Saturday, April 20, 2024

डाॅ. श्याम बिहारी राय: प्रकाशन जगत का ध्रुवतारा

डाॅ. श्याम बिहरी राय का जाना मात्र एक प्रकाशक का जाना नहीं है बल्कि यह प्रकाशन के साथ समाज, साहित्य आौर विचार की दुनिया की बड़ी क्षति है। उन्हें सामान्य प्रकाशक के रूप में न कभी देखा गया और न वे ऐसा थे। आमतौर पर यह दुनिया बाजार के अधीन है। लेखकों की प्रकाशकों के साथ शिकायत भी रहती है। पर डाॅ. राय ने इसे विचार की दुनिया बनाया और मकसद से जोड़ा। इसी आधार पर उनका लेखकों से सम्बन्ध था तथा अपने संस्थान के सहयोगियों से भी। 

वे उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले थे जो एक समय कम्युनिस्ट आंदोलन का गढ़ था। सरयू पाण्डेय, जेड ए अहमद जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और वामपंथी नेताओं की इस भूमि ने उन्हें  बनाया था। इसी जिले के बीरपुर गांव में 1936 में उनका जन्म हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा मुहम्दाबाद स्थित स्कूल व कालेज में हुई। बाद में वे कानपुर आ गये जहां उन्होंने आगे का अध्ययन किया। अध्यापन कार्य से भी जुड़े। कानपुर उत्तर भारत के मैनचेस्टर के रूप में जाना जाता था। उनका सम्पर्क  कम्युनिस्ट नेताओं से हुआ। गाजीपुर से लेकर कानपुर की इस जीवन यात्रा ने उनके वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण किया। आगे सागर (मप्र) विश्व विद्यालय से नंददुलारे बाजपेई के निर्देशन में अपना शोधकार्य पूरा कर वे दिल्ली आ गए। रोजगार की तलाश में उन्होंने अनेक स्थानों पर कार्य किया। पत्रिकाओं के लिए अनुवाद किये। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मैकमिलन प्रकाशन में हिन्दी संपादक की नौकरी की। 

मैकमिलन का हिन्दी विभाग जब बंद हुआ तो उन्होंने स्वंत्रत रूप से प्रकाशन की शुरुआत की। उद्देश्य था विश्व साहित्य की ऐसी महत्वूपर्ण पुस्तकें जो हिन्दी में अनुपलब्ध हैं, उनका अनुवाद करा कर हिन्दी के पाठकों तक पहुंचाई जाय। इसके लिए आवश्यक था एक प्रकाशन संस्थान। ग्रन्थ शिल्पी के शुरू करने के पीछे यही योजना थी। यह समय था जब पीपुल्स पब्लिक हाउस प्रेस बन्द हो चुका था। सोवियत संघ के विघटन के बाद प्रगतिशील साहित्य के लिए यह कठिन और काफी विपरीत समय था। ऐसे में ग्रंथ शिल्पी का आरम्भ इस अन्तराल को भरना था। यह साहसिक कदम था। उन्होंने पाठकों, अनुवादकों, बाजार आदि सब का एक स्पष्ट नजरिया लिए प्रकाशन कार्य शुरू किया। आज भी हिन्दी के बडे़ बडे़ प्रकाशन संस्थान जब अनुवाद कराकर किताबें छापने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं तब आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व उन्होंने अपनी जिद, निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया। साधारण जीवन, सामिष भोजन, समय की पाबंदी, दिखावे की दुनिया से दूर वे फौलादी इरादों के व्यक्ति थे। पुस्तकों के चयन और प्रकाशन में उनकी सृजनात्मकता, योग्यता और कार्यकुशलता दिखती है। इस मायने में वे बाजार के नहीं विचार के प्रकाशक कहे जा सकते हैं। 

