मोदीराज में प्रेमचंद की किताबों की सरकारी खरीद में धीरे-धीरे कटौती

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फासीवादी ताकतें कई प्रणालियों में काम करती हैं। पहली, गुप्त प्रणाली यानी खामोशी से उन चीजों/शख्सियतों को दरकिनार करना जो उनकी विचारधारात्मक सोच के आड़े आती हैं। सन् 2013 में सत्ता में आते ही नरेंद्र मोदी सरकार ने पहली प्रणाली पर काम शुरू किया। प्रगतिशील लेखन के आधार स्तंभ प्रेमचंद पर गुपचुप निशाना साधा गया। आरटीआई से कुछ लोगों को पता चला कि प्रेमचंद की किताबों की सरकारी खरीद में धीरे-धीरे कटौती की जा रही है।

केंद्रीय विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में प्रेमचंद को ‘गायब’ करने की कवायद शुरू हुई जो फिलहाल तक जारी है लेकिन व्यवस्था को वैसे नतीजे अभी भी हासिल नहीं हो रहे; जिनकी उसे दरकार थी। इसकी वजह बहुत पुख्ता है। लाखों-हजारों में कुछ कलमें ऐसी होतीं हैं जो चलतीं तो कागज पर हैं पर राज दिलों पर करती हैं। प्रेमचंद यकीनन दिलों पर राज करते थे, हैं और करते रहेंगे। रबींद्रनाथ टैगोर को हम जन-मानस से अलग-थलग कर सकते हैं? कबीर, गुरु नानक, रैदास को?

प्रेमचंद दरअसल बुद्धिजीवी नहीं-तीक्षण बुद्धिमान भी थे। विश्व साहित्य तब कला जगत में पूंजीवाद के प्रभाव में था और इधर भारत में छायावादी कविता का दौर जोरों पर था। ऐसे में यथार्थ की नई अवधारणा लेकर प्रेमचंद आए। उस वक्त पत्रकारिता के कुछ हस्ताक्षर यथास्थिति को यथार्थ के सांचों में ढालने की कोशिश जरूर करते थे लेकिन साहित्यिक बुनावट नदारद थी। उसे लाए प्रेमचंद। भारतीय उपन्यास की विधा का पहला और अब तक चलने वाला अध्याय उन्होंने ही शुरू किया था। निश्चित तौर पर प्रेमचंद के बाद भारतीय उपन्यास बहुत आगे तक गया, अपने नए प्रतिमानों-प्रयोगधर्मिता के साथ और कथा-जगत भी लेकिन प्रेमचंद की प्रासंगिकता बरकरार रही। लोकप्रियता भी।

जनविरोधी ताकतों के लिए प्रेमचंद खतरा इसलिए भी हैं कि वह प्रगतिशील लेखन और चिंतन की बाकायदा परंपरा बन गए और परंपरा यथावत कायम है। प्रेमचंद की तस्वीरों को जलाया जा सकता है। ऐसा और भी बहुत कुछ किया जा सकता है लेकिन उनकी सोच पर हमला करके उसे ‘घायल’ नहीं किया जा सकता।यथार्थ को पकड़ने-समझने की जो पद्धति उनसे हासिल हुई, उसके बीज-कणों को कैसे नष्ट किया जा सकता है? करने वालों ने बहुत कोशिश की लेकिन प्रेमचंदवादियों ने ऐसी हर कोशिश को अपने-अपने तईं नाकामयाब बनाए रखा।

गुप्त प्रणाली के कारकून आज भी सक्रिय हैं कि प्रेमचंद का नाम ही मिट जाए। प्रेमचंद खुद माटी थे और माटी मिटे कैसे? वह लोकाचार की धड़कन हैं। सन् 2013 के बाद गुप्त ही नहीं जाहिरा तौर पर भी कोशिशें हुईं कि प्रेमचंद को कम से कम उसके अंदर से तो हाशिए पर लाया जाए, जहां वह हैं।हास्यास्पद है कि गुरुदत्त, कुशवाहा कांत आदि को उनकी जगह रखने की गंभीर कोशिशों का सिलसिला शुरू हुआ।

नरेंद्र मोदी की अगुवाई में जैसे ही केंद्र में भाजपा की सरकार बनी वैसे ही प्रेमचंद को अप्रसांगिक (तथा जारी लोकप्रियता से थोड़ा दूर) करने की कवायद शुरू हुई। हर नए ‘दरबार’ को बहरूपियों मिल ही जाते हैं। दरबार बेशक कांग्रेस का हो, बीच के लोगों का या फिर भाजपा का। जी-हजूरिए व्यवस्था के मिजाज से बखूबी वाकिफ होते हैं। उनका अहम काम होता है सत्ता को यह बताना कि अतीत का कौन-सा लेखक, चिंतक, बुद्धिजीवी और बुद्धिमान व्यक्तित्व उसके माकूल नहीं।

