Saturday, April 20, 2024

इतिहासकार डी. एन. झा: हिंदुत्व केंद्रित इतिहास दृष्टि को निर्णायक चुनौती

66वें भारतीय इतिहास कांग्रेस (2006) को अध्यक्ष के रूप में संबोधित करते हुए डी. एन. झा ने इतिहासकारों-बुद्धिजीवियों- कहा कि “देश की वर्तमान स्थिति का तकाजा है कि हमारे बुद्धिजीवी और विद्वान उचित प्रतिक्रिया दें। हम विषय के रूप में इतिहास और देश तथा इसकी जनता के प्रति यदि उचित जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे, यदि हम जहरीले सांप्रदायिक प्रचार का उचित जवाब नहीं देंगे और भारत के वस्तुगत और तथ्यात्मक इतिहास के चारों ओर बुने जा रहे मकड़जाल को साफ करके सच्चाई सामने नहीं लाएंगे, तो हम अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करेंगे।” (हिंदू पहचान की खोज, भूमिका, पृ.1, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस) अपने उपरोक्त वक्तव्य में डी. एन. झा एक इतिहासकार के रूप  देश के सचेत बुद्धिजीवियों को संबोधित करते हुए उसकी तीन जवाब देहियों को चिन्हित कर रहे हैं, पहली जवाबदेही इतिहासकार होने के नाते वस्तुगत और तथ्यपरक इतिहास लेखन के प्रति है, लेकिन चूंकि एक इतिहासकार देश का सचेत नागरिक और बुद्धिजीवी भी होता है, इसलिए जवाबदेही देश और देश के जन के प्रति भी है।

डी. एन. झा के संपूर्ण लेखन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने एक सचेत बुद्धिजीवी के रूप में देश और जन के प्रति अपनी जवाबदेही का पूरी तरह निर्वाह किया। यह जवाबदेही उन्होंने वस्तुपरक और तथ्यात्मक इतिहास लेखन करके और हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा इतिहास को तोड़-मरोड़ कर इतिहास को हिंदू राष्ट्र निर्माण के टूल के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश का पुरजोर खंडन और विरोध करके पूरी की। उन्होंने साफ शब्दों में लिखा कि आज संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है और उसका राजनीतिकरण किया जा रहा है। यह रूझान बदलनी होगी।

