Wednesday, April 24, 2024

दमघोंटू गलियों की बेआवाज़ चीख है ‘गली गुलियाँ’ 

नॉर्वे के पेंटर एडवर्ड मंच की एक पेंटिंग सभी ने देखी होगी। दुनिया में सबसे महंगी बिकने वाली पेंटिंग में इसे शुमार किया जाता है। इसमें एक स्त्री किसी पुल पर खड़ी है और चीख रही है। उसका खुला हुआ मुंह उसकी चीख की तीव्रता, वेग और गहराई को दर्शा रहा है। मंच की इस पेंटिंग का शीर्षक था स्क्रीम यानी चीख। मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘गली गुलियाँ’ भी एडवर्ड मंच की चीख की मानिंद ही है। इस चीख में कोई आवाज़ नहीं। कोई शोर नहीं। यह एक मूक चीख है, पर उसकी आवाज़ बहुत तीखी है। फिल्म ख़त्म होने के बाद भी चीख सुनाई देती है। यह चीख सिर्फ सुनाई नहीं देती, वह दिखती भी है, उसका स्वाद भी मुंह में बना रहता है, फिल्म के ख़त्म होने के घंटों बाद भी।

मशहूर शायर जौक ने लिखा था: ‘कौन जाए जौक, दिल्ली की गलियां छोड़ के’। ‘गली गुलियाँ’ में दिल्ली की गलियों की घुटन को तो छुआ जा सकता है। फिल्म के किरदार मानों चीख कर कहते हैं: कब और कैसे निकलें दिल्ली की गलियाँ छोड़ के। मनोज बाजपेयी फिल्म में खुद्दूस हैं। अस्तित्ववादी नायक की तरह दुनिया में ‘फेंके गए’ और इस बात से बिल्कुल अनजान कि उन्हें आखिर क्यों यहाँ, दिल्ली की दमघोंटू गलियों में ‘फेंक दिया गया’ है। पूरी फिल्म में मनोज अचंभित और किसी सदमे का शिकार दिखते हैं। चेहरे पर एक ही जैसा हैरानी वाला भाव। जैसे सभी पात्र अभी-अभी किसी सदमें से गुजरे हों, हैरान हों। अस्तित्ववादी ‘आउटसाइडर’ की तरह। दुनिया के तौर तरीकों से अनभिज्ञ और परेशान। अपनी ही खोल में जीने वाले। किसी गहरी सोशल एंग्जायटी का शिकार। अनवरत दुश्चिंता से परेशान। सशंकित और भयभीत।   

फिल्म का मुख्य पात्र खुद्दूस (मनोज बाजपेयी) पुरानी दिल्ली की पतली गलियों को क्लोज सर्किट कैमरों से देखता रहता है। ये गलियां उसे आकर्षित भी करती हैं, और परेशान भी। उसका मन भी इन्हीं गलियों की तरह किसी भूलभुलैया जैसा है। उसके लिए ये गलियां एक पलायन भी हैं, और बीमारी भी। ये गलियां और उनमें फंसा हुआ उसका मन। लगता है जैसे बहुत पहले ही उसने वास्तविक दुनिया से अपना मुंह मोड़ लिया है, उसकी तरफ अपनी पीठ कर ली है और अब सिर्फ यह क्लोज सर्किट कैमरा ही एक सेतु बना हुआ है, उसके और जीवन की वास्तविकता के बीच। कैमरे की बदौलत वह जीवन के साथ, उसके बीच भी रह सकता है और उससे दूर भी। उसमें जिए बगैर वह उसे देख सकता है। आकर्षण और विकर्षण के बीच फंसे हुए एक असहाय इंसान की थेर गाथा है ‘गली गुलियाँ’। समाज के प्रति उसका एक रुग्ण लगाव है, और एक रुग्ण अलगाव भी। उसका दोस्त गणेशी उसे किसी तरह पागलपन में खो जाने से रोकता है, एक मां की तरह। पर किसी बिंदु पर जैसे वह भी उससे हार मान लेता है।   

