आजादी की अलख जगाती एक जरूरी किताब

सैंतालिस साल पहले भारत में लागू हुआ था आपातकाल। तब उसे लागू करने वाली सरकार ने 19 महीनों में ही हाथ खड़े कर दिए थे। कुछ लोग मानते हैं कि तब सरकार निश्चिंत हो गई थी कि देश की जनता ने स्वैच्छिक दासता को स्वीकार कर लिया है। इसलिए अब वह उसी निजाम के साथ खड़ी होगी जिसने आपातकाल लागू किया। लेकिन मामला पलट गया और जनता ने उस पार्टी को सत्ता से हटा दिया। आज देश में घोषित तौर पर कोई आपातकाल नहीं लागू है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि देश का अमृत काल चल रहा है। लेकिन आठ सालों से 96 महीनों से हर दिन नागरिकों की आजादी पर कोई न कोई घात हो रहा है। जनता उस घात को सहते हुए उसकी अभ्यस्त होती जा रही है। इसीलिए स्वतंत्रता पर तमाम तरह से हमलों के बावजूद जनता उसी पार्टी को चुन रही है और उसी नेता को सिर पर बिठाए हुए है जिसके नेतृत्व में नागरिक स्वतंत्रता धकिया कर कैद की जा रही है।

आखिर ऐसा क्यों होता है ? इसी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करती हुई एक पुस्तक हमारी आंख खोलने की कोशिश कर रही है। पुस्तक है एतिने द ला बोइसी की स्वैच्छिक दासता। इसका अनुवाद किया है प्रसिद्ध चिंतक नंदकिशोर आचार्य और इसे अहिंसा शांति ग्रंथ माला के तहत प्राकृत भारती अकादमी ने इसी वर्ष प्रकाशित किया है। आज से तकरीबन 470 साल पहले फ्रांस के इस युवा विचारक ने जो निबंध लिखा वह एक कालातीत निबंध बन गया। हालांकि वह निबंध उसके मात्र सैंतीस साल के अल्पायु जीवन में प्रकाशित नहीं हो पाया लेकिन वह तानाशाह को पहचानने और उसे चुनौती देने की एक कुंजी है। इस निबंध के आइने में मानव सभ्यता अपने अतीत को देख भी सकती है और अपना भविष्य तलाश भी सकती है। क्योंकि उसमें तानाशाह को पहचानने के सूत्र ही नहीं जनता को जगाने की अलख भी है।

बोइसी कहता है—-

तुम पर इस तरह प्रभुत्व रखने वाले के पास दो आंखें, दो हाथ केवल एक वैसा ही शरीर है, जैसा तुम नगरों में रहने वाले असंख्य लोगों में से प्रत्येक के पास है। उसके पास तुम्हें नष्ट करने के लिए तुम्हारे द्वारा प्रदत्त शक्ति से अधिक निश्चय कुछ नहीं है। तुम पर निगहबानी रखने के लिए इतनी आंखें उसे कहां से मिल जाती हैं यदि तुम उसे न दो ?  तुम्हारे हाथों के बिना तुम्हें पीटने के लिए उसे इतने हाथ कहां से मिल सकते हैं ? तुम्हारे नगरों को वह जिन पांवों से रौंदता है वे स्वयं तुम्हारे सिवा किसके हो सकते हैं ? तुम्हारे अलावा किस जरिए से तुम्हारे ऊपर इतना प्रभुत्व रख सकता है ? यह तुम्हारा ही सहयोग न हो तो वह कैसे तुम पर आक्रमण कर सकता है ?

तानाशाह से मुक्ति का मार्ग सुझाते हुए लेखक कहता हैः—

तुम स्वयं को पशुओं के लिए भी असहनीय इन अपमानों से किसी कार्रवाई से नहीं, केवल स्वतंत्र हो सकने की इच्छा से मुक्त कर सकते हो। उसकी आज्ञा न मानने का संकल्प कर लो और तुम स्वतंत्र हो। मैं यह नहीं कह सकता कि तुम उसे गिराने के लिए अपने हाथ को तानाशाह की गर्दन पर रखो। बस केवल इतना ही कि तुम उसका समर्थन न करो। तुम देखोगे कि तब वह किसी आधारहीन विशालमूर्ति की तरह अपने ही भार से गिर कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।

यह पुस्तक पिछली साढ़े चार शताब्दियों से भिन्न-भिन्न रूपों में समाज के सामने आती रही है। यह मूल रूप में बोइसी(1530-1563) ने तब लिखी थी जब उनकी उम्र महज 23 साल की थी। उस समय वे ओरलींस विश्वविद्यालय में कानून के विद्यार्थी थे। तब उसका शीर्षक था द डिस्कोर्स आफ वालन्टरी सर्विट्यूड। बाद में यह पुस्तक `विल टू बांडेज’, `एंटी डिक्टेटर’, `दि पोलिटिक्स आफ ओबीडियंस’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। यह एक वाक्य में यही संदेश देती है कि उसकी आज्ञा मानना छोड़ दो और तुम स्वतंत्र हो।

वह लिखता हैः—

करोड़ों लोग बदकिस्मती से अपनी गर्दन जुए के नीचे रखे रहते हैं। अपने से अधिक शक्ति-बाहुल्य से बाधित नहीं। बल्कि स्पष्टतः ऐसे व्यक्ति के नाम से आनंदित और मोहित, जिसकी शक्ति से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह उन्हीं में से एक है। जिसकी अमानवीयता और निर्दयता के कारण वे उसके गुणों की सराहना नहीं कर सकते। मानव जाति की एक कमजोर चारित्रिकता यह है कि हमें बहुधा शक्ति के प्रति आज्ञापालक होना पड़ता है।

