संविधान की शपथ लेकर बनी सरकारें महाभोज का आयोजन करती रहती हैं। सत्ता के इस महाभोज का खुराक वो साधरण मानुष होता है जो वोट देकर सरकार बनाता है बदले में उसकी जिंदगी व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसकर असमय दम तोड़ देती है। कभी उसकी गर्दन उतार ली जाती है कभी जिंदा जला दिया जाता है तो कहीं मॉब लीचिंग करवा दी जाती है। सत्ता के पास आदमी को मारने के ज्यादा और जिंदा रखने का बेहद कम जरिये हैं। सत्ता आदमी के अंदर उतना ही जान चाहती है कि वो बस किसी तरह मताधिकार का प्रयोग कर सरकार चुने और बदले में मरने के लिए तैयार हो जाए। झूठ, कपट, भूख, लूट, आगजनी, दंगे सरकारों की देन होती हैं ताकि जरूरी मुद्दे पीछे छूट जाएं।
आजादी के बाद से चुनी सरकारों का लेखा-जोखा कुछ ऐसा ही रहा है। गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों ने ले ली दमन चक्र चलता चला आ रहा है। सत्ता के इस मानव वधी चरित्र को लिखने का साहस आज समर्पण में बदल गया है पुरस्कार, सम्मान के आगे यथार्थ का सच बेमानी बनकर रह गया है। सत्ता के गुण गाइए और पुरस्कार ले जाइए का तराना बुद्धिजीवियों को खूब भा रहा है ऐसे में मन्नू भंडारी याद आती हैं।
सतह के सच को लिखने वाली लेखिका मन्नू भंडारी का 1969 में लिखा उपन्यास सत्ता की बर्बरता और साजिशों का जिवंत दस्तावेज है। परसों उनका निधन हो गया। 4 अप्रैल 1931 मध्य प्रदेश के भानपुरा में जन्मी मन्नू भंडारी का रचना संसार भ्रूण हत्या कर दिए गए अधिकारों की आवाज है। वो नहीं रहीं लेकिन सत्ता का महाभोज नृशंस तरीके से जारी है जारी है लोगों का मरना … महाभोज की पृष्ठभूमि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सरोहा गांव है जहां बिसेसर बिसू की लाश पड़ी है और उस पर सत्ता का खेल जारी है।
बिसू को मारने वाली भी सत्ता और बिसू को इंसाफ दिलाने के नाम पर तमाशा करने वाली भी सत्ता … नाम बदल दीजिए आज भी लाशें जहां-तहां पड़ी हैं और जांच जारी है। क्या सत्ता के रहते महाभोज का अंत संभव है? इस सवाल का जवाब जरूर खोजिए। चुनाव नजदीक हैं और हथकंडे जारी। कितने बिसेसर कहां गिरे मिलेंगे पता नहीं खैर अपने उपन्यास के जरिए राजनीति के खोखलेपन और दोगलेपन से भेंट कराने वाली मन्नू दादी को नमन और श्रद्धांजलि क्यों कि डिग्री दिलाने वाली किताबें शायद इस सच को मुझे और आपको कभी नहीं समझा पाएंगी।
कहने का मतलब आप महाभोज पढ़ेंगे क्या?
(भास्कर गुहा नियोगी पत्रकार हैं और आजकल वाराणसी में रहते हैं।)