खुद्दूस उस पुराने शहर की बेतरतीब गलियों को जीता है। उसकी देह और मन उन गलियों की तरह ही भ्रमित और उदास हैं। गलियां बाहर हैं, उसके मन में भी हैं। उसका मन ही पुरानी दिल्ली की गलियों-सा है। दोनों एक दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं। बरसों का अकेलापन और टेक्नोलॉजी उसके जीवन को और अधिक जटिल बनाते हैं। इसी दमघोंटू माहौल में वह इद्दु की चीखें, उसके गालीबाज पिता की आवाजें सुनता है। इद्दु अपने परिवार से, इस लिजलिजे माहौल से दूर हटना चाहता है और इस बात को ज़ाहिर भी करता है, शब्दों में। पर  खुद्दूस इसी माहौल को महसूस करते हुए भी इसकी वेदना को व्यक्त नहीं कर पाता। ज़माने ने उसकी जुबान को जैसे जंग लगा दिया है। उसे मूक बना दिया है। वह लगातार एक सदमें में है। देखता है, महसूस करता है, पर बोल नहीं पाता।

फिल्म निदेशक दीपेश जैन की यह पहली फीचर फिल्म है। इसे एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के रूप में प्रचारित किया गया है। किसी पात्र के मनोवैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण के रूप में ऐसी फिल्म शायद लम्बे समय से नहीं आई। कहीं- कहीं यह फिल्म पंकज त्रिपाठी की ‘लाली’ की याद दिलाती है। कम शब्द, ऊब और एक अजीब किस्म की मूक बेचैनी। एक रुग्णता, जिसके लिए कोई शब्द नहीं। बस बोझ में पिसते इंसान की शब्दविहीन चीख है। उसका गझिन अकेलापन है। आस पास के समाज को देखता उसका अचंभित मौन है। गहरी उदासी है और उसकी अभिव्यक्ति की व्यर्थता का अहसास है। यह पिछले कुछ बरसों में आने वाली सबसे उम्दा गंभीर फिल्मों में है, इसमें कोई संदेह नहीं।

मनोज बाजपेयी बोलते कम हैं, पर उनकी देह भाषा खूब बोलती है, और लोग सुन भी पाते हैं। उनका मुखर मौन शब्दों की कमी को बखूबी पूरा करता है। जिस तरह से मनोज बाजपेयी घुटा घुटा महसूस करते हैं, ठीक वैसे ही फिल्म के दर्शक भी क्लॉस्ट्रोफोबिक महसूस करते हैं। फिल्म की खूबी यही है कि उसके पात्रों की तरह दर्शक को भी यही बेचैनी महसूस होती है कि कब यह घुटन ख़त्म हो। कब वे अपनी मानसिक गलियों से बाहर निकलें, कब वे दिल्ली और अपने मन की बंद और सांस रोक देने वाली गलियों से मुक्ति पाएं। फिल्म की गलियां भौतिक और मानसिक दोनों स्तर पर ही दमघोंटू हैं।

दिल्ली की गलियों का एक रोमांस है। जो वहां रहे हैं, वे उनकी अपने तरीकों से तारीफ करते हैं। अपने पहले प्यार की, अपनी पढाई लिखाई की, अपने बचपन की। एक तरह से गली गुलियाँ इस रोमांस के गुब्बारे में पिन चुभोने का काम भी करती है। फिल्म की गलियों में हर इंसान अकेला है, एक द्वीप की मानिंद है। अपने अजीबोगरीब माहौल में धुएं के बीच, नशे के बीच किसी तरह से जीता है। लोगों में उसकी दिलचस्पी तो है, पर दूर से। एक कैमरे से वह बस उनको देखता है। उनके बीच जाकर जीने में उसे सोशल एंग्जायटी होती है। फ़ोन उठाने से वह डरता है। सड़क पर चलते चलते वह अचानक भागने लगता है। उसे लगता है, समाज का हर व्यक्ति उसे ताक रहा है। उसकी कमजोरियों को समझ रहा है। अपने भ्रमों को वह भ्रम नहीं समझता, सचाई समझता है।

