Friday, April 19, 2024

जयंती पर विशेष: अयोथी थास; अनार्य द्रविड़ गैर-ब्राह्मणवादी राष्ट्र-समाज के प्रणेता

20 मई को अनार्य द्रविड़-गैर ब्राह्मणवादी राष्ट्र-समाज निर्माण के प्रणेता एवं तमिलनाडु (तब मद्रास प्रेसीडेंसी) में दलित-बहुजन आंदोलन की नींव डालने वाले अयोथी थास की 175वीं जयंती वर्ष की शुरुआत हो रही है। 20 मई 1845 को चेन्नई के पास ‘अछूत’ कही जाने वाली परियाह जाति में जन्मे अयोथी थास की आधुनिक भारत के इतिहास में भूमिका का मूल्यांकन करने से पहले आधुनिक इतिहासकारों की आधुनिक भारत के इतिहास के प्रति नजरिए पर एक अत्यन्त संक्षिप्त दृष्टि डाल लेना जरूरी है। 

आधुनिक काल के अधिकांश उदारवादी और वामपंथी इतिहासकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिक भारत के इतिहास को उमेश चंद्र बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, तिलक, गोखले, राजगोपालाचारी और बाद में गांधी के नेतृत्व में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता से स्वशासन, स्वराज और बाद में पूर्ण आजादी मांग के आंदोलन का पर्याय बना दिया। कुछ ने इसमें देशभक्त क्रांतिकारी युवकों द्वारा ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किए जाने वाले संघर्षों को शामिल कर लिया और कुछ ने किसान-मजदूरों एवं आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ किए जाने वाले संघर्षों को भी जगह दी।

लेकिन नहीं के बराबर ऐसे इतिहासकार हुए, जो यह देख पाए या जिन्होंने यह देखने की जरूरत समझी कि जिस समय ब्रिटिश सत्ता से स्वशासन, स्वराज एवं बाद में देश की पूर्ण आजादी के लिए उच्च जातियों के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था, उसी दौर में आर्य-ब्राह्मणवादी एवं वर्ण-जातिवादी देशज शासन-सत्ता, वर्चस्व एवं शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था के खिलाफ एक दूसरा स्वतंत्रता या मुक्ति का आंदोलन भी समांतर रूप में चल रहा था, जिसकी मांग सबके लिए न्याय, समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता यानी एक नए आधुनिक भारत के निर्माण की थी। जिस भारत में धर्म, जाति, पितृसत्ता एवं भाषा आधारित श्रेष्ठता एवं वर्चस्व के लिए कोई जगह न हो। इस मुक्ति आंदोलन नेतृत्व बिना किसी अपवाद के शूद्र (पिछड़ी जातियों), अतिशूद्र (‘अछूत’ जाति) लोग कर रहे थे। इसके अगुवा व्यक्तित्वों ने धर्म, समाज, इतिहास, संस्कृति एवं परंपराओं को देखने की नई विश्वदृष्टि एवं विचारधारा प्रदान की। 

जहां महाराष्ट्र में आर्य-ब्राह्मण देशज वर्चस्व एवं शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत माली जाति (शूद्र, सछूत) के ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827- 28 नवंबर 1890) ने किया, वही तमिलनाडु में इसकी शुरुआत दलित (परियाह, पंचम, ‘अछूत’ मानी जाने वाली जाति) जाति के अयोथी थास (20 मई 1845-1914) ने किया। आधुनिक युग में सबसे पहले फुले एवं अयोथी थास ने भारतीय समाज, इतिहास, संस्कृति एवं परंपराओं को देखने की एक नई विश्वदृष्टि एवं विचारधारा उपलब्ध कराई, जो भारत को देखने-समझने की प्रभावी, वर्चस्ववादी, आर्य-ब्राह्मणवादी विश्वदृष्टि एवं विचारधारा के लिए एक निर्णायक चुनौती थी।

अयोथी थास ने ब्राह्मणवाद, जाति-व्यवस्था, आर्य श्रेष्ठता और तमिल भाषा पर संस्कृत भाषा के वर्चस्व को चुनौती दी और अनार्य द्रविड़, बौद्ध मूल्यों, विचारधारा, संस्कृति, परंपरा और समाज व्यवस्था को वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया और संस्कृत भाषा के वर्चस्व को तोड़ने एवं उसकी जगह तमिल भाषा को स्थापित करने के लिए संघर्ष किया। जिस तरह महाराष्ट्र में डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी की पृष्ठभूमि एवं आधार ज्योतिबा फुले ने खड़ा किया, उसी तरह ईवी रामासामी ‘पेरियार’ की वैचारिकी की पृष्ठभूमि एवं आधार का निर्माण तमिलनाडु में अयोथी थास ने किया था। सिर्फ सामाजिक पृष्ठभूमि भिन्न-भिन्न थी। जहां ज्योतिबा फुले शूद्र कहे जाने वाले वर्ण माली जाति (सछूत) में जन्म लिये थे, वहीं अयोथी थास अतिशूद्र या पंचम वर्ण (परियाह जाति- अछूत) में जन्म लिये थे।

