भाषा की गुलामी खत्म किये बिना वास्तविक आज़ादी संभव नहीं

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राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के लिए आज़ादी का सवाल केवल अंग्रेजों से देश को मुक्त कराना भर नहीं था बल्कि उनके लिए आज़ादी व्यक्ति और समाज की मुक्ति का भी प्रश्न था। यह मुक्ति अपनी भाषा में ही संभव थी इसलिए वे अंग्रेजी से देशवासियों को मुक्त कराना चाहते थे। भाषा उनके लिए राष्ट्र की अभिव्यक्ति थी। भाषा के सवाल पर गांधी जी ने जितना विचार किया है उतना देश के किसी नेता ने नहीं किया चाहे वे राजेन्द्र बाबू नेहरू अम्बेडकर पटेल आदि क्यों न हों। यह अलग बात है कि हिंदी के स्वरूप को लेकर उनकी राय लोगों से अलग थी और उनकी हिंदुस्तानी को लेकर काफी विवाद भी हुआ लेकिन उनके भाषा प्रेम को जानना जरूरी है ।आखिर हिंदी से उनका क्या अभिप्राय था।

गांधी जी की मातृ भाषा गुजराती थी लेकिन हिन्दी में उनकी दिलचस्पी तुलसी दास के कारण उत्पन्न हुई थी। उन्होंने अपने भाषणों में अनेक बार तुलसी दास के महत्व का जिक्र किया है। चूँकि उनकी उच्च शिक्षा अंग्रेजी में हुईथी इसलिए वह हिन्दी बोलने में उतने पारंगत नहीं थे और हिन्दी साहित्य का पर्याप्त ज्ञान नहीं था लेकिन वे भाषा और साहित्य के मर्म को किसी भी बड़े लेखक से अधिक समझते थे और एक गहरी आलोचनात्मक दृष्टि भी रखते थे। इस दृष्टि से वे भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचन्द की तरह थे जो निज भाषा की बात कहते थे। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत 1915 में लौटे थे लेकिन 1903 में ही उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से इंडियन ओपिनियन नामक अख़बार अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी निकाला था और 1909 हिन्द स्वराज में यह लिखा था कि अंग्रेजी में शिक्षा देना गुलामी में डालना है गांधी जी के भारत आने से पहले देश में हिन्दी का एक वातावरण बन चुका था। कोलकाता में विलियम फोर्ट कालेज में सदल मिश्र और लल्लू लाल ने खड़ी बोली की नींव रख दी थी, भारतेंदु ,सितारे हिन्द और उस दौर के अन्य लेखकों ने हिन्दी की आधार भूमि तैयार कर दी थी। 1893 में काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना हो चुकी थी, 1902 से सरस्वती का प्रकाशन हो चुका था और 1910 में हिन्दी साहित्य सम्मलेन की भी स्थापना हो चुकी थी तथा पहले अधिवेशन का सभापतित्व पंडित मदन मोहन मालवीय ने किया था। इसमें रामचन्द्र शुक्ल की हिन्दी के महत्व को रेखांकित करती हुई रचना से ही सम्मलेन का शुभारम्भ हुआ था….इससे पता चलता है कि भारत में हिन्दी को लेकर एक नई चेतना विकसित हो गयी थी।

