प्रदूषण को दरकिनार करता भारतीयों का पटाखा प्रेम

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एक और दिवाली बीत गई। एक बार और दिल्ली एनसीआर स्मॉग की चादर से ढक गया। पटाखों पर बैन सिर्फ कागज पर रहा। लोगों ने जितनी मांग की उतने पटाखे दुकानों में बिके, लोगों ने खरीदे और मन भर कर चलाए।

यानी हर साल की तरह इस साल भी साबित हो गया कि स्वास्थ्य पर प्रदूषण के चिंताजनक असर के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिशों में अभी भी भारी सुधार की गुंजाइश है।

डॉक्टर कह-कह कर थक गए कि प्रदूषण आपको सिर्फ थोड़ी सी खांसी नहीं देता, बल्कि सांस की बीमारियां देकर जान तक ले लेता है। एजेंसियां आंकड़े दे-देकर थक गईं कि प्रदूषण से मरने वालों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है। लेकिन पटाखों के प्रति लोगों का आकर्षण कम होने का नाम नहीं ले रहा है।

दिल्ली पुलिस ने दिवाली से पहले करीब दो टन पटाखे जब्त किए थे लेकिन पटाखे जलाने वालों को कोई रोक नहीं पाया। असर अगली सुबह ही देखने को मिल गया।

वायु की गुणवत्ता पर नजर रखने वाली कंपनी आईक्यूएयर के मुताबिक एक नवंबर की सुबह हवा में पीएम 2.5 के कणों की मात्रा 345 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से भी ज्यादा हो गई, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से पांच या दस नहीं बल्कि 23 गुना ज्यादा है।

‘लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ’ पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 2008 से 2019 के बीच नई दिल्ली में हर साल लगभग 12 हजार लोगों की जान वायु प्रदूषण के कारण हुई। यह शहर में हुई कुल मौतों का 11.5 प्रतिशत है।

अमेरिका के ‘हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट’ और संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की एक रिपोर्ट कहती है कि 2021 में वायु प्रदूषण की वजह से भारत में 21 लाख लोग मारे गए।

बच्चों की मौत में तो पूरी दुनिया में भारत सबसे आगे रहा। उसी साल वायु प्रदूषण की वजह से देश में पांच साल से कम उम्र के 1,69,400 बच्चों की जान चली गई।

लेकिन नई दिल्ली में लोग या तो इन सभी आंकड़ों से अनजान हैं या इन पर विश्वास नहीं करते। इस दिवाली एक बार फिर नई दिल्ली ने दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर होने का खिताब अपने नाम कर लिया। लाहौर को भी पीछे छोड़ दिया।

अब फिर से अस्पतालों के बाहर सांस लेने में तकलीफ की शिकायत लिए बड़ों, बूढ़ों और बच्चों की कतार लग जाएगी, लेकिन जिन्हें पटाखे जलाने हैं, उन्हें शायद इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके पास दलीलें भी तैयार हैं।

“पटाखों के बिना दिवाली सूनी लगता है”, “गाड़ियों का धुंआ तो सालों भर रहता ही है, गाड़ियों पर बैन क्यों नहीं लगाते” से लेकर “बैन लगाने के लिए सबको हिंदुओं के त्यौहार ही मिलते हैं, दूसरे धर्मों के त्योहारों पर तो कुछ नहीं कहते” तक, हर तरह के जवाब हाजिर हैं।

शायद समय आ गया है एक नए अध्ययन का। एक सर्वे कर यह पता लगाना चाहिए कि आखिर पटाखों के प्रति इस प्रेम का मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण क्या है।

आखिर वो क्या बात है जिसकी वजह से लोग पर्यावरण का नुकसान होने के अलावा बीमारी और मौत की चेतावनी से भी नहीं डरते और पटाखे जलाए बिना नहीं मानते।

(शैलेन्द्र चौहान लेखक-साहित्यकार हैं)

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