भारतीय इतिहास लेखन के संकट के वर्तमान स्वरूप को चिन्हित करते हुए उन्होंने कहा कि “भारत का इतिहास प्रगतिशील और दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी पुरातनपंथी विचारों तथा विचारधाराओं, खासकर सांप्रदायिक प्रतिक्रियावादी विचारधारा के बीच युद्ध का मैदान बन गया है।” (वही)  ऐसे समय में इतिहाकारों के दायित्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि “इसलिए वर्तमान परिस्थिति इतिहासकार सच्चा और वफादार प्रस्तुतीतकरण चाहती है ताकि विकृत एवं भुलावा देने वाले वक्तव्यों का खंडन किया जा सके।” ( वही) एक इतिहासकार के तौर पर डी. एन. झा ने खुद भी यही किया। उनके लिए इतिहास केवल भूतकाल का लेखा-जोखा नहीं था, वे इतिहास को वर्तमान में चल रहे संघर्षों से अलग करके नहीं देखते थे। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा कि “इतिहास न केवल भूतकाल है बल्कि वर्तमान भी है।” ( वही) इतिहास की अपनी इसी समझ के चलते उन्होंने वर्तमान में चल रहे, हर उस बहस में हिस्सा लिया, जिसका संबंध इतिहास की व्याख्या और प्रस्तुतीकरण से हो। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला राम मंदिर के पक्ष में आने के बाद डी .एन झा ने बीबीसी से कहा था, “इसमें हिंदुओं की आस्था को अहमियत दी गई है और फ़ैसले का आधार दोषपूर्ण पुरातत्व विज्ञान को बनाया गया है।” यहां यह याद कर लेना जरूरी है कि प्रोफ़ेसर डी.एन. झा उन चार इतिहासकारों में से एक थे जिन्होंने ‘रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद: ए हिस्टॉरियन्स रिपोर्ट टू द नेशन’ रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। अपनी इस रिपोर्ट में उन्होंने उस मान्यता को ख़ारिज किया था जिसमें कहा जाता है कि बाबरी मस्जिद के नीचे एक हिंदू मंदिर था। जब राज्यसभा में 2017 में हिंदू देवी-देवताओं के शराब पीने न पीने के प्रश्न गरमा-गरम बहस हुई, तो उसमें हस्तक्षेप करते हुए डी. एन. झा ने 29 जुलाई 2017 के ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लेख लिखकर बताया कि हिंदू देवी-देवता छक कर शराब पीते थे। उन्होंने लिखा “सोम  वैदिक देवा-देवताओं का एक पसंदीदा पेय था। इसे इन्द्र, अग्नि, वरूण, मारुत और आदि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अधिकांश यज्ञों में चढ़ाया जाता था।… वैदिक उद्धरणों में उसका (इंद्र) वर्णन एक बहुत बड़े पियक्कड़ और शराबी के रूप में किया गया है। उसके बारे में कहा गया है कि दैत्य व्रीत्रा की हत्या करने से पहले वह तीन तालाबों का सोम पी गया था।… वैदिक रचनाओं की तरह महाकाव्यों में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि हिंदू धर्म में जिन्हें ईश्वर का स्थान प्राप्त है वे लोग शराब का सेवन करते थे। उदाहरण के लिए महाभारत में संजय वर्णन करते हैं कि कृष्ण (भगवान विष्णु के एक अवतार) और अर्जुन द्रौपदी और सत्यभामा (कृष्ण की पत्नी और भूदेवी की एक अवतार) बास्सिया शराब से मदमस्त हैं। महाभारत के एक परिशिष्ट हरिवंश में वर्णन किया गया है कि विष्णु के एक अवतार बलराम “कदंब मदिरा के भरपूर पान से उत्तेजित” होकर अपने पत्नी के साथ नृत्य कर रहे हैं। रामायण के एक प्रसंग में वर्णन मिलता है कि विष्णु के अवतार राम सीता को आलिंगनबद्ध करके उन्हें शुद्ध मैरेय शराब पिला रहे हैं। (द इंडियन एक्सप्रेस, 29 जुलाई 2017)