यह हिन्दी का नवजागरण काल था 1905 में माधव राव सप्रे के हिन्दी में लिखे लेख पर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चल चुका था….प्रेमचन्द का सोजे वतन 1907 में जब्त हो चुका था..संभव है महात्मा गाँधी को इन बातों की जानकारी हो या भारत आने पर जानकारी दी गयी हो और वे हिन्दी के महत्व एवं जरुरत को और अधिक तीव्रता से समझने लगे हों यद्यपि…..भारत आने के बाद उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में अंग्रेजी में ही भाषण दिया था लेकिन उन्होंने यह भी कहा था —-“मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे आज इस पवित्र नगर में इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना पड़ रहा है। यह शर्म की बात है। उन्होंने यह भी कहा था-हमने पिछले पचास साल अपनी अपनी भाषाओं के जरिये शिक्षा पाई होती तो हम आज किस स्थिति में होते तो आज भारत स्वतंत्र होता तब हमारे पढ़े लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी न होते बल्कि देश के हृदय को छूने वाली वाणी बोलते वे गरीब से गरीब लोगों के बीच काम करते और पचास वर्षों से उनकी उपलब्धि पूरे देश की विरासत होती। इस से ठीक एक दिन पहले पांच फरवरी 1996 को गांधीजी काशी नागरी प्रचारणी भी गये थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था –आप अदालत में अपना काम अंग्रेजी में चलाते हैं या हिन्दी में यदि अंग्रेजी में चलाते हैं तो मैं यह कहूँगा कि हिन्दी में चलायें। जो युवक पढ़ते हैं उनसे भी मैं यह कहूँगा कि वे प्रतिज्ञा करें कि हम आपस का पत्रव्यवहार हिन्दी में करेंगे। जिस भाषा में तुलसी दास जैसे कवि ने कविता की हो वह अवश्य पवित्र है उसके सामने कोई भाषा नहीं ठहर सकती। हमारा मुख्य काम हिन्दी सीखना है पर तो भी हम अन्य भाषाएं भी सीखेंगे अगर हम तमिल सीख लेंगे तो तमिल बोलने वालों को भी हिन्दी सिखा सकेंगे “

इस तरह भारत आते ही गाँधी जी ने हिन्दी के समर्थन में बोलना शुरू कर दिया था। तब तक न तो लखनऊ कांग्रेस हुआ था जहाँ से गांधीजी की विधिवत राजनीतिक यात्रा शुरू हुई थी और न चंपारण आन्दोलन हुआ था। इस से मालूम पड़ता है कि वह यह सोचकर भारत आये थे कि हिन्दी का प्रचार प्रसार करना है और उसे राष्ट्रभाषा बनाना है क्योंकि वही देश को एक जुट कर सकती है तथा वही बहुसंख्यक जनता की ही भाषा है। 1996 के दिसम्बर में लखनऊ कांग्रेस में वह गणेश शंकर विद्यार्थी ,मैथिली शरण गुप्त, बाल कृष्ण शर्मा नवीन ,जैसे लेखकों से मिले। वहाँ उन्होंने तमिल भाइयों से साल भर में राष्ट्रभाषा सीखने की अपील भी की। अगले दिन 28 दिसम्बर, 1996 को लखनऊ में अखिल भारतीय भाषा सम्मलेन में उन्होंने कहा –“ मैं गुजरात से आता हूँ। मेरी हिंदी टूटी फूटी है। मैं आप सब भाइयों से हिन्दी में ही बोलता हूँ। क्योंकि थोड़ी अंग्रेजी बोलने में भी मुझे ऐसा मालूम पड़ता है मानो मुझे इस से पाप लगता है..”। धीरे धीरे गाँधी जी के संपर्क में हिन्दी के और लेखक आये और उनसे उनके रिश्ते मजबूत हुए जिनमें रामनरेश त्रिपाठी (एकमात्र हिन्दी लेखक जो जेल के एक ही बैरेक में गाँधी जी के साथ रहे )। बनारसी दस चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, सियाराम शरण गुप्त, जैनेन्द्र, प्रभाकर माचवे आदि शामिल हैं। प्रेमचन्द ने गांधी जी को हंस का संरक्षक बनाया था।

