Thursday, April 25, 2024

हाशियाकृत अस्मिताओं से संवाद

‘समय से संवाद: जन विकल्प संचयिता’ मासिक पत्रिका ‘जन विकल्प’ में प्रकाशित चुनिन्दा लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। इस पत्रिका का प्रकाशन पटना से जनवरी, 2007 में आरम्भ हुआ था और उसी वर्ष दिसंबर में इसका अंतिम अंक प्रकाशित हुआ। इस अवधि में पत्रिका के कुल 11 अंक प्रकाशित हुए, जिसमें से एक अंक ‘साहित्य वार्षिकी’ के रूप में प्रकाशित हुआ था। पत्रिका के संपादक-द्वय प्रेमकुमार मणि और प्रमोद रंजन थे। पत्रिका अल्पजीवी रही; लेकिन उसने हिंदी की वैचारिक दुनिया में गहरा हस्तक्षेप किया था।

इस संचयिता में कुल छः अध्याय हैं, जिनके नाम हैं- संपादकीय (जन विकल्प में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि द्वारा लिखित टिप्पणियां), अध्ययन कक्ष, समकाल, साक्षात्कार, यवन की परी एवं परिशिष्ट।

इसमें संकलित नरेंद्र कुमार का लेख उस भयवाह राजापाकर कांड पर केंद्रित है, जिसे प्राय: भुला दिया गया है। 13 सितंबर, 2007 को बिहार के हाजीपुर के नज़दीक राजापाकर गांव में स्थानीय लोगों ने कुरेरी जाति के 10 युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। मारे गये युवक भोज खा कर आ रहे थे। इन्हें पेड़ों से बांध कर पीटा गया, और बाद में दौड़ा-दौड़ा कर पीटते हुए इनकी जान ले ली गई। कुरेरी एक घुमंतू जाति है। इनका कोई स्थायी निवास आज भी नहीं होता। ये लोग गांव दर गांव, शहर दर शहर घूमते हुए पेट पालते हैं।

राजापाकर कांड में गांव के लोगों का कहना था कि कुरेरी युवकों ने चोरी की थी, इसलिए उनकी हत्या की गयी। अपने लेख में नरेंद्र कुमार कई उदाहरणों के साथ बताते हैं कि चोरी का आरोप वास्तव में कमज़ोर को दबाने का माध्यम होता है। वे लिखते हैं कि “मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीवन के साधन प्राय: सामूहिक प्रयासों से ही पैदा करता है; लेकिन स्वामी वर्ग हमेशा ही इन साधनों का बड़ा हिस्सा चुराता रहा है। बड़ा तबक़ा, जो श्रम से सीधे जुड़ा होता है; उसके पास छोटा हिस्सा ही बचता है। सामंती समाज से लेकर आज के विश्वव्यापी पूंजीवादी प्रभुत्व वाले समाज में शासक वर्गों के द्वारा मेहनतकश के हिस्से की चोरी लगातार विकराल रूप लेती गयी है; लेकिन इस तरह की चोरियों को क़ानूनन सही ठहराया जाता है और इस तरह की चोरी से जुटायी संपत्ति के लिए समाज उन चोरों का सम्मान भी करता है।” जबकि कमज़ोर लोगों द्वारा की गई छोटी-सी चोरी को भी कठोरतम सज़ा के योग्य माना जाता है।

राजापाकर कांड के संदर्भ में बिहार के तत्कालीन सत्ताधरी दल और विपक्ष पर जन विकल्प पत्रिका के संपादक-द्वय प्रेमकुमार मणि और प्रमोद रंजन की टिप्पणी भी विशेषतौर पर रेखांकित किये जाने योग्य है। उनकी टिप्पणी न सिर्फ़ पत्रिका की त्वरा और राजनीतिक निष्पक्षता का पता देती हैं, बल्कि उन समुदायों के प्रति उनकी चिंता को भी दर्शाती है, जिन्हें अस्मितामूलक विमर्श में जगह नहीं मिलती।

संपादक-द्वय लिखते हैं कि “कुरेरी जाति के इन घुमंतुओं का न कोई राजनीतिक दल है, न जातीय संगठन। वे मतदाता सूची तक से बाहर हैं। इस घटना (राजापाकर कांड) के कुछ रोज़ पहले जब एक मुसलमान युवक को पुलिस वालों ने मोटरसाइकिल से बांधकर सड़क पर घसीटा था, तो लालू प्रसाद व उनके राष्ट्रीय जनता दल ने जबरदस्त विरोध दर्ज किया था। लालू प्रसाद के लिए यह मानवाधिकार से अधिक वोट का मामला था। लेकिन राजापाकर के जघन्यतम नरसंहार के हत्यारे चूंकि उनकी ही जाति के थे, इसलिए वह चुप्पी साधे रहे। एक जातीय संगठन ने हत्यारों के पक्ष में प्रदर्शन तक किया।