जहां एक ओर ज्योतिबा फुले की विचारधारा को अछूत कही जाने वाली जाति (महार) में जन्मे डॉ. आंबेडकर ने आगे बढ़ाया, वहीं अयोथी थास की विचारधारा को पिछड़ी जाति (नायकर) में जन्मे पेरियार ने आगे बढ़ाया। डॉ. आंबेडकर और पेरियार दोनों ने अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि एवं वैचारिकी के आधार पर ज्योतिबा फुले और अयोथी थास की विचारधारा में बहुत कुछ जोड़ा और कुछ चीजें छोड़ भी दिया या छोड़ देना पड़ा। ऐसा इतिहास की हर अगली पीढ़ी करती है, कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। फिलहाल यहां यह विमर्श का विषय नहीं है।

अयोथी थास ने डॉ. आंबेडकर द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण करने से करीब 50 वर्ष पूर्व बौद्ध धम्म ग्रहण कर लिया था। इस मामले में उनका सहयोग थियोसोफिकल सोसायटी के कोलोन आल्कॉट ने किया। आल्कॉट के सहयोग से अयोथी थास ने सिलोन (श्रीलंका) जाकर भिक्खु सुमंगला नायक से बौद्ध धम्म की दीक्षा ली।

उनका कहना था कि परियाह अनार्य आदि द्रविड़ हैं और मूल रूप से बौद्ध रहे हैं, जिन्हें बौद्ध होने के चलते द्रविड़ों पर विजय प्राप्त करने वाले आर्य ब्राह्मणवादियों ने ‘अछूत’ घोषित कर दिया। बौद्धों को ‘अछूत’ घोषित करने की बात डॉ. आंबेडकर के लेखन में भी मिलती है। अयोथी थास ब्राह्मण धर्म की विजय और बौद्ध धम्म की पराजय को एक कड़ी के रूप में देखते थे। डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ में यह स्थापित किया है कि ब्राह्मणवाद बौद्ध धम्म के खिलाफ एक प्रतिक्रांति था। द्रविड़-तमिल समाज को आर्य-ब्राह्मणवादी चंगुल से मुक्त कराने के लिए अयोथी थास ने न्याय, समता, बंधुता और तर्क आधारित बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने और पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयास शुरु कर दिया। इसके लिए उन्होंने 1898 में शाक्य बौद्धिस्ट सोसायटी का गठन किया और उसका नेतृत्व किया। जिसका नाम बाद में साउथ इंडियन बौद्धिस्ट सोसायटी पड़ा। 

1898 में स्थापित शाक्य बौद्धिस्ट सोसायटी ने दक्षिण भारत और दुनिया के कई देशों में बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई। दक्षिण भारत एवं विदेशों में इस सोसायटी की शाखाएं भी स्थापित हुईं। इन देशों में वर्मा, श्रीलंका, फिजी, मलेशिया और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल थे। बौद्ध धम्म और उसके तर्क आधारित समता एवं बंधुता की विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए अयोथी थास ने सोसायटी के मुख्यालय मद्रास से ‘तामिजान’ नामक नियमित साप्ताहिक पत्र भी निकाला। इसके लिए उन्होंने बुद्धिस्ट प्रेस और गौतम प्रेस भी स्थापित किया। बाद में कोलार गोल्ड फील्ड्स में सिद्धार्थ प्रेस की स्थापना की। यह प्रेस नए सामाजिक, धार्मिक विश्वदृष्टि और विचारधारा का प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

अयोथी थास के लिए बौद्ध धम्म वेद, पुराण, स्मृति एवं उपनिषद आधारित ब्राह्मणवाद (जिसे बाद में हिंदू धर्म कहा जाने लगा) की वर्ण-जाति आधारित असमानता एवं अन्याय की व्यवस्था को तोड़ने एवं समतामूलक न्याय आधारित समाज के निर्माण का दार्शनिक-वैचारिक आधार मुहैया कराया। आधुनिक दलित आंदोलन ने अयोथी थास के माध्यम से अपनी जड़ों की तलाश बौद्ध धम्म में किया और बौद्ध धम्म को पुनर्जीवन प्रदान किया। बाद में डॉ. आंबेडकर ने भी दलित आंदोलन की जड़ों को बौद्ध धम्म की न्याय, समता और लोक कल्याण की विचारधारा से जोड़ा।