वर्तमान में कौन है? अज्ञेय का कद और काम बहुत बड़ा है। अनेक मायनों में प्रेमचंद को वह अपने से कहीं आगे मानते थे। कांग्रेस की एक सरकार के वक्त एक अभियान चला अज्ञेय को प्रेमचंद से आगे साबित करने का। खुद अज्ञेय को शुरुआती दौर में ही इस सिलसिले को रोकना पड़ा। प्रेमचंद से हटकर साहित्यिक जगत में अज्ञेय का अपना सम्मानजनक रुतबा है। रहेगा भी। दोनों की राहों में बेहद बुनियादी फर्क थे। एक ‘क्रांति’ से भी जुड़कर ‘कला कला के लिए’ की अवधारणा में विश्वास रखता था और दूसरा ‘कला/साहित्य अवाम के लिए’ की सोच को शिद्दत से मानता था।

सरकार के दरबारियों के अपने हित होते हैं और सरकार की अपनी नीतिगत धारा। विचारधारा के स्तर पर कौन उसके मिशन को आगे ले जा सकता है; सरकारी संगठन यह देखते हैं। (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक विंग जब सत्ता से कोसों दूर था, तब भी उसके एजेंडे में यह सब था)।

एक दौर में कवि से कांग्रेस के महासचिव बने एक शख्स ने एक साथ कई लोगों को बाकायदा ‘दरबारी’ बनवाया और जो फितरत से दरबारी होता है वह वही रहता है, सरकार कोई भी हो-बस उसे उसमें अपने मुकाम की दरकार रहती है। श्रीकांत वर्मा के सौजन्य से कभी कांग्रेस की (अ) विचारधारा को सशक्तत करने वाले लोग यानी बहुतेरे लेखक, आज भाजपा के लिए वही सब करने के लिए जाने जाते हैं।

प्रेमचंद की रचनाएं यथार्थ को प्रगतिशील और जनवादी नजरिए से देखने की तमीज देती हैं। मौजूदा शासन-व्यवस्था को यह रास नहीं। प्रेमचंद की किसी भी कृति को पढ़़ने वाला किशोर या युवा अथवा साधारण ग्रामीण भी कई सवाल सत्ता से करेगा। वे सवाल भले ही पहले उसके दिल और दिमाग में आएं। अभिव्यक्त चाहे कभी बाद में हों।

प्रेमचंद का पाठक कभी न कभी जरूर पूछ सकता है कि किसानी इतनी बदहाल क्यों है। किसान और खेत मजदूर खुदकुशी की राह क्यों अख्तियार किए हुए हैं। 1947 के बाद भागलपुर, सिख विरोधी हिंसा और गुजरात दंगे क्यों हुए? भीड़ को पागल किसने बना दिया! गोरक्षा के नाम पर इंसानों के वध क्यों होते हैं। बुलडोजर को इतना गौरवान्वित क्यों किया जा रहा है। मुस्लिम और ईसाई अपने आप को महफूज क्यों नहीं मानते?

मणिपुर का गृह युद्ध क्या एक रिहर्सल है। इस देश को कोई नरेंद्र मोदी चला रहा है या अंबानी अथवा अदानी? पेट्रोल और डीजल महंगा क्यों हो रहा रहा है? राशन पहुंच से बाहर क्यों जा रहा है। शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था सरकार के समर्थन से लूट के अड्डडे कैसे और क्यों बन गई? जी हां, यह प्रेमचंद का पाठक पूछ सकता है।

प्रेमचंद इस सब पर विचार करने और सवाल पूछने का तार्किक नजरिया देते हैं। व्यवस्था इसीलिए प्रेमचंद और उनके दृष्टिकोण का खात्मा चहती है। इस क्रूर व्यवस्था ने कितने प्रेमचंदवादियों को बाकायदा सरकारी संरक्षण में मार डाला। प्रेमचंद के बेशुमार हमख्याल बुद्धिजीवियों और लेखकों को जेल की नारकीय सलाखों के पीछे डाल दिया। सिर्फ इसलिए कि प्रेमचंद की परंपरा खत्म हो जाए। उसकी हत्या कर दी जाए। पर यह इतना आसान नहीं। जानते-समझते ‘वे’ भी हैं। लेकिन उन्हें अपने लंबे हाथों पर अति-आत्मविश्वास है।

‘इधर’ के लोगों के काफिले में भी काबिलेगौर इजाफा हो रहा है। हाथ हैं, हथकड़ लगाइए। अंधेरे में बाहर बुलाइए और कायरों की तरह सीने पर गोलियां मार दीजिएगा। क्या ऐसा करने से प्रेमचंद मर जाएंगे? हरगिज नहीं! उनका कद और बढ़ेगा। जैसे-जैसे उन्हें मिटाने की कोशिशें तेज होंगीं। दुनिया की ऐसी कौन सी भाषा है जिसमें प्रेमचंद की रचनाओं का अनुवाद न हुआ हो? क्या ऐसी सब किताबें जला देना, नष्ट कर देनाा संभव है तानाशाही के सिपाहियों और असल में मूर्खों?

(अमरीक पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)

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