गाय और राम हिंदुत्व की राजनीति के वाहक रहे हैं। हिंदुत्वादियों ने हिंदुओं के मनो-मस्तिष्क में यह बैठाने की कोशिश की प्राचीन काल से गाय पवित्र रही है और गोमांस-भक्षण की शुरुआत इस्लाम के आने के बाद होती है। इस प्रस्तुतीकरण में भी तथ्यों को दरकिनार कर प्राचीन भारत में गाय पवित्र जानवर थी, इसका मिथक गढ़ा गया और इस मिथक इस्तेमाल मुसलमानों को बदनाम करने तथा सांप्रदायिक राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए किया गया और अभी भी किया जा रहा है। गाय की पवित्रता के इस मिथक को प्रमाणिक साक्ष्यों के आधार खारिज करने के लिए और गाय से जुड़े इतिहास के वस्तुगत प्रस्तुतीकरण के लिए डी. एन. झा ने 2002 में ‘द मिथ ऑफ़ होली काउ’ शीर्षक किताब लिखी। 2004 में इसका हिंदी संस्करण ‘पवित्र गाय का मिथक’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उन्होंने इस किताब की प्रस्तावना में ही लिखा कि “भारतीय गाय की ‘पवित्रता’ के बारे में विद्वानों के बीच पिछले सौ सालों से अधिक समय से बहस चल रही है। उनमें कुछ तो इस विचार से चिपटे रहे कि ऐसे परम पावन पशु को प्राचीन भारतीय और वैदिक लोग खाते नहीं होंगे। उन्होंने यह भी किया कि गोमांस-भक्षण का संबंध इस्लाम के आगमन से जोड़ दिया और उसे मुस्लिम समुदाय की पहचान के रूप में देखा। लेकिन प्रस्तुत रचना (पवित्र गाय का मिथक) में यह दिखलाने के प्रयास किया गया है कि गाय की ‘पवित्रता’ एक भ्रम है और उसका मांस प्राचीन भारतीय सामिषहार पद्धति और आहार परंपरा का एक अंग था।… यह पुस्तक (पवित्र गाय का मिथक) लिखने मुख्य प्रयोजन स्पष्ट रूप से यह दिखला देना है कि गोमांसहार भारत को इस्लाम की ‘विनाशकारी विरासत’ नहीं थी और गोमांस का परहेज ‘हिंदू’ पहचान की निशानी नहीं हो सकता, चाहे हिंदुत्व के अज्ञानी झंडाबरदार कुछ भी कहें, जिन्होंने इस्लाम के अनुयायियों को पराया मानने की झूठी भावना भड़काने की भरपूर कोशिश की।” (पवित्र गाय का मिथक, प्रस्ताना, पृ.10) उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि “गाय के प्रति श्रद्धा को सांप्रदायिक पहचान का रूप दे दिया गया है और रूढिवादी तथा कट्टरपंथी शक्तियां यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि वैदिक तथा परवर्ती ब्राह्मणीय और अब्राह्मणीय परंपरा में गाय का स्थान विशेष पवित्र नहीं था और अन्य प्राणियों के मांस के साथ गोमांस प्राचीन भारत में बहुधा प्रिय आहार का अंग हुआ करता था।” (पवित्र गाय का मिथक, पृ.17)। उन्होंने यह भी लिखा कि “उन्हें, (हिंदुओं को) इस बात का अहसास नहीं है कि वैदिक पूर्वज भी विदेशी थे, जो गाय तथा अन्य जानवरों का मांस खाते थे।” (वही, पृ.17) उन्होंने साक्ष्यों के साथ लिखा कि “सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक वैदिक यज्ञ अश्वमेध में, जिसका प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है और जिसका विवेचन ब्राह्मणों में किया गया है, 600 से अधिक पशु बलि (बनैले सुअर सहित)  और पक्षी बलि दिए जाते थे और पूर्णाहुति में 21 बंध्या गायों  का बध किया जाता था। (वही, पृ.23) डी. एन. झा ने यह बताया है कि न केवल साहित्यिक स्रोत प्राचीन काल में मांसाहार के लिए गायों के बध की पुष्टि करते है, पुरातात्विक साक्ष्य भी इसकी पुष्टि करते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा कि “अब तक उत्खनित चित्रित धूसर मृदभांड़ ठिकानों में जो अस्थिगत अवशेष मिले हैं उनमें गाय-बैलों की हड्डियां सबसे ज्यादा आम हैं और इससे यही अचूक निष्कर्ष निकलता है कि गो-पालन आहार के लिए भी किया जाता था और अन्य प्रयोजनों से भी। इस प्रकार, गोमांस भक्षण की पुष्टि उत्तर भारत में, विशेषतया उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा राजस्थान के दूर-दूर तक बिखरे बहुत सारे वैदिक और वेदोत्तर ठिकानों से होती है। लेकिन जलाए या काटे जाने के निशान वाले प्राणियों की  हड्डियों की गिनती करने की अपेक्षा यहां इतना कह देना पर्याप्त होगा कि एक महत्वपूर्ण आहार के में गो-मांस के वैदिक उल्लेख पुरातात्विक साक्ष्यों से बहुत ठीक मेल खाते हैं।” ( वही, पृ.30)।