पुस्तकों के प्रकाशन के साथ-साथ उन्होंने अनेक अनुवादकों को भी तैयार किया। व्यवसाय के साथ उसूलों पर कायम रहना, अनुवादकों का सम्मान, और जरूरत मंद छात्र-छात्राओं व अनुवादकों के प्रति स्नेह तो उनके जीवन के मूल्य ही थे। उन्होंने सबसे पहले शिक्षा के क्षेत्र में आवश्यक विश्व प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित कीे। फिर शिक्षाशास्त्र, इतिहास, समाज विज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र, जनसंचार माध्यम, कला, सिनेमा, महिला विमर्श, मजदूर, भूमंडलीकरण आदि लगभग सभी विषयों पर अतिमहत्वपूर्ण और कई अनुपलब्ध पुस्तकों का अनुवाद छापा । अनुवादकों के प्रति यह उनका सम्मान था कि उन्होंने उनका नाम कवर पेज पर दिया। सभी के बीच वे ‘राय साहब’ के नाम से लोकप्रिय थे। सहृदयता और लोकतांत्रिकता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। यह संस्थान के अपने स्टाफ व मित्रों के साथ उनके व्यवहार में देखा जा सकता है। स्टाफ का कोई यदि एडवांस ले लेता तो वह पैसा वेतन से नहीं काटते। एक बार उनके यहाँ प्रूफ रीडिंग करने वाले रमेश आजाद को पैरेलिसिस हो गया। ऐसी स्थिति में लगभग पाँच वर्ष तक उनके घर निश्चित समय पर वेतन भिजवाना राय साहब ने जारी रखा। इस व्यवसायिक व बाजारवादी व्यवस्था में शायद ही हिंदी या अंग्रेजी का कोई प्रकाशक ऐसा करे। कई प्रगतिशील पत्रिकाओं को वह नियमित विज्ञापन देकर आर्थिक सहयोग भी करते। इसके दो लाभ थे। एक, मित्रों को मदद और दूसरा, प्रकाशन की पुस्तकों का पाठक वर्ग तक प्रचार। एक बार तो एक अनुवादक को संकट की घड़ी में उन्होंने अनुवाद की पूरी पचास हजार की राशि एडवांस दे दी। ऐसे प्रकाशक दुर्लभ ही मिलेंगे।

कुछ बातें डाॅ. राय के प्रकाशन के लिए पुस्तकों को लेकर। उन्होंने शुरुआत शिक्षा सम्बंधी पुस्तकों से की। शिक्षा के क्षेत्र में जॅार्ज डैनीसन, मारिया मांटेसरी, पाॅलो फ्रेरा, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, कृष्ण कुमार, अनिल सदगोपाल, इतिहास में रोमिला थापर सहित मार्क ब्लाख, अंतोनियो ग्राम्सी, समीर अमीन, नौम चाॅम्स्की ऐसे विद्वानों की किताबों का अनुवाद छापा। इसके साथ फिदेल कास्त्रो, माओ त्से तुंग को भी छापा। दलित विचारक आनंद तेलतुंबडे व मजदूर इतिहास पर सुकोमल सेन की प्रामाणिक पुस्तक, मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह, विख्यात इतिहासकार इरफान हबीब आदि की भी महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित की। 1990 के आसपास प्रकाशन की दिशा में वे आगे आये। इस 30 साल की अवधि में लगभग 250 किताबें प्रकाशित की। 20-25 किताबें अभी उनकी योजना में थीं। उन्होंने केवल अनुवादकों को ही आगे नहीं बढ़ाया बल्कि अपने यहां लम्बे अरसे तक कार्य करने वाले शिवानंद तिवारी को नया प्रकाशक भी बनाया। 

डाॅ. श्याम बिहारी राय वास्तव में प्रगतिशील विचार और प्रकाशन के क्षेत्र में हमेशा याद किये जायेंगे। अनेक वामपंथी विचारकों, विद्वानों, विदुषियों व प्रगतिशील चितंकों, लेखकों, सांस्कृतिक संगठनों व संस्थाओं के साथ उनका सजीव सम्पर्क था और सभी के बीच उन्हें सम्मान प्राप्त था। विगत तीन-चार सालों से नेत्र ज्योति कम होने के बावजूद वह बराबर प्रकाशन के कार्यालय में आते रहे। 10 मार्च 2020 को अंतिम सांस लेने के दो-तीन दिन पहले तक वह सक्रिय रहे। हिंदी की प्रगतिशील दुनिया और प्रकाशन जगत में वे हमेशा याद किये जायेंगे। वे अपने अविस्मरणीय कार्यों व योगदान की वजह से सदा एक ध्रुवतारे की तरह रौशनी बिखेरते रहेंगे। 

(लेखक अवधेश कुमार सिंह सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। डॉ. श्याम बिहारी राय के साथ उनका बेहद नज़दीकी रिश्ता था।)

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