा चुके थे। और अब उसका तीसरा स्तंभ भी नहीं रहा।
उनकी सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, उस दिन भी वह इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश द्वारा दिए गए बहुसंख्यक के राष्ट्र वाले बयान और उसको लेकर संवैधानिक पद पर बैठे मुख्यमंत्री द्वारा जो बयान दिया गया, जिसे वह संविधान के मूल चरित्र के खिलाफ मानते थे, उस पर ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका डालने, उस पर खुद बहस करने की सक्रिय तैयारी में लगे थे।
राज्य के सेक्युलर चरित्र को बनाए रखने, राज्य दमन के खिलाफ नागरिक अधिकारों के प्रबल व सक्रिय हिमायती, अपना व्यक्तिगत नुकसान सहकर भी अपने विचारों के लिए अडिग रहने और उसके लिए अदालत से सड़क तक लड़ने वाले योद्धा को हमने खो दिया है।
उस दिन भी चलते-चलते जैन साहब ने एक अंतिम बात कही कि जब कोई ऐतिहासिक मौका सामने हो तो उसे खोना नहीं चाहिए। हम हारें या जीतें, हमें अपनी पहलकदमी, अपनी भूमिका निभानी चाहिए। आज भी यह शब्द मेरे भीतर धड़क रहे हैं, जैसे मुझसे ही सवाल करते हुए कि दोस्त तुम्हारी जो भूमिका इस समय है उसे निभाओगे न!
जैन साहब के परिवार में उनकी पत्नी, दो जुड़वा बेटियां दीपाली और रूपाली, दामाद, भतीजे उनके परिवार यानि अपने पीछे वह एक बड़ा कुनबा छोड़ गए हैं। परिवार के भीतर भी उनकी यही लोकतांत्रिक और यारबाश छवि है।
जैन साहब ने अपनी मृत्यु के बाद अंतिम क्रिया के लिए कह रखा था कि उन्हें उनके पैसे से विद्युत शवदाह गृह ले जाया जाए और जो भी हो वह सारी क्रिया उनके घरेलू सहायक भाई ओमपाल ही करेंगे और ऐसा ही हुआ।
सलाम जैन साहब। अभी अलविदा तो न कह सकूंगा।
(केके पांडेय संस्कृतिकर्मी और जनमत पत्रिका के संपादक हैं। उनका यह स्मृति लेख जनमत के वेबपोर्टल से साभार लिया गया है।)
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