प्राचीन भारत में कोई स्वर्ण युग मौजूद था, इस पूरी अवधारणा को डी. एन. झा खारिज करते हैं। बीबीसी के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने दो टूक कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्य ये कहते हैं कि भारतीय इतिहास में कोई स्वर्ण युग नहीं था। प्राचीन काल को हम सामाजिक सद्भाव और संपन्नता का दौर नहीं मान सकते। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था बहुत सख़्त थी।….गैर-ब्राह्मणों पर सामाजिक, क़ानूनी और आर्थिक रूप से पंगु बनाने वाली कई पाबंदियां लगाई जाती थीं। ख़ास तौर से शूद्र या अछूत इसके शिकार थे। इसकी वजह से प्राचीन भारतीय समाज में काफ़ी तनातनी रहती थी। उन्होंने यह भी कहा कि स्वर्ण युग की यह पूरी परिकल्पना उन्नीसवीं सदी के आख़िर से उपजा। यह एक राजनीतिक परियोजना का हिस्सा था, न कि साक्ष्यों पर आधारित इतिहास लेखन। (https://www.bbc.com/hindi/india-55937025,) उन्होंने मुस्लिम शासकों को दानव और अत्याचारी ठहराने की कुछ इतिहासकारों की कोशिश को हिंदुत्ववादी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा माना। उन्होंने लिखा कि जहां तक मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के आतंक और ज़ुल्म वाली हुकूमत  की बात है और उन्हें दानव के तौर पर पेश करने की कोशिश है, यह सब भी उन्नीसवीं सदी के आख़िर से ही शुरु हुआ था। क्योंकि उस दौर के कुछ सामाजिक सुधारकों और दूसरे अहम लोगों ने मुसलमानों की छवि को बिगाड़कर पेश करने करना शुरु किया। जैसे कि दयानंद सरस्वती (1824-1883) अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश में दो अध्याय इस्लाम और ईसाई धर्म की बुराई को समर्पित कर दिए। इसी तरह विवेकानंद (1863-1902) ने कहा कि, ‘प्रशांत महासागर से लेकर अटलांटिक तक पूरी दुनिया में पांच सौ साल तक जो रक्त प्रवाह होता रहा, वही इस्लाम धर्म है। मुस्लिम शासकों को ज़ुल्मी ठहराने का जो दौर तब से शुरू हुआ, वो आज तक जारी है। हिंदुत्व के विचारक और अनुयायी मुस्लिम शासकों को षडयंत्रकारी और हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराने वाला बताते रहे और उन्हें  हिंदुओं के मंदिर गिराने वाले और हिंदू महिलाओं से बलात्कार करने वालों के रूप में प्रचारित करते रहे। डी. एन. झा ने ताराचंद, मोहम्मद हबीब, इरफ़ान हबीब, शीरीन मूसवी, हरबंस मुखिया, ऑड्रे ट्रश्क और दूसरे इतिहासकारों द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के हवाले इस पूरी सोच को चुनौती दी। (https://www.bbc.com/hindi/india-55937025)

डी.एन. झा पूर्व मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में भी फैलाए गए अन्य झूठे मिथकों को  साक्ष्यों के आधार खारिज करते हैं। इन झूठे मिथकों में आम तौर स्वीकृत एक मिथक है यह है कि नालंदा विश्वविद्यालय और उसके पुस्तकालय को बख्तियार खिलजी ने जलाया और नष्ट किया था। डी. एन. झा ने तिब्बती बौद्ध धर्मग्रंथ ‘परासम-जोन-संग’ को उद्धृत करते हुए बताया है कि हिंदू अंध श्रद्धालुओं द्वारा नालंदा को पुस्तकालय जलाया गया था। ( स्रोत- हिदू पहचान की खोज, पृ.38, डी. एन. झा) उनके इस मत की पुष्टि इतिहासकार बी. एन. एस. यादव भी करते हैं, उन्होंने लिखा है कि “आमतौर पर यह माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया था, जबकि उसे हिंदुओं ने नष्ट किया था।” इतिहासकार डी. आर. पाटिल को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि “उसे (नालंदा विश्वविद्याल) शैवों (हिंदुओं) ने बर्बाद किया।” (स्रोत, एंटीक्वेरियन रिमेंन्स ऑफ बिहार, 1963, पृ.304) इस संदर्भ में आर. एस. शर्मा और के. एम. श्रीमाली ने भी विस्तार से विचार किया है (ए कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खंड, भाग-2 (ए. डी.985-1206) आगामी अध्याय XXX (b) बुद्धिज्म फुटनोट्स 79-82

असल में डी. एन. झा प्राचीनकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास को ब्राह्मण-श्रमण विचारों-परंपराओं के संघर्ष के रूप में देखते हैं और साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की। नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था। ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पंतजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि “श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं,  उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच। (उद्धृत डी. एन. झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज)

