Friday, March 29, 2024

भारतीय सिनेमा और दलित पहचान : भारत जैसे जातिग्रस्त समाज के लिए ज़रूरी है `पेरारियात्तवर`

(ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिनेमा ने जहाँ फ़िल्मों के निर्माण में दलितों के श्रम का शोषण किया है वहीं उनकी कहानियों को मिटाया और हड़पा है। यह सब अकस्मात न था। परदे पर जब उनकी कहानियाँ दिखलाई जातीं तो पितृसत्तात्मक, मर्दवादी और जातिवादी प्रच्छन्न भावों के साथ सवर्ण ही उनके क़िरदारों को निभाते।

यह परिदृश्य धीरे-धीरे बदला है और दलित (और कुछ ग़ैर-दलित) फ़िल्मकारों द्वारा निर्देशित सिनेमा में दलित चरित्रों की पहचान जाति और वर्ग की सीमाओं से परे जाकर और अधिक मुखर हुई  है। इन फ़िल्मकारों ने उस दृश्यात्मक दास्तानगोई को आकार देने में मदद की है जोन्याय समवेत सौंदर्यशास्त्रका मेल कराती है।

सवर्णों द्वारा बनाए गए सिनेमा मेंन्याय समवेत सौंदर्यशास्त्रकदाचित ही मौजूद था या वह सिनेमा शायद ही कभी ईमानदार था। दलित-बहुजन फ़िल्मकारों ने दलित-बहुजन दर्शकों को अपील करने वाला नई धारा का सिनेमा रचते हुए इस कमी को पूरा किया है।

इस श्रृंखला में हम पड़ताल करेंगे उन  10 भारतीय फ़िल्मों की जिनकी गिनती न केवल इस देश में बनी बेहतरीन फ़िल्मों में होती है बल्कि इनमें न्याय, राजनीति और सौन्दर्यबोध गुँथे हुए हैं। यहां पेश है दूसरी किस्त-जनचौक)

`पेरारियात्तवर` (2014, मलयालम, निर्देशक: बीजूकुमार दामोदरन) को ड्रामा, ट्रेजेडी या कोई भी प्रचलित सिनेशैली कहना उसे सिनेमा की एक सीमित, लोकरंजक परिभाषा में रिड्यूस करना होगा। अगर इसकी परिभाषा करनी ही है, तो `पेरारियात्तवर` जादुई निष्पक्षतावाद (मैजिकल ऑब्जेक्टिविज़्म) है। फ़िल्म काल्पनिक होने का दावा नहीं करती बल्कि शुरुआत में ही चेता देती है: ‘इस पटकथा में दर्शाई गईं सभी घटनाएँ केरल (भारत) में गत दस वर्षों में होती रही हैं।’

बावजूद इसके हमें यानी दर्शकों को ये पात्र किसी और ही दुनिया के लगते हैं- एक ऐसी दुनिया जिसकी तरफ खुलने वाले अपनी आँखों के द्वार हमने कब के बंद कर लिए हैं। इसलिए `पेरारियात्तवर` की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह हमें कोलम महानगरपालिका में सफ़ाईकर्मी (चरित्र निभाया है सुराज वेनजारामूड ने) और उसके बेटे (मास्टर गोवर्धन) की नज़रों से उस दुनिया में ले जाती है जो बहुत पहले अदृश्य कर दी गई थी। बेटा अक्सर अपनी मृत माँ से बातचीत करता है : यह एक लाक्षणिक हस्तक्षेप है जिसमें वह अपने बेटे के लिए डायरी बन जाती है जिसमें वह अपने विचार और भावनाएँ दर्ज करता है। बेटे का वर्णन और पिता की आँखें हमारे लिए इस दुनिया में आने का माध्यम बनती हैं।

`पेरारियात्तवर`अपने क्लाइमेक्स के साथ शुरू होती है और फिर रील पीछे घूमकर हमें उस लम्हे में ले जाती है जिसमें कहानी दरअसल शुरू हुई थी। पिता और पुत्र रेलवे पटरियों के किनारे बसी झोपड़-पट्टी में रहते हैं। एक गराज मैकेनिक, बैंड बजाने वाले, पश्चिम बंगाल से काम की तलाश में केरल आए युवा लड़के, बस्ती के ये पात्र कथानायकों के परिचित हैं। पिता और पुत्र टीन के घर में रहते हैं जिसमें बारिश के मौसम में छत से पानी टपकता है। उनकी एकमात्र ‘खिड़की’ है एक चौकोर छेद जो जूट के बोरे से ढँका रहता है।

सीवर की दुर्गन्ध, गुज़रती ट्रेनों की खड़खड़ाहट, बैंड की रिहर्सलों और बस्ती की चिल्लपों के बीच पिता-पुत्र शान्ति बनाए हैं, फूलों वाले पौधे की देखरेख करते हैं और एक छोटी सी मछली-तलैया का रखरखाव भी; जो उनकी आशापूर्णता का निहितार्थ है। फ़िल्म के हर फ्रेम में इस तरह की सूक्ष्मताएँ बहुतायत में हैं; न संवाद न शोर बल्कि बारीकी से रची गईं ख़ामोशियाँ `पेरारियात्तवर` का मजबूत पक्ष हैं। पार्श्व संगीत का इस्तेमाल विरल है मगर पार्श्व की आवाज़ें प्रत्येक दृश्य को दमदार ढंग से वास्तविक बना देती हैं। दर्शकों को ऐसा लगता है कि वे सिनेमाई क्षण का हिस्सा हैं और यह बात एक महान फ़िल्म का प्रमुख गुण है।