इसलिए प्रजाजन स्वयं ही अपनी अधीनता को स्वीकृति देते, बल्कि स्वयं ही उसके कारण बनते हैं क्योंकि आज्ञापालन न करने से वे अपनी अधीनता से मुक्त हो जाते हैं। लोग स्वयं को अपने को दास बनाते हैं, स्वयं अपना गला काट लेते हैं क्योंकि जब उनके सम्मुख दासत्व और स्वतंत्रता के बीच चयन का सवाल आता है तो अपनी स्वतंत्रता को छोड़कर कंधों पर जुआ रखना स्वीकार कर लेते और अपने दुर्भाग्य को सहमति देते बल्कि उसका स्वागत करते हैं।

बोइसी मानते हैं कि तानाशाह तीन प्रकार के होते हैं;  कुछ जनता द्वारा चुने जाकर अपनी गर्वीली स्थिति प्राप्त करते हैं, कुछ सेनाओं की ताकत से और कुछ उत्तराधिकार के द्वारा। ……………….यद्यपि सत्तासीन होने के उनके तरीके अलग अलग होते हैं लेकिन शासन का ढंग कमोवेश समान होता है। निर्वाचित सत्तासीन इस तरह व्यवहार करते हैं मानो वे बैलों को हांक रहे हों। विजेता तानाशाह जनता को अपना शिकार बना लेते हैं और पैतृक सत्ता पाने वाले अपनी जनता के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वे उनके प्राकृतिक दास हों।

बोइसी तानाशाही और दासता की पहचान करते हुए न सिर्फ यह सिद्ध करते हैं कि प्रकृति का हर प्राणी स्वतंत्र रहना चाहता है। पशु पक्षी सभी को अपनी स्वतंत्रता से प्यार है। जब भी उन्हें किसी प्रकार बंधक बनाया जाता है तो वे प्रतिरोध करते हैं। लेकिन बंधक बनाए जाने के बाद धीरे-धीरे वे स्वैच्छिक दासता को स्वीकार कर लेते हैं। यहीं से तानाशाही का जन्म होता है। लेकिन इसी के साथ वे असहयोग और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का विचार भी प्रस्तुत करते हैं।

महात्मा गांधी के दर्शन का आंदोलन का यही मूल मंत्र था। महात्मा गांधी ने बार बार कहा है कि अपने को जब स्वतंत्र मानना शुरू कर दीजिए उसी दिन से गुलामी हट जाएगी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने इस जादुई मंत्र को लोगों के सीने में भर दिया था।

बोइसी और फिर थोरो का अहिंसक प्रतिरोध का यह विचार महात्मा गांधी तक कैसे पहुंचा इस पर तमाम तरह की चर्चाएं हैं। एक बात जरूर है कि महात्मा गांधी अपने से तीन सदी पहले हुए इस विचारक से परिचित थे इसका कहीं जिक्र नहीं मिलता। बोइसी के विचार से तोलस्ताय जरूर परिचित थे और तोलस्ताय ने अपनी अंतिम कृति `ला आफ लव एंड ला आफ वायलेंस’ में एक लंबा उद्धरण दिया है। बोइसी के विचार अमेरिकी चिंतक थोरो के विचारों से भी मिलते हैं। लेकिन यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों का बोइसी से परिचय था। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि तोलस्ताय के माध्यम से सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन के विचार उन तक पहुंचे थे। हालांकि तथ्य यह भी है कि महात्मा गांधी ने तोलस्ताय और थोरो के लेखन से संपर्क करने से पहले ही दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का प्रयोग शुरू कर दिया था।

ऐतिहासिक प्रेरणा का यह सिलसिला चाहे जैसा रहा हो लेकिन बोइसी के विचार आज भी मानवीय स्वतंत्रता की अलख जगाने की क्षमता रखते हैं। पुस्तक में नंदकिशोर आचार्य की 20 पेज की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है। वह तानाशाही के खतरे और स्वतंत्रता के विचार और उसके प्रतिरोध के दर्शन का वैश्विक संदर्भ प्रस्तुत करती है। पुस्तक के कवर पर दिया गया हेनरी डेविड थोरो का यह कथन आज के युग का आप्त वाक्य हो सकता हैः—-

मैं समझता हूं कि हमें मनुष्य पहले होना चाहिए, प्रजा बाद में। विधान का सम्मान पैदा करना उतना उचित नहीं है, जितना कि सत्य का सम्मान पैदा करना। मुझे यह अधिकार होना चाहिए कि मैं जिस समय उचित समझूं, उस समय उसी कर्तव्य का पालन कर सकूं। किसी भी स्थिति में मेरा कर्तव्य यह है कि मैं जिस अन्याय की निंदा करता हूं, उसे स्वयं भी सहयोग न दूं। 

स्वैच्छिक दासता, एतिने द ला बोइसी, अनु. नंदकिशोर आचार्य ; प्राकृत भारती अकादमी जयपुर, पृष्ठ : 72, मूल्य 240.

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अरुण कुमार त्रिपाठी
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अरुण कुमार त्रिपाठी