यह शत्रुता लंबे समय तक जारी रही है और बड़े पैमाने पर बौद्धों-जैनों और श्रमण पंरपरा के अन्य वाहकों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों द्वारा हिंसा जारी रही। हिंसा के इस स्वरूप का साक्ष्यों द्वारा उद्घाटन करते हुए डी. एन. झा यह स्थापित करते है, हिंदू धर्म का इतिहास सहिष्णुता और अहिंसा का इतिहास रहा है, यह गढ़ा गया झूठा मिथक हैं। हिंदू धर्म का इतिहास हिंसा और असहिष्णुता से भरा पड़ा है। यह हिंसा न केवल श्रमण विचारों के वाहकों के खिलाफ हुई, इसके साथ वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी व्यापक हिंसा हुई, जिसमें वैष्णवों और शैवों के बीच हिंसा भी शामिल है। अपनी किताब ‘हिंदू पहचान की खोज’ में डी. एन. झा श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों की व्यापक हिंसा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते है कि “बौद्ध रचना दिव्यावदान (तीसरी शताब्दी) में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बहुत बड़ा उत्पीड़क बताया गया है: वह चार गुना सेना के साथ बौद्धों के विरुद्ध निकल पड़ता है, स्पूतों को नष्ट करता है, बौद्ध विहारों को जला देता है और शाकल (सियालकोट) तक भिक्षुओं की हत्या करता जाता है और जहां वह प्रत्येक श्रमण के सिर लिए एक सौ दीनार के इनाम की घोषणा करता है।” (दिव्यावदान, सं. ई. बी. कोवेल और आर.ए. मील, कैम्ब्रिज, 1886, पृ.433-34)

डी. एन. झा लिखते हैं कि बौद्ध एवं जैन संप्रदायों और ब्राह्मणवादियों के बीच शत्रुता मध्ययुग के आरंभ में तीखी होती जाती है। यह हमें धर्मशास्त्रीय वैमनस्व संबंधी पाठों तथा उन्हें मानने वालों के बीच उत्पीड़न से पता चलता है। कहा जाता है कि उद्योत्कर (सातवीं शताब्दी) ने बौद्ध तर्कशास्त्रियों नागार्जुन और दिगनाग के तर्कों का खंड़न किया था और उनके तर्कों को वाचस्पति मिश्र ने अधिक दृढ़ बनाया। सनातनी-ब्राह्मणवादी दार्शनिक कुमारिल भट्ट (आठवीं शताब्दी) ने सभी गैर-परंपरावादी आंदोलनों (खासकर बौद्ध और जैन) के दर्शनों को मानने से इंकार कर दिया। बौद्धों-जैनों के बारे में कुमारिल कहता है कि “वे उन अकृतज्ञ और अलग हो गए बच्चों के समान हैं जो अपने अभिवावकों द्वारा की गई भलाई स्वीकार करने से इंकार करते हैं, क्योंकि वे वेद-विरोधी प्रचार के लिए ‘अहिंसा’ के विचार का प्रयोग एक औजार के रूप में करते हैं। बुद्ध के संदर्भ में शंकर (आदि शंकराचार्य) कहते हैं कि “वे (बुद्ध) असंबद्ध प्रलाप (असंबद्ध-प्रलापित्वा) करते हैं, यहां तक कि वे जानबूझकर और घृणापूर्वक मानवता को विचारों की गड़बड़ी की ओर ले जाते हैं।” सोलहवीं बंगाल के भगवद्गीता के टिप्पणीकार मधुसूदन सरस्वती यहां तक कहते हैं कि भौतिकवादियों, बौद्धों तथा अन्य के विचार म्लेच्छों के विचारों के समान हैं। ब्राह्मणवादी दार्शनिकों को अनुकरण करते हुए पुराण (सौर पुराण) यह मत प्रकट करता है कि “चार्वाकों, बौद्धों और जैनियों को साम्राज्य में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।” ( सौर पुराण, 64.44, 38.54)