भारत में आज़ादी के बाद फ़िल्म सोसाइटियाँ उभरनी शुरू हुईं मगर कुछ 1947 से पहले ही विद्यमान थीं। उनमें सबसे प्रभावशाली शायद (तत्कालीन) कलकत्ता की फ़िल्म सोसाइटियाँ थीं। कहना न होगा कि वे पूर्णतः सवर्ण सदस्यों द्वारा शासित थीं जिनमें कुछ सामंती विरासत वाले थे। इन फिल्म सोसाइटियों का उद्देश्य ऐसा माहौल तैयार करना था जो आगे चलकर भारत में विश्वस्तरीय सिनेमा के निर्माण में मददगार हो। बावजूद इसके उनमें किसी को भी इस बात की परवाह न थी या यूं कह लें कि उनमें यह स्वीकार करने की बौद्धिक ईमानदारी न थी कि फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में केवल ब्राह्मणों-सवर्णों के दबदबे के कारण ऐसा होना सम्भव नहीं था।

सिनेमा निर्माण के साधनों-संसाधनों पर दशकों तक सवर्णों का दबदबा रहा जिसकी वजह से भारत में सिनेमा एक खोटी चेतना रचने का प्रभावी माध्यम बन गया। इसी वजह से सिनेमा के बनाने वाले धीरे-धीरे अराजनीतिक होते गए अर्थात वे किसी सामाजिक आन्दोलन का हिस्सा नहीं रहे जिसका अभीष्ट न्याय, समता और बंधुता पर आधारित संस्कृति तैयार करना हो।

ऐसा सिर्फ टेक्नोलॉजी के द्रुत प्रसार के कारण संभव हुआ कि दलित इस क्षेत्र में दाखिल हुए और उनकी कहानियाँ सिनेमा बनीं। गुज़रे दशक में भारत में उभरी सर्वोत्कृष्ट फ़िल्मों में से एक `पेरारियात्तवर` इस उपलब्धि का प्रमाण है।

एक निर्देशक के तौर पर बीजूकुमार दामोदरन की प्रतिभा को इस फ़िल्म के तीन दृश्य दर्शाते हैं। पहले दृश्य में पिता अपने बेटे के लिए एक खिलौना कार खरीदता है और जब वह रास्ता पार करने ही वाले होते हैं कि तेज गति से आती एक कार उन्हें भौंचक कर देती है। वे रुक जाते हैं और कार का मालिक उन पर चीखता है। बच्चे के हाथ से खिलौना कार छूट कर नीचे गिर जाती है और द्रुत गति से बढ़ते ट्रैफिक में कुचल दी जाती है। दूसरे दृश्य में जब एक हड़ताल की वजह से नगरपालिका डम्पिंग यार्ड पर काम बंद कर देती है, तो अब बेरोज़गार हो चुका पिता किसी चौक पर खड़ा है जहाँ लोग आते हैं और लोगों को मज़दूरी करने ले जाते हैं।

एक भवन निर्माण स्थल पर पिता को काम मिलता है और काम देने वाला व्यक्ति कामगारों को काम की जगह पर ले जाने के लिए एक ट्रक में भरता है। एक ट्रैफिक सिग्नल पर पिता की आँखें उनके ट्रक की बगल में रुके हुए एक टेम्पो पर पड़ती है जिसमें बंधी हुई भैंसें कहीं ले जाई जा रही हैं। तीसरे दृश्य में पिता रास्ते पर झाड़ू लगा रहा है और उसे एक फुटपाथ पर रहने वाले व्यक्ति की छह या सात साल की गुमशुदा बच्ची मिलती है, उसके साथ बलात्कार हुआ है, वह लहूलुहान है। इस दृश्य के दौरान एकदम ख़ामोशी है। यह सारे दृश्य अपने-आप में कहानियाँ हैं, संवेदनशील और गहन कहानियाँ जो पिता और पुत्र के मुख्य नरेटिव के तहत रची-बुनी हैं।

`पेरारियात्तवर` उन कहानियों का सुन्दर, काव्यात्मक प्रस्तुतिकरण है जिन्हें भारत में दशकों तक सिनेमा के दायरे से बाहर रखा गया। केरल के अति-चर्चित और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए कम्युनिस्ट विमर्श और जन की मुक्ति के उसके दावों को समझने की गुंजाइश `पेरारियात्तवर` अपने दर्शक को प्रदान करती है क्योंकि वह मुक्ति और न्याय के इस विचार से परे कर दिए गए लोगों और यथार्थों का चित्रण करती है। पश्चिम बंगाल से मज़दूरी तलाशने आए प्रवासियों के साथ होने वाला व्यवहार, दलितों का संवेदनशून्य विस्थापन, नगरपालिका के कामगारों की होनेवाली उपेक्षा और अंततः अपने अधिकारों की मांग करने वाले लोगों का दमन – यह सब कम्युनिस्ट राज्य की बेपरवाही और पूर्वग्रहों को दर्शाते हैं। `पेरारियात्तवर` निस्संदेह एक बौद्धिक, समीचीन कलात्मक उपलब्धि है मगर उसे महसूस करने के लिए सिनेमा देखने की बरसों पुरानी अयोग्य आदत/अप्रोच से हमें अपने आप को मुक्त करना पड़ेगा। `पेरारियात्तवर` ही वह सिनेमा है जिसकी ज़रूरत मानवीय बनने के लिए भारत जैसे जातिग्रस्त समाज को है।

(न्यूज़साइट फर्स्टपोस्ट पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख का भारत भूषण तिवारी द्वारा किया गया यह हिन्दी अनुवाद `समयांतर` में छप चुका है। कुल दस आलेखों की श्रृंखला में यह दूसरा है।)

(कवि-कहानीकार-अनुवादक योगेश मैत्रेय `पैंथर्स पॉ नामक जाति-विरोधी प्रकाशन के संस्थापक हैं। सम्प्रति वह टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी कर रहे हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles