देश की आज़ादी लाखों-लाख लोगों की क़ुर्बानियों का नतीजा है। जिसमें लेखक, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने भी अपनी बड़ी भूमिका निभाई। ख़ास तौर से तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े लेखक, कलाकार मसलन सज्जाद ज़हीर, डॉ. रशीद जहां, मौलाना हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, फै़ज़ अहमद फै़ज़, फ़िराक़ गोरखपुरी, अली सरदार जाफ़री, मजाज़, मख़दूम मोहिउद्दीन, कृश्न चंदर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुग़ताई, साहिर लुधियानवी, वामिक़ जौनपुरी, जॉंनिसार अख़्तर, सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी, यशपाल, बलराज साहनी, अण्णा भाऊ साठे, प्रेम धवन, डॉ. मुल्कराज आनंद, निरंजन सेन, रांगेय राघव, राजेन्द्र रघुवंशी, बिनय रॉय, शैलेन्द्र और एके हंगल आदि आज़ादी के आंदोलन में पेश-पेश रहे। अपने गीत, ग़ज़ल, नज़्म, नाटक, अफ़सानों और आलेखों के ज़रिए उन्होंने पूरे मुल्क में वतन-परस्ती का माहौल बनाया।
गु़लाम मुल्क में अपने अदब से उन्होंने आज़ादी के लिए जद्दोजहद की। अवाम में आज़ादी का अलख जगाया। अनिल डिसिल्वा, दीना गांधी, ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल बर्धन, दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेखा जैन, रेवा रॉय चौधरी, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा दत्त, क़ुदसिया ज़ैदी, रशीद जहॉं, गौरी दत्त, प्रीति सरकार, नूर धवन जैसी महिलाओं ने भी इप्टा में मिली अलग-अलग भूमिकाओं को सफलतापूर्वक निभाया।
अभिनय, गायन, नृत्य, निर्देशन से लेकर उन्होंने नाटक तक लिखे। इन अदीबों, कलाकारों और दानिश्वरों ने मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया। अंग्रेज़ी हुकूमत के सैकड़ों ज़ुल्म सहे, जेल में हज़ार यातनाएं सहीं। अपने परिवार से दूर रहे, लेकिन बग़ावत का झंडा नहीं छोड़ा। उनकी बेमिसाल क़ुर्बानियों के बाद ही आख़िकरकार, मुल्क आज़ाद हुआ।
आज़ादी की पूर्व संध्या से लेकर पूरी रात भर देशवासियों ने आज़ादी का जश्न मनाया। बंबई की सड़कों पर भी हज़ारों लोग आज़ादी का स्वागत करने निकल आए। ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ यानी इप्टा के सेंट्रल स्क्वॉड ने इस ख़ास मौके़ के लिए एक गीत रचा, जिसे गीतकार प्रेम धवन ने लिखा, पंडित रविशंकर ने इसकी धुन बनाई और मराठी के मशहूर लोकशाहीर अमर शेख़ ने इस गीत को अपनी आवाज़ दी।
देशभक्ति भरे इस गीत के बोलों ने उस वक़्त जैसे हर हिन्दुस्तानी के मन में एक नए आत्मविश्वास, स्वाभिमान और खु़शी का जज़्बा जगा दिया, ‘झूम-झूम के नाचो आज/गाओ ख़ुशी के गीत/झूठ की आख़िर हार हुई/सच की आख़िर जीत/फिर आज़ाद पवन में अपना झंडा है लहराया/आज हिमाला फिर सर को ऊंचा कर के मुस्कराया/गंगा-जमुना के होंठों पे फिर है गीत ख़ुशी के/इस धरती की दौलत अपनी इस अम्बर की छाया/झूम-झूम के नाचो आज।’