1901 की पहली जनगणना के समय अयोथी थास ने अछूतों को आह्वान किया कि वे खुद को जातिविहीन आदि द्रविड़ के रूप में जनगणना में दर्ज कराएं। 1911 की जनगणना के समय उन्होंने फिर इस मांग को दुहराया। इसके अलावा उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह मांग किया कि वह अछूतों को मूल बौद्धिस्ट के रूप में सूचीबद्ध करें, भले ही ‘अछूत’ अपनी उप-जातियां भी जनगणना में दर्ज काराएं। अयोथी थास किसी भी रूप में आदि द्रविड़ों को हिंदू मानने के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के रूप में हिंदू धर्म आदि द्रविड़ों पर थोप कर उन्हें ‘अछूत’ घोषित कर दिया गया और उनके इंसान होने का दर्जा ही छीन लिया गया। इस तरह मूल रूप से बौद्ध आदि द्रविड़ों को ‘अछूत’ घोषित कर, उन्हें उनकी मानवीय गरिमा से वंचित कर दिया गया। अयोथी थास का मूल संघर्ष बहुसंख्य (करीब 97 प्रतिशत) गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों और आदि द्रविड़ों (अछूतों) को मानवीय समता का दर्जा दिला कर उनकी खोई हुई मानवीय गरिमा को वापस दिलाना था।

अयोथी थास के संघर्ष का दायरा केवल अछूत (परियाह) लोगों तक सीमित नहीं था। उन्होंने सभी गैर-ब्राह्मण तमिलों के लिए न्याय एवं समता के लिए संघर्ष किया। अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही उन्होंने करीब 25 वर्ष की उम्र में नीलगिरी में, 1870 में आदिवासियों को उनके हितों के लिए संगठित किया। उन्होंने 1876 में अद्वैदानंद महासभा का गठन किया। 1885 में अयोथी थास ने जॉन रत्नम के साथ मिलकर ‘द्रविड़ पांडियन’ पत्रिका निकाली। 1886 में उन्होंने यह घोषणा किया कि ‘अछूत’ हिंदू नहीं हैं। हम सभी जानते हैं कि डॉ. आंबेडकर भी ‘अछूत’ कहे जाने वाले समाज को हिंदू नहीं कहते थे और वे सछूत समाज को हिंदू कहकर संबोधित करते थे।

वे अछूतों को बहिष्कृत समाज, डिप्रेस्ड क्लास और वैधानिक तौर पर अनुसूचित जाति कहते थे। 1891 में अयोथी थास ने पंचमार महासभा की स्थापना की। तमिल समाज में पंचमार उन लोगों को कहा जाता है, जिन्हें चारों वर्णों में कोई जगह नहीं दी गई। हिंदी भाषा में जिसे पंचम वर्ण या अन्त्यज कहते हैं। इन लोगों को ‘अछूत’ का दर्जा वर्ण व्यवस्था के निर्माता एवं संचालक ब्राह्मणों ने दिया। अयोथी थास ने जिस परियाह जाति में जन्म लिया था, वह भी इसी पंचम वर्ण की एक उपजाति थी।

अयोथी थास ने खुद को धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दायरे तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वदेशी एवं स्वराज के आंदोलन के ब्राह्मणवादी उच्च-जातीय चरित्र को अपनी पत्रिका ‘तामिजान’ में कई किश्तों में लेख लिख कर उजागर किया। इस पत्रिका का प्रकाशन 1907 में प्रारंभ हुआ और उनके परिनिर्वाण (1914) के समय तक पत्रिका निकलती रही।

1907 में मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस द्वारा जोर-शोर से स्वदेशी आंदोलन शुरु किया गया। अयोथी थास ने अपनी पत्रिका ‘तामिजान’ में ‘स्वदेशी रिफार्म’ नाम से एक कॉलम शुरु किया। यह कॉलम पत्रिका के पहले साप्ताहिक अंक से शुरु हो गया था। मुख्यत: यह कॉलम अयोथी थास खुद लिखते थे। इस कॉलम में उन्होंने ब्राह्मणवाद की राजनीति और राष्ट्रवाद के ब्राह्मणवादी तत्वों का विश्लेषण किया। अयोथी थास को साफ-साफ दिख रहा था कि किस तरह कांग्रेस में ब्राह्मणों का वर्चस्व है। उन्होंने यह भी देखा कि ब्राह्मणों के मालिकाने वाले प्रेस में कैसे ब्राह्मणों का ही वर्चस्व है और उन्हीं के विचारों को ये प्रेस प्रचारित-प्रसारित करते हैं।

