हिंदी रंगमंच में दिनेश ठाकुर की पहचान शीर्षस्थ रंगकर्मी, अभिनेता और नाट्य ग्रुप ‘अंक’ के संस्थापक, निर्देशक के तौर पर है। दिनेश ठाकुर के नाट्य ग्रुप ‘अंक’ का सफर साल 1976 में शुरू हुआ था जो उनके इस दुनिया से जाने के आठ साल बाद भी जारी है। रंगमंच हो, टेलीविजन या फिर सिनेमा हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी एक अलग छाप छोड़ी। दिल्ली निवासी दिनेश ठाकुर ने शुरुआत रंगमंच से की और बाद में फिल्मों में भी काम किया। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो वे पूर्णकालिक रंगकर्मी ही थे। थियेटर उनकी सांसों में बसता था। थियेटर उनका जुनून था। गोया कि, इसके बिना वे एक पल भी जिंदा नहीं रह सकते थे। 8 अगस्त, 1947 को जयपुर में जन्मे दिनेश ठाकुर का नाटक के जानिब लगाव बचपन से ही था।
वे जब नौंवी क्लास के स्टूडेंट थे, तब उन्होंने अपना पहला नाटक ‘औरंगजेब की आखिरी रात’ डायरेक्ट किया। नाटक कामयाब रहा। इस कामयाबी ने उन्हें नाटक की तरफ पूरी तरह से मोड़ दिया। अठारह साल की उम्र तक जब वे पहुंचे, तो उन्होंने दिल में यह इरादा पक्का कर लिया कि ”एक्टर बनूंगा, एंटरटेनर बनूंगा। लोगों को मनोरंजन दूंगा। हंसाऊंगा, बस !” दिल्ली यूनिवर्सिटी के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वे इस कॉलेज की ड्रामेटिक सोसायटी का हिस्सा बन गए और उन्होंने पांच साल तक खूब नाटक किया।
नाटक करने के अलावा दिल्ली में उस वक्त कहीं भी जो नाटक खेले जाते, वे उन्हें ज़रूर देखने जाते। चाहे एनएसडी में हों या फिर और कहीं। दिल्ली में ही उन्हें हिंदी रंगमंच के दो दिग्गज निर्देशकों बीवी कारंत और हबीब तनवीर के साथ काम करने का मौका मिला। इन दोनों के साथ उन्होंने नाटक की लंबी रिहर्सल की। लेकिन अफसोस ! इन दोनों ही नाटकों के शो किसी कारण वश नहीं हो पाए। नाटक के शो भले ही नहीं हो पाए, पर इन दोनों ही निर्देशकों के साथ किया काम का तजुर्बा, दिनेश ठाकुर के ताजिंदगी काम आया।
कॉलेज की पढ़ाई के बाद दिनेश ठाकुर ‘अभियान’ संस्था से जुड़ गए। ‘अभियान’ में उन्होंने राजेन्द्र नाथ, टी. पी. जैन, किशोर कपूर, नमित कपूर जैसे दिग्गज कलाकारों-निर्देशकों के साथ काम किया। बाद में वे ओम शिवपुरी के नाट्य ग्रुप ‘दिशांतर’ से भी जुड़े। दिनेश ठाकुर का पहला फुललेंथ प्ले ‘केयरटेकर’ था, जिसे उन्होंने ही निर्देशित किया। रंगमंच में दिनेश ठाकुर के काम की मकबूलियत उन्हें मुंबई खींच ले गई। मशहूर नर्देशक बासु भट्टाचार्य, फिल्म ‘अनुभव’ बना रहे थे, जिसके एक रोल के लिए उन्होंने दिनेश ठाकुर को मुंबई बुला लिया। साल 1971 में आई ‘अनुभव’ टिकट खिड़की पर हिट साबित हुई और इस फिल्म में दर्शकों को दिनेश ठाकुर का काम बहुत पसंद आया।