कैफ़ी आज़मी की शरीक-ए-हयात रंगकर्मी शौकत कैफ़ी ने अपनी किताब ‘याद की रहगुज़र’ में मुल्क की आज़ादी की पहली सुबह का क्या खू़बसूरत मंज़र बयां किया है, ‘दिन गुज़रते गए और हिन्दुस्तान की आज़ादी का हसीन दिन पन्द्रह अगस्त आ पहुंचा।
वो लिखती हैं, कम्यून में सुबह-सवेरे से ही हलचल मच गई। तमाम कॉमरेड नहा-धोकर, जो भी अच्छे कपड़े थे, पहनकर तैयार हो गए और सवेरे आठ बजे ही कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर के सामने जमा होने लगे। तिरंगा लहराया गया। चारों तरफ़ नारों का शोर बुलन्द हो रहा था, ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद, हिंन्दुस्तान की आज़ादी ज़िंदाबाद, भारत माता की जय, सल्तनत-ए-बर्तानिया मुर्दाबाद।’’
सबसे पहले मजाज़ ने अपना गीत सुनाया, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’। सरदार जाफ़री ने एक इंक़लाबी नज़्म पढ़ी। कैफ़ी ने नज़्म सुनाई। फिर पार्टी की खू़बसूरत नौजवान लड़कियों ने जिनमें दीना और तरला भी थीं, ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ गाया। पी.सी. जोशी और सज्जाद ज़हीर वगै़रह ने तक़रीरें भी कीं।
आगे वो कहती हैं, फिर सब लोग जुलूस की शक्ल में जमा होने लगे। और मैं एक धान-पान-सी, दुबली-पतली लड़की आंखों में आज़ाद हिन्दुस्तान के वास्ते हसीन ख़्वाब लिए कैफ़ी का हाथ पकड़े-पकड़े उस जुलूस के साथ चल पड़ी। जुलूस गोवालिया टैंक मैदान जाकर रुका। फिर तक़रीरें, नाच-गाना, नारे और खू़ब हंगामे हुए। फिर जुलूस ख़त्म हुआ।
मैं तो अपने कमरे में आकर सो गई। बहुत थक गई थी। लेकिन सरदार भाई, ज़ोए अंसारी, मिर्ज़ा अशफ़ाक़ बेग, मेहंदी, मुनीश सब शहर में घूमते रहे। एक ईरानी होटल में गए, जहां जार्ज पंचम की बड़ी तस्वीर लगी थी। सरदार भाई मेज़ पर चढ़ गए और जार्ज पंचम की तस्वीर निकालकर ज़मीन पर पटक दी।’
आज़ादी के ऐलान के बाद से ही मुल्क के हर हिस्से में गतिविधियां तेज़ थीं। आज़ादी से पचास दिन पहले सत्ता के गलियारे में क्या सियासी सरगर्मियां चल रही थीं? इसका बहुत अच्छा ब्यौरा वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय की किताब ’50 दिन 50 साल पहले (आज़ादी की तैयारी : एक डायरी)’ में मिलता है।
इस डायरी में 13 अगस्त का हवाला देते हुए वह लिखते हैं, ‘लखनऊ में रात आठ बजे रेजीडेंसी से यूनियन जैक उतार लिया गया। पहली बार और हमेशा के लिए। झंडा उतारने के बाद सैपर्स ने वह चबूतरा भी तोड़ दिया, जिस पर लगे खंभे पर झंडा फ़हराता था।’
वहीं 14 अगस्त की डायरी में दर्ज है,’दिल्ली में रात दस बजे अपार जनसमूह इकट्ठा हो गया था और लोग बारिश के बावजूद डटे हुए थे। संसद भवन के हर तरफ़ सिर्फ़ लोग ही लोग। एक के बाद एक नेहरू, पटेल और बाक़ी लोग आए। ज़िंदाबाद के नारे लगे और वे अंदर चले गए। सबको इंतज़ार था, रात बारह बजे का।
उधर वायसराय हाउस में माउंटबेटन अपने अध्ययन कक्ष में अकेले बैठे थे। उन्होंने अपना चश्मा उतारकर रख दिया, दराज बंद किए और मेज़ से वह हर चीज़ हटा दी, जिससे उनके वायसराय होने का भान होता हो।’
(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र पत्रकार हैं)