इसी तरह जब बेलछी में एक पिछड़ी जाति के भू-स्वामियों ने 11 दलितों को रस्सी से बांधकर ज़िन्दा जला दिया था, तो उनके जाति संगठनों ने हत्यारों को छोड़ने की मांग की थी। उस समय इंदिरा गांधी नाटकीय ढंग से हाथी पर सवार होकर बेलछी आयी थीं, तो यह उनकी भी वोट पॉलिटिक्स ही थी। इसके एवज़ में दलितों ने कांग्रेस का साथ भी दिया था। बेलछी (1977) और राजापाकर (2007) के बीच के 30 वर्षों में उत्तर भारत में परवान चढ़ी ‘सामाजिक न्यायकी राजनीति सत्ता समीकरणों में परिवर्तन की क़वायद से आगे नहीं बढ़ सकी है। ‘अन्याय का विरोध उसके ऐजेंडे में नहीं है।”

संपादक-द्वय द्वारा इस क्रम में 2007 में उठाये गये सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। वे लिखते हैं- “दलितों, मुसलमानों, विभिन्न पिछड़ी जातियों की आवाज़ उठाने वाले आज अनेक दल हैं। लेकिन विडंबना है कि जो समुदाय राजनीतिक सत्ता समीकरण बनाने-बिगाड़ने की हैसियत नहीं रखते, उनके प्रति ये दल पूरी तरह उदासीन रहते हैं। ऐसे अनेक समुदाय कम्युनिस्ट पार्टियों की सर्वहारा की परिभाषा से भी बाहर हैं, नक्सली कहे जाने वाले अति वामपांथियों का एजेंडा भी उन तक नहीं पहुंचता। राजापाकर कांड के पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण और बर्बर होते समाज के संकेतों के साथ एक बड़ा सवाल यह भी है कि वर्तमान दलीय राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे सामाजिक समूहों की नियति क्या है?”

पुस्तक में सच्चर रिपोर्ट पर केंद्रित शरीफ़ क़ुरैशी का लेख संकलित किया गया है। केंद्र सरकार ने 2005 में सच्चर समिति का गठन मुसलमानों की सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक स्थिति की जानकारी एकत्रित करने के लिए किया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट 17 नवम्बर, 2006 को तत्कालीन प्रधानमंत्री सौंपी थी। क़ुरैशी इस समिति की रिपोर्ट की कमियों को बहुत बारीक़ी से पाठकों के सामने लाते हैं। वे बताते हैं कि इस समिति की पहली कमी तो यही थी कि इसमें एक भी महिला सदस्य नहीं थी।

वे बताते हैं कि समिति को “पिछड़े, अतिपिछड़े एवं दलित मुसलमानों के बारे में भी अलग से सर्वे रिपोर्ट देनी चाहिए थी। इससे मुसलमानों कि असली स्थिति उभरकर सामने आती।” लेकिन ऐसा नहीं किया गया। समिति ने सभी मुसलमानों को एक साथ गिना, जिससे मुसलमानों में जो दलित हैं; उनकी दुर्दशा सामने नहीं आ पायी। मसलन, रिपोर्ट में मुसलमानों की विभिन्न कमज़ोर जातियों- मेहतर, धोबी, मोची, बक्खो, नट, जुलाहा, धुनिया, कसाई, मदारी, भिश्ती आदि को ऊंची जाति के मुसलमानों के साथ समेटने की कोशिश की गयी है। क़ुरैशी ने अपने लेख में बताया है कि भारतीय मुसलमानों में मात्र 5 फ़ीसदी ही उच्चवर्ग के हैं, बाक़ी 95 फ़ीसदी पिछड़ा वर्ग है। मुसलमानों के इस पिछड़े वर्ग की हालत हिंदू अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से भी बदतर है।

तुलसीराम का आलेख “बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड्यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्त्राब्दी” और लक्ष्मण माने का संस्मरण “मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा?” सामाजिक-धार्मिक वाह्यडंबर को पाठक से सामने रखता है। इन लेखों में यह बताया गया है कि कुछ समुदायों ने ही पूरे समाज को किस तरह जकड़ कर रखा था।

एक सामान्य हिंदू के मन में राम और सीता के प्रति जो आस्था और विश्वास है, उसे सुरेश पंडित का लेख- “पेरियार की दृष्टि में रामकथा” झकझोर देता है तथा अपने विश्वासों को तर्क की कसौटी पर कसने के लिए मजबूर करता है।