डी.एन. झा लिखते हैं कि बौद्धों और जैनियों के विरुद्ध शैव तथा वैष्णव अभियान सिर्फ जहरीले शब्दों तक सामित नहीं थे। उन्हें प्रथम सहस्राब्दी के मध्य से प्रताड़ित कि जाने लगा, जिसकी पुष्टि आरंभिक मध्ययुगीन स्रोतों से होती है। ह्यूआन सांग को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि “हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ राजा शशांक ने बुद्ध की मूर्ति हटाई थी। यह भी बताते हैं कि शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट किया तथा हजारों बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य जनों की हत्या की।” (सैमुअल बील, सी-यू: बुद्धिस्ट रेकॉर्डस ऑफ द वेस्टर्न वर्ल्ड, दिल्ली, 1969, पृ.171-72, उद्धृत डी. एन. झा) कश्मीर में बौद्धों के दमन का महत्वपूर्ण प्रमाण राजा क्षेमगुप्त ( 950-58) के शासन में मिलता है। उन्होंने श्रीनगर में स्थित बौद्ध विहार जयेंन्द्र विहार नष्ट करके उसकी सामग्री का प्रयोग श्रेमगौरीश्वर के निर्माण के लिए किया। (राजतरंगिणी ऑफ कल्हण, 1.140-144,उद्धृत डी. एन. झा) “उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में नष्ट किए गए सैंतालिस किलेबंद नगर के अवशेष मिले हैं, जो वास्तव में बौद्ध नगर थे और जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने बौद्धवाद पर अपनी जीत की खुशी में आग लगाकर बर्बाद किया था।” (उद्धृत, डी. एन. झा, सोसायटी एंड कल्चर इन नादर्न इंडिया इन द टवेल्फ्थ सेंचुरी, इलाहाबाद, 1973, पृ.436)

बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादियों में किस कदर नफरत थी, इसका एक बड़ा उदाहरण देते हुए  डी. एन. झा लिखते हैं कि दक्षिण भारत में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के एक अल्वार ग्रंथ के अनुसार वैष्णव कवि-संत तिरुमण्कई ने नागपट्टिनम में एक स्तूप से बुद्ध की एक बड़ी सोने की मूर्ति चुराई और उसे पिघलाकर एक अन्य मंदिर में प्रयुक्त किया, कहा गया कि वह मंदिर बनाने का आदेश स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें दिया था। (रिचर्ड एव. डेविस, लाइव्स ऑफ इमेजेज, प्रथम संस्करण, दिल्ली, 1999, पृ.83) डी. एन. झा प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बौद्धों से कहीं अधिक ज्यादा जैनियों का दमन किया है।

निष्कर्ष रूप में डी. एन. झा लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद निहित रूप से असहिष्णु था…अक्सर ही हिंसा का रूप धारण करने वाली असहिष्णुता सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त ब्राह्मणों से काफी सहायता पाती रही होगी। इसलिए यह दावा (हिंदुओं का दावा) पचाना कठिन है कि हिंदूवाद तिरस्कार करने के बजाय समावेश करता है। यह भी मानना असंभव है कि हिंदूवाद के रूप में हिंदूवाद का सार ही सहिष्णुता है। इसी तरह यह कहना कि इस्लाम ने ही इस देश में हिंसा लाई है, जिसे इसका पता नहीं ही नहीं था, ऐसा कहना प्रमाणों की उपेक्षा है। भारत में इस्लाम के आगमन काफी पहले सन्यासी-योद्धाओं और साधु फौजियों के दल बन चुके थे और वे आपस में खूब मारा-मारी करते थे। (डेविड एन. लोरेन्जेन, (वॉरियर एसोटिक्स इन इंडियन हिस्ट्री, जर्नल ऑफ द अमेरिकन सोसायटी, पृ.61-75, उद्धृत डी.एन. झा, पृ.42)

डी. एन. झा न साक्ष्य आधारित वस्तुगत लेखन करके भारतीय इतिहास के तमाम गुत्थियों को सुलझाया और हिंदुत्वादी इतिहाकारों द्वारा गढ़े गए तमाम झूठे मिथकों की पोल खोली।

ऐसे महान इतिहासकार को विनम्र श्रद्धांजलि (डी. एन. झा का 4 फरवरी 2021 को देहांत हुआ)

डॉ. सिद्धार्थ का यह लेख, समयांतर मार्च अंक में प्रकाशित 

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