गाँधी जी प्रेमचन्द से वाकिफ थे और उनको बड़ा लेखक मानते थे। एक बार उन्होंने इंदौर के हिन्दी साहित्य सम्मलेन(1935) में हंस की हिन्दी पर आलोचनात्मक टिप्पणी भी की है लेकिन प्रेमचन्द का साहित्य पढ़ा हो यह पता नहीं चलता। उन्होंने कहीं प्रेमचन्द के उपन्यासों या कहानियों के पढ़ने का जिक्र नहीं किया है। रामनरेश त्रिपाठी, मैथली शरण गुप्त और बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपनी कृतियाँ उन्हें जरुर भेंट की थीं। गाँधी जी ने ये किताबें पढ़ी थीं लेकिन कामायनी या गोदान के पढ़ने का कोई जिक्र नहीं मिलता पर साकेत उन्होंने पढ़ी थी, प्रसाद का गाँधी से कोई संवाद या पत्र व्यवहार नहीं था। निराला गाँधी से एक बार मिले जरुर पर उन्होंने आक्रामक अंदाज़ में रवींद्र नाथ टैगोर का नाम लेने पर बापू की आलोचना ही की। रामचन्द्र शुक्ल से गांधी की कोई मुलाकात हुई या नहीं इसका जिक्र नहीं मिलता पर एक बार गांधीजी मैथिली शरण के जन्मदिन पर आयोजित एक समारोह में बनारस गये थे।
गांधी जी तीन बार हिन्दी साहित्य सम्मलेन के समारोह में गये। पहली बार 1918 में इंदौर में दूसरी बार मुम्बई में तथा 1935 में फिर इंदौर के साहित्य सम्मलेन में ..वह 27 साल तक हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़े रहे। 1935 में भारतीय साहित्य परिषद् की नागपुर की बैठक में भी गांधी जी गए थे जहाँ हिन्दुस्तानी के खिलाफ 25 मत पड़े जबकि उसके पक्ष में 15 मत पड़े और इस तरह हिन्दुस्तानी अस्वीकृत कर दी गयी और हिन्दी विजयी हुई। इस बैठक में प्रेमचन्द भी उपथित थे लेकिन वे मौन रहे, यह गाँधी जी की दूसरी हार थी। पट्टाभिसीतारमैया की हार के बाद। वह राजनीतिक हार थी तो यहउनकी भाषाई हार थी। लेकिन इसके बाद भी गांधी जी हिन्दुस्तानी की वकालत करते रहे। वह यंग इंडिया, हरिजन, नवजीवन में हिन्दी हिन्दुस्तान के मुद्दे पर लगातार लिखते रहे और भाषणों में भी बोलते रहे। यहाँ तक किआजादी मिलने के बाद भी।

इस बीच् गाँधी जी ने 1917 में प्रताप में लिखा था – “ हिन्दी ही हिंदुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है,यह बात निर्विवाद सिद्ध है। उन्होंने यह भी कहा कि जो स्थान अंगेजी को मिला है वह स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए,अंगेजी की अपेक्षा हिन्दी सीखना बहुत सरल है। हिन्दी बोलने वालों की संख्या 6 करोड़ है और बंगाली, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, सिन्धी बोलने वाले लोग भी हिन्दी बोलते हैं इस तरह कुल 22 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। उसी वर्ष बिहार के भागलपुर में छात्र सम्मलेन में उन्होंने कहा –“ मातृभाषा का अनादर मान के अनादर के बराबर है जो मातृभाषा का अपमान करता है वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं ….मुझे अंग्रेजी भाषा से वैर नहीं इस भाषा का भंडार अटूट है ..फिर भी मेरी राय है कि हिंदुस्तान के सब लोगों को इसे सीखने की जरुरत नहीं।” फिर उसके 5 दिन बाद बीस सितम्बर को उन्होंने गुजरात के भरुच में कहा –“शिक्षा का माध्यम मातृभाषाए,राष्ट्र भाषा अंग्रेजी नहीं हिन्दी।