‘अनुभव’ के बाद उन्हें एक साथ कई फिल्में और मिल गईं। जिसमें निर्देशक बासु चटर्जी की फिल्म ‘रजनीगंधा’ भी शामिल थी। ‘रजनीगंधा’ न सिर्फ सुपर हिट हुई बल्कि इस फिल्म को बेस्ट मूवी का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म की कामयाबी के बाद दिनेश ठाकुर ने दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ दिया। मायानगरी मुंबई में उनकी फिल्मों की यात्रा शुरू हो गई। ‘परिणय’, ‘कालीचरण’, ‘कर्म’, ‘मधु मालती’, ‘घर’, ‘नैयया’, ‘मीरा’, ‘गृह प्रवेश’, ‘ख्वाब’, ‘अग्नि परीक्षा’, ‘बगावत’, द बर्निंग ट्रेन’, ‘आमने सामने’, ‘आज की आवाज’, ‘आस्था’, ‘फिजा’ जैसी ऑफ बीट, समानांतर और कमर्शियल फिल्मों में उन्होंने एक साथ अदाकारी की।
कुछ फिल्मों के लिए उन्होंने स्टोरी और स्क्रीनप्ले भी लिखा। साल 1978 में आई फिल्म ‘घर’ की स्टोरी और स्क्रीनप्ले दिनेश ठाकुर का ही था और इस फिल्म के लिए उन्हें साल 1979 में बेस्ट स्टोरी का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। निर्देशक बासु भट्टाचार्य के साथ दिनेश ठाकुर किसी न किसी तौर पर जुड़े रहे चाहे अदाकार के तौर पर या फिर स्क्रिप्ट और डायलॉग लेखक के तौर पर या फिर क्रिएटिव कंसल्टेंट के तौर पर।
दिनेश ठाकुर फिल्म ज़रूर कर रहे थे, लेकिन उनकी मंजिल रंगमंच थी। मुंबई में रंगमंच की दुनिया में जमने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। उस वक्त मुंबई में ‘इप्टा’ का बड़ा नाम था। प्रसिद्ध रंग निर्देशक सत्यदेव दुबे के निर्देशन में इप्टा के लगातार नाटक हो रहे थे। नाटक करने के लिए दिनेश ठाकुर ने सभी निर्देशकों से मुलाकात-बात की, लेकिन कहीं बात बनी नहीं। सब तरफ से निराश होकर, उन्होंने खुद ही नाटक करने का फैसला किया। साल 1976 में सुरेन्द्र गुलाटी के लिखे नाटक ‘शाबाश अनारकली’ से वे मुंबई में रंगमंच पर उतरे। इस नाटक के साथ ही उनका नाट्य ग्रुप ‘अंक’ भी अस्तित्व में आया।
दिनेश ठाकुर ने अपने नाटक का पहला प्रोडक्शन ‘अंक’ के बैनर पर ही किया। इस नाटक के सफल प्रदर्शन के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। शुरुआत में उन्हें रंगमंच के अंदर जमने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। पैसे के लिए उन्होंने दुर्गा पूजा और गणेशोत्सव तक में नाटक किए। रंगमंच पर दिनेश ठाकुर की मेहनत आहिस्ता-आहिस्ता रंग लाई और उनके पास नाटक के ऑफर्स आने लगे। अपने प्रोडक्शन हाउस ‘अंक’ के बैनर पर दिनेश ठाकुर ने ‘बाकी इतिहास’ (लेखक—बादल सरकार), ‘कागज की दीवार’, ‘बीवियों का मदरसा’, ‘आला अफसर’, ‘कमला’ (लेखक—विजय तेंदुलकर), ‘जिन लाहौर न देख्या’ (लेखक—असगर वजाहत), ‘पगला घोड़ा’ (लेखक—बादल सरकार), ‘जात ही पूछो साधो की’ (लेखक—विजय तेंदुलकर), ‘खामोश ! अदालत जारी है’ (लेखक—विजय तेंदुलकर), ‘शह या मात’ (लेखक—बीएम शाह), ‘रक्तबीज’ (लेखक—शंकर शेष), ‘आधे अधूरे’ (मोहन राकेश), ‘टोपी शुक्ला’ (लेखक—राही मासूम रजा), ‘हाय मेरा दिल’, ‘महाभोज’ (लेखक—मन्नू भंडारी), ‘हंगामाखेज’ (लेखक—आगा हश्र काश्मीरी), ‘जाने न दूंगी’, ‘जीया जाए ना’, ‘हमेशा’, ‘हम दोनों’ समेत 60 नाटकों का निर्देशन किया। पर उन्हें असल पहचान और प्रसिद्धि नाटक ‘तुगलक’ (लेखक—गिरीश कर्नाड) से मिली।