खुद्दूस इस माहौल में भी परेशान है एक बच्चे के लिए, जो पारिवारिक हिंसा का शिकार हो रहा है। वह खुद मानसिक रूप से असंतुलित है, पर इस बच्चे की फ़िक्र उसे लगातार सताती रहती है। हालाँकि वह उसके बारे में कुछ कर नहीं पाता पर फिर भी यह फ़िक्र एक तरह से उसके जीने का मकसद बनी हुई है। वह बच्चा पारिवारिक हिंसा का शिकार है, पर खुद्दूस के पास चोरी छिपे उसे देखने और उसकी खबर लेने के सिवाय कुछ नहीं बचा।

उसका अकेलापन, मानसिक रुग्णता, अनसुलझी व्यक्तिगत परेशानियाँ, सीसी टीवी कैमरा में दिखती भूलभुलैया-सी संकरी और अंतहीन गलियां, बस यही सब है उसके पास, एक ऊब भरी ज़िन्दगी के क्रूर खालीपन को किसी तरह भरने के लिए। फिल्म की एक ख़ास बात और है कि इसका हर पात्र या तो उदासी का शिकार है, अपने अपने ढंग से उस उदासी को दूर करने की कोशिश में लगा है, या फिर उसके अंदर एक अजीब किस्म की नकारात्मकता और विषाक्तता है। इस विष का उसके पास कोई समाधान नहीं। वह बस उसे जिए जा रहा है। और यदि कोई समाधान है भी तो वह भावनात्मक उद्वेग के क्षणों से निकला होता है। व्यवहारिक धरातल पर टकरा कर वह चूर चूर हो जाता है।

पुरानी दिल्ली की उलझी हुई गलियों में खुद्दूस की बेचैनी, मानसिक रुग्णता और उलझनों को व्यक्त कर पाने में निर्देशक दीपेश जैन काफी हद तक कामयाब हुए हैं। इस फिल्म के दृश्य और गलियाँ भी इसके पात्र की तरह हैं। इस फिल्म को किसी बड़े शहर की चकाचौंध के बीच फिल्माया ही नहीं जा सकता था। गलियों की घुटन इसके पात्रों की अंदरूनी घुटन और बेचैनी को दिखाती है। दर्शकों तक भी यह घुटन खूब पहुँचती है। ऐसी फिल्म को एक सांस में देखना शायद ही मुमकिन हो। ‘गली गुलियाँ’ को रुक रुक कर देखना ही बेहतर है। प्राइम वीडियो पर इसके आने से यह लाभ हुआ है।

कुछ लोगों को यह बोर करे, तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। फिल्म एक ऐसी दुनिया की झलक दिखाती है, जहाँ सभी प्रताड़ित हैं, सभी की रूह पर गहरे ज़ख्म हैं। सभी खो गए हैं, अपने दर्द के साथ। उनके पास अपनी ज़िंदगी से बचने के ही रास्ते नहीं बचे हैं। बीमारी का इलाज, बीमारी से ज्यादा तकलीफदेह लगता है। ‘गली गुलियाँ’ में अस्तित्ववाद का दर्शन अपनी समूची निर्ममता के साथ खिल कर सामने आया है। थोड़े शब्द, ऊब और अजीब किस्म की मूक, शांत बेचैनी। रुग्णता। बोझ में पिसते अकेले इंसान की निःशब्द चीख। उदास अकेलापन। समाज की हरकतों को ताकता असहाय मौन। किसी किस्म की अभिव्यक्ति की व्यर्थता का भान। यह सब पूरी क्रूरता के साथ दर्शाया गया है। 

(चैतन्य नागर लेखक, अनुवादक और पत्रकार हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)        

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