उन्होंने यहाँ तक कहा कि अंग्रेजी से मानसिक शक्ति हीन होती है। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहाकि हिन्दी और उर्दू अलग भाषा नहीं। हिन्दी के कुछ लोगों ने उसे संस्कृतिनिष्ठ बना दिया है तो उर्दू के कुछ लोगों ने उर्दू में फ़ारसी भर दिया है। गाँधी जी ने तो यह भी कहा कि दोनों एक ही भाषा है। अगर फ़ारसी लिपि में लिखी जाये तो वह उर्दू कहलायेगी और देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो हिन्दी कहलायेगी। लगता है गाँधी जी को उस दौर की छायावादी भाषा से आपत्ति थी और हिन्दी के मन में जो धारणा बनी उसमें छायावाद की भाषा ने भी भूमिका निभायी हो। यह आपत्ति तो फ़िराक को भी थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी को भी ऐसी हिन्दी से आपत्ति थी। लेकिन संस्कृत निष्ठ हिन्दी को तोड़ते हुए प्रेमचन्द हिन्दुस्तानी भाषा विकसित कर रहे थे। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने हिन्दी उर्दू मिली भाषा को अपनाया था और शिवपूजन सहाय जैसे लोगों ने उसे आंचलिकता की तरफ मोड़ा था। उग्र सुदर्शन की भाषा भी आम फहम भाषा थी। गांधी जी ने 1917 में ही 11 नवम्बर को कहा कि झगड़ा हिन्दी से नहीं बल्कि अंग्रेजी से है और हिन्दी को आप हिन्दी कहें यह हिन्दुस्तानी दोनों मेरे लिए एक ही है। इस तरह गाँधी जी के मन में और दृष्टि में हिन्दी को लेकर समझ साफ़ थी लेकिन हिन्दी समर्थक लोग हिन्दी को हिन्दुस्तानी कहे जाने के समर्थक नहीं थे। राहुल, निराला, शिवपूजन सहाय, राहुल संकृत्यायन हिन्दी के समर्थक थे। वे नहीं चाहते थे कि हिन्दी को हिन्दुस्तानी कहा जाये। आजादी के बाद तो पन्त ने अपना पद्म भूषण भी हिन्दी के समर्थन में लौटा दिया था।
गांधी जी लगातार हिन्दी के प्रबल समर्थक बनते जा रहे थे और 31 दिसम्बर को कोलकत्ता में उन्होंने यह भी कहा कि अंग्रेजो से भी अंग्रेजी में न बोलें। उन्होंने यह भी कहा “–प्रत्येक अंग्रेज शासनिक एवं सैनिक अधिकारी को भी हिन्दी जाननी चाहिए”। फिर दो जनवरी को उन्होंने कोलकाता में एक अन्य समारोह में यहां तक कह डाला “–दुःख की बात है कि हमारे बंगला भाई राष्ट्र भाषा का प्रयोग न कर राष्ट्र की हत्या कर रहे हैं।”यद्यपि वे टैगोर के बड़े प्रशंसक थे और बंगला सीखने लगे थे।

29 मार्च 1918 को जब इन्दौर में हिन्दी साहित्य सम्मलेन का सभापतित्व गाँधी जी ने किया तो हिन्दी को लेकर लम्बा लिखित भाषण दिया। उन्होंने कहा –“मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्राप्त करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। “इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि हमारे एक भी सम्मेलन में अंग्रेजी का एक शब्द भी सुनायी नहीं देना चाहिए। गांधी जी ने उस भाषण में” देहाती हिन्दी” का जिक्र किया था जिसे प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में बोल चाल की भाषा का प्रयोग किया। प्रसाद और महादेवी की भाषा अलग थी शिवपूजन बाबू ने बाद में 26 में देहाती दुनिया उपन्यास में पेश किया। गांधीजी हिन्दी उर्दू मिली हिन्दुस्तानी की चर्चा की जो प्रेमचन्द की कहानियों में दिखाई दी। उस सम्मलेन में गांधी जी ने हिन्दी को स्वराज से जोड़ दिया। उन्होंने कहा —“मेरा नम्र एवं दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक हैं।’’