साल 1988 में पहली बार प्रदर्शित हुआ, उनका यह नाटक इतना कामयाब हुआ कि मुंबई में 18 दिन के अंदर इसके 30 शो हुए और 23 प्रदर्शन पूरी तरह से हाउसफुल। मुंबई रंगमंच के इतिहास में सचमुच यह एक बड़ी घटना थी। ‘तुगलक’ की कामयाबी के बाद, थियेटर में दिनेश ठाकुर के कदम रूके नहीं, बल्कि आगे और आगे बढ़ते चले गए। इस नाटक के बाद उनका नाटक ‘महाभोज’ आया और इसे भी ‘तुगलक’ की तरह कामयाबी हासिल हुई। अंग्रेजी नाटक ‘सेन्ड मी नो फ्लावर’ का हिंदी में रूपान्तरण ‘हाय मेरा दिल’ दिनेश ठाकुर का एक और लोकप्रिय नाटक था। इस नाटक की लोकप्रियता का आलम यह था कि मुंबई के पृथ्वी थियेटर में साल 1980 में शुरू किए गए इस नाटक के 5 महीने में ही 100 शो हो गए थे। इस नाटक के देश भर में एक हजार से ज्यादा शो हो चुके हैं, लेकिन इस नाटक की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। यह नाटक जहां भी होता है, दर्शकों का दिल जीत लेता है।
उस वक्त जब मुंबई के रंगमंच पर गुजराती और मराठी नाटक राज कर रहे थे, वे दिनेश ठाकुर ही थे जिन्होंने दर्शकों को हिंदी रंगमंच की तरफ दोबारा मोड़ा। हिंदी नाटकों के प्रति उनके अंदर दिलचस्पी जगाई। दिनेश ठाकुर अपने नाटकों में समय के मुताबिक बदलाव करने के बड़े हामी थे। उनका मानना था कि ‘‘नाटक में समय के साथ-साथ नवीनता जरूरी है।’’ वहीं नाटक में प्रयोगधर्मिता के बारे में उनका ख्याल था, ‘‘मैं ऐसे प्रयोगधर्मी काम को गलत मानता हूं, जो आप कर रहे हैं, लेकिन दर्शकों को कुछ समझ में नहीं आ रहा।’’ हो सकता है कि दिनेश ठाकुर की इस बात से सब इत्तेफाक न रखें। उनकी रंगमंच पर अपनी एक अलग सोच थी और इस सोच के ही मुताबिक उन्होंने नाटक निर्देशित किए। वे जब भी निर्देशन के लिए कोई नाटक चुनते, तो उसमें यह जरूर देखते कि मनोरंजन के साथ-साथ उसमें दर्शकों के लिए एक ऐसा संदेश हो, जो उन्हें सोचने पर मजबूर करे। रंगमंच के जानिब दिनेश ठाकुर का जुनून गजब का था।
एक बार जब वे पूरी तरह से रंगमंच में जम गए, तो उन्होंने फिल्मों से बिल्कुल किनारा कर लिया। रंगमंच न सिर्फ दिनेश ठाकुर की जिंदगी था, बल्कि जीने का सहारा भी था। अपने इंटरव्यू में वे अक्सर यह बात कहते थे, ‘‘थियेटर मेरी सांसें हैं, जिसके बिना मैं एक कदम आगे नहीं चल सकता।’’ जिंदगी के रंगमंच पर एक लंबा रोल निभाकर, 20 सितम्बर, 2012 को दिनेश ठाकुर पर्दे के पीछे ओझल हो गए। उनसे थियेटर तभी छूटा, जब उनके जीवन की आखिरी सांस टूटी। दिनेश ठाकुर की दिली तमन्ना थी कि गुजराती और मराठी रंगमंच की तरह हिंदी रंगमंच भी आत्मनिर्भर बने। आत्मनिर्भरता वे इसलिए जरूरी मानते थे कि ‘‘जिस दिन सरकारी अनुदान मिलना बंद हो जाएगा या कोई स्पॉन्सर नहीं मिलेगा, तो उस पर निर्भर रहने वाला रंगकर्म भी बिखर जाएगा।” आज देश में हिंदी रंगमंच की जो हालत है, उसमें दिनेश ठाकुर की यह बात सौ फीसद सही साबित हुई है।
(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)
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