पत्रिका की वैचारिकी को समझने में प्रमोद रंजन द्वारा लिखी गयी पुस्तक की भूमिका- “जन विकल्प का प्रकाशन: वह दुनिया और आज का दौर” काफ़ी उपयोगी है। रंजन बताते हैं कि “जन विकल्प का उपसर्ग ‘जन’ राममनोहर लोहिया और मार्क्सवाद का है। लोहिया ने 1950 के दशक में ‘जन’ नामक पत्रिका निकाली थी; और यह मार्क्सवाद की शब्दावली का अभिन्न हिस्सा भी है।” इस प्रकार यह पत्रिका समाजवाद और मार्क्सवाद का अनूठा संगम तो थी ही, उसका विकल्प भी देने की कोशिश कर रही थी।

पत्रिका के बारे में रंजन ने लिखा है कि “जन विकल्प के प्रकाशन का समय इक्कीसवीं सदी की अंगड़ाई का समय था। बाज़ार का भूमंडलीकरण तीसरी दुनिया के देशों में पसर रहा था। भारत में एक ओर नया मध्यमवर्ग फलफूल रहा था, तो दूसरी ओर राजनीति, धर्म और वैश्वीकृत बाज़ार की जुगलबंदी गहरी होती जा रही थी। दुनिया को देखने के लिए अब भी मार्क्स और लोहिया की विचार-पद्धति मददगार थी, लेकिन हम यह भी देख सकते थे कि उनके नाम पर बने सम्प्रदाय और पीठ– मसलन, मार्क्सवादी और लोहियावादी राजनीतिक दल मौज़ूदा समस्याओं को समझने में असफल हो रहे हैं। ऐसे में विकल्प की बात सोचना स्वाभाविक था।”

पत्रिका में भूमंडलीकरण और विभिन्न राजनीतिक विकल्पों पर लगातार सामग्री प्रकाशित हुई। पत्रिका की संपादकीय समझ थी कि भूमंडलीकरण को रोका नहीं जा सकता, बल्कि देखना चाहिए कि आम जन के पक्ष में इसका क्या और कैसे उपयोग हो सकता है। इसलिए पत्रिका ने भूमंडलीकरण पर हिंदी में मची हाय-हाय को तवज्जो नहीं दी। इस पुस्तक में भी पत्रिका से चुनी गयीं ऐसी अनेक सामग्री संकलित हैं, जो भूमंडलीकरण के बेहतर तत्त्वों को आत्मसात करने पर बल देती है।

पुस्तक में प्रेमकुमार मणि के संपादकीय के अतिरिक्त अन्य पठनीय लेख हैं- कंवल भारती का “बहुजन नज़रिए से 1857 का विद्रोह”, अरविन्द कुमार का “आधुनिक हिंदी की चुनौतियां”, राजीव रंजन गिरी का “खड़ी बोली का आन्दोलन और अयोध्या प्रसाद खत्री”, सुधीश पचौरी का “उत्तर आधुनिकता और हिंदी का द्वंद्व”, प्रमोद रंजन का “गीता: ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना का षड्यंत्र”, लालचंद ढिस्सा का “हाशिए के लोग और पंचायती राज अधिनियम”, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) का दस्तावेज़ “जनयुद्ध और दलित प्रश्न”, शरद यादव का “संविधान पर न्यायपालिका के हमले के ख़िलाफ़”, क्रन्तिकारी आदिवासी महिला मुक्ति मंच का दस्तावेज़ “दंडकारण्य: जहां आदिवासी महिलाओं के लिए जीवन का रास्ता युद्ध है”

इसके अलावा संचयिता में जन विकल्प में प्रकाशित साक्षात्कारों को भी जगह दी गयी है। इन साक्षात्कारों में राजेंद्र यादव का साक्षात्कार “प्रतिभा आपको अकेला कर देती है”, अरुण कमल का “साहित्य प्रायः उनका पक्ष लेता है, जो हारे हुए हैं”, योगेन्द्र यादव का “जाति केवल मानसिकता नहीं”, बिपिन चन्द्र का “भूमंडलीकरण को स्वीकारना ही होगा”, संजय काक का “पांच सौ वर्ष पुराना है कश्मीर की ग़ुलामी का इतिहास” तथा माओवादी पार्टी के प्रमुख गणपति का “हम जनता के लामबंदी में यक़ीं रखते हैं” महत्त्वपूर्ण हैं।

428 पृष्ठों की यह संचयिता वास्तव में अतीत और वर्तमान को भविष्य से जोड़ने का प्रयास करती है।

(अजित कुमार, असम विश्वविद्यालय से प्रेमकुमार मणि के कथेतर लेखन पर शोध कर रहे हैं।)

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