उसके अगले वर्ष मुम्बई में बीस अप्रैल को हिन्दी साहित्य सम्मलेन में गाँधी जी ने यहाँ तक कहा —“ हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि ऐसी एक भी अन्य देसी भाषा नहीं जो हिन्दी के साथ स्पर्धा कर सके। इस विचार से राष्ट्रीय भाषा के रूप में हमें हिन्दी में ही बोलना होगा।’’इस तरह गाँधी जी की हिन्दी के प्रति आसक्ति बढ़ती ही गयी। वे उसके प्रबल प्रवक्ता बन गये। फिर उन्होंने कांग्रेस की कार्य वाही हिन्दी में चलाने की वकालत करते हुए यंग इंडिया में आठ अक्तूबर 1919 और सात जनवरी 1921 में भी लिखा। अक्तूबर में उन्होंने दो टूक शब्दों में लिखा –“मैं सोचता हूँ किअपने 35 वर्ष के जीवन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने अंग्रेजी के बजाय जिसे हमारे देश वासियों का एक अत्यंत छोटा समूह ही समझता है, यदि अपनी कार्यवाही हिन्दुस्तानी में ही की होती तो क्या से क्या हो गया होता।’’

इसके बाद वह लगातार यंग इंडिया में हिन्दी के पक्ष में लिखते और बोलते रहे। दो सितम्बर 1921 को उन्होंने नव जीवन में लिखा –इस विदेशी भाषा ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है ..उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है …अगर मेरे हाथों में तानाशाही की सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये दी जानेवाली हमारे लड़कों और लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों के माध्यम से यह तुरंत बदलवान दूँ या उन्हें बर्खास्त कर दूँ।’’

गांधी जी ने यह भी कहा कि देशवासियों की सभा में अंग्रेजी में बोलना लज्जा की बात है लेकिन आज भी धड़ल्ले से अंग्रेजी रोज सभाओं में बोली जा रही है। गाँधी जी ने हिन्दी पर लगे इन आरोपों का भी स्पष्टीकरण दिया है। पहले यह कि हिन्दी भाषा अन्य भाषाओं को दबा रही है और दूसरा यह कि यह हिन्दुओं की भाषा है।

उन्होंने 23 अगस्त को नवजीवन में साफ़ शब्दों में लिखा’ –मैं हिन्दी के जरिये प्रांतीय भाषाओं को दबाना नहीं चाहता किन्तु उनके साथ हिन्दी को भी मिला देना चाहता हूँ जिसमें एक प्रान्त दूसरे के साथ सजीव सम्बन्ध जोड़ सके “।आगे चलकर दस अप्रैल 1937 को उन्होंने हरिजन सेवक में लिखा- हिन्दी शब्द हिन्दुओं का गढ़ा हुआ नहीं है। गांधी जी देवनागरी लिपि के पक्षधर थे लेकिन बाद में कुछ लोगों ने हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाकर पेश किया। मैनेजर पाण्डेय की किताब मुग़ल बादशाहों की हिन्दी कविता इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी केवल हिन्दुओं की भाषा नहीं। कई मुसलमानों ने हिन्दी की सेवा की तो कई हिन्दी लेखकों ने उर्दू सीखी और उर्दू में लिखा भी। उर्दू और हिन्दी का विभाजन दरअसल देश में सांप्रदायिकता के कारण संभव हुआ। हिन्दी भाषा के भीतर ही हिन्दी के दुश्मन पैदा हो गये। नेहरूजी की वजह से हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। सत्ता की भाषा अंग्रेजी ही रही। नौकरशाही की भाषा अंग्रेजी रही लेकिन फिल्मों और बाज़ार की भाषा जरुर हिन्दी रही।

आजादी के बाद गांधीजी का हिन्दी को लेकर सपना पूरा नहीं हुआ। जिस तरह विभाजन के मुद्दे पर गाँधी जी अकेले पड़ गये उसी तरह हिन्दी के मुद्दे पर अलग थलग पड़ गये। हिन्दी के सवाल पर उनका साथ मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन ने दिया लेकिन हिन्दुस्तानी के पक्ष में वे भी नहीं थे। गांधी जी थोड़ा दुखी भी हुए और उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मलेन से हटने की इच्छा भी व्यक्त की थी। टंडन जी और गाँधी जी का पत्र व्यवहार देखा जा सकता है। आजादी तो मिली लेकिन भाषाई आज़ादी आज तक नहीं मिली और बाद में लोहिया प्रकाशवीर शास्त्री बाबू गंगा शरण सिंह जैसे कुछ नेताओं ने हिन्दी के सवाल को उठाया लेकिन अंग्रेजी दा मध्यवर्ग सत्ता में अकादमिक दुनिया में इतना हावी हो गया कि उसने हिन्दी को तरजीह नहीं दी और वह अनुवाद की भाषा हो गयी जबकि गांधी जी ने पहले ही इंदौर अधिवेशन में कह दिया था प्रजा को अनुवाद से तालीम नहीं मिल सकती। इसका अर्थ गांधीजी हिन्दी को अनुवाद की भाषा नहीं बनाये जाने के पक्ष में थे। देश में कोई ऐसा नेता नहीं हुआ जिसने हिन्दी के प्रश्न पर इतना चिंतन मनन और विचार किया हो तथा जनता की नब्ज समझी हो। हिन्दी के इस आन्दोलन को देश के वाम बुद्धिजीवियों ने कभी महत्व नहीं दिया और समझने की कोशिश नहीं की। राहुल जी ने मुम्बई अधिवेशन में यह सवाल उठाया तो उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। इस तरह हिन्दी का प्रश्न केवल भाषा का प्रश्न नहीं रह गया। वह राजनीतिक और जातीय प्रश्न और कौमी सवाल बनकर रह गया। जबकि गाँधी जी हिन्दी को एक समावेशी भाषा बनाना चाह्ते थे। दिनकर भी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलना चाहते थे। यू आर अनंतमूर्ति भी यही चाहते थे।

जो लेखक गाँधी से सीधे नहीं जुड़े थे वे भी गांधी के अनुयायी थे चाहे राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह हों या उग्र या शिवपूजन सहाय या राहुल जी हों या बेनीपुरी या पन्त (बाद में इनमें से कुछ लोग भले ही मार्क्सवादी और समाजवादी हो गये)। इस तरह देखा जाये तो गाँधी जी का हिन्दी से ऐसा रिश्ता बना जो मरते दम तक रहा। एक बार एक पत्रकार से खीझ कर यह भी कह दिया था कि जाओ दुनिया से यह कह दो ..उनके लिए आज़ादी का सवाल जितना महत्वपूर्ण था उस से कम महत्व पूर्ण सवाल भाषा का नहीं था। वे हिन्दी को केवल उत्तर भारत की भाषा के रूप में नहीं देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिन्दी का प्रचार प्रसार दक्षिण में करवाया और अपने पुत्र देव दास गांधी को इस कार्य में लगाया। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना करवाई।

पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंह राव गाँधी जी के ही हिन्दी कार्यकर्ता थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षा पास करके हिन्दी सीखी थी और वे किसी नामवर से कम प्रभाव शाली हिन्दी नहीं बोलते थे। लेकिन हिन्दी राजनीति के कुचक्र में फंस चुकी है। बाज़ार ने उसका और बुरा हाल कर दिया है। वह केवल वोट पाने की भाषा है। अब कोई गांधी जी जैसा न तो नेता है न कोई बड़ा लेखक जो हिन्दी की इस लड़ाई को आगे ले जा सके। भाषा की गुलामी के कारण भी हम अपनी वास्तविक आज़ादी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। हमने अपनी व्यवस्था का जो ढांचा विकसित किया है वह अपनी मातृ भाषा पर आधारित नहीं है इसलिए एक अंग्रेजीदां वर्ग इस देश पर काबिज है।

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं आजकल आप दिल्ली में रहते हैं।)

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