अयोथी थास का कहना था कि निम्न चीजों के बिना स्वदेशी आंदोलन का कोई मतलब नहीं है-

  • राजनीतिक सुधार का विचार एवं व्यवहार तब तक कोई अर्थ नहीं रखता, जब तक सोचने के तरीके और सामाजिक व्यवहार के सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं आता है। अयोथी  थास एक ऐसे नागरिक समाज की कल्पना करते थे, जिसमें आंतरिक तौर पर  राजनीतिक सुधार सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों के साथ जुड़े हुए हों। वे यह भी कहते थे कि लोगों के जीवन को रूपांतरित करके ही राष्ट्रीय सुधार और प्रगति हासिल की जा सकती है।
  • उनका कहना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता या स्वराज सिर्फ स्वशासन से हासिल नहीं किया जा सकता है, इसके साथ लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में भी खुशहाली आनी चाहिए। इसलिए उनका कहना था कि स्वतंत्रता तभी हासिल हो सकती है, जब जातियां खत्म हो जाएं और श्रम करने वाले बेहतर जिंदगी जीने लगें और वे इस स्थिति में आ जाएं कि अपने हितों के मामले में राजनीतिक जीवन को प्रभावित कर सकें।
  • अयोथी थास का कहना था कि भारत में सुशासन की शुरुआत केवल भद्र, बाहरी लोगों (ब्रिटिश शासन) के मातहत शुरु हुई। भारत के लोग इस शासन में तभी शामिल हो सकते हैं, जब विभिन्न समुदाय इस प्रक्रिया और सरकार की संस्थाओं में हिस्सेदारी करें, नहीं तो शासन को न्यायसंगत बनाने की ब्रिटिश शासन की सभी कोशिशों को स्वयंभू और महत्वाकांक्षी ब्राह्मणों द्वारा विफल कर दिया जाएगा।

आयोथी थास के स्वशासन एवं स्वराज के इस मूल्यांकन में डॉ. आंबेडकर, पेरियार एवं अन्य बहुजन नायकों का वह स्वर सुनाई देता है, जिसमें वे बार-बार यह सवाल करते हैं कि उच्च जातियों के नेतृत्व में चला रहा स्वशासन एवं स्वराज आंदोलन आखिर किसके लिए स्वशासन एवं स्वराज की मांग कर रहा है। उस स्वशासन एवं स्वराज में शूद्रों, अतिशूद्रों एवं महिलाओं के लिए क्या जगह होगी?

अयोथी थास दार्शनिक, विचारक, तमिल साहित्य एवं संस्कृति के विशेषज्ञ होने के साथ परंपरागत सिद्ध औषधि विज्ञान के ज्ञाता एवं प्रयोगकर्ता थे। अयोथी थास के बाबा लार्ड एरिंगटन के यहां खानसामा थे। आयोथी थास का मूल नाम कथावरयन था, उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था, उन्हें तमिल के अलावा अंग्रेजी, संस्कृति और पालि भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त था। 

इस पूरे संदर्भ में एक तथ्य को रेखांकित कर लेना जरूरी है कि भारत में कंपनी राज (ईस्ट इंडिया कंपनी) और बाद में ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन से पहले कोई भी पंचम वर्ण (अछूत समुदाय) का व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने और लिखने-पढ़ने में महारत हासिल करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर अयोथी थास ने ज्ञान प्राप्त कैसे किया? फिलहाल यहां इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि जिस मद्रास प्रेसीडेंसी में अयोथी थास का जन्म हुआ था, वहां पर 1774 में ब्रिटिश सत्ता की पूर्ण स्थापना हो चुकी थी। 1774 से 1858 तक मद्रास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा शासित था। 1858 में महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी की गयी ‘महारानी की उद्घोषणा’ की शर्तों के तहत मद्रास प्रेसीडेंसी के साथ-साथ शेष ब्रिटिश भारत ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन के अधीन आ गया।

मद्रास प्रेसीडेंसी में पूर्ण ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने के काफी पहले ही 1639 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रासपट्टनम गांव को खरीद लिया था और इसके एक साल बाद मद्रास प्रेसीडेंसी के पूर्ववर्ती, सेंट जॉर्ज किले की एजेंसी की स्थापना भी कर ली थी। इस विवरण का निहितार्थ यह है कि अयोथी थास के जन्म (20 मई 1845) के करीब 70 वर्ष पहले मद्रास प्रेसीडेंसी पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया था और उनके जन्म के करीब 200 वर्ष पूर्व मद्रास में अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान का सीमित पैमाने पर ही सही प्रचार-प्रसार ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ शुरु हो गया था। इसने इस प्रेसीडेंसी के राजनीतिक जीवन को तो बदल ही दिया, लेकिन इसके साथ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में भारी उथल-पुथल भी किया।

यहां ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के भारत और उसके विभिन्न वर्गों-समुदायों के लिए नुकसान फायदों का विवरण प्रस्तुत करने का अवसर नहीं है, अयोथी थास के व्यक्तित्व के निर्माण के संदर्भ में इतना कहना जरूरी है कि ब्रिटिश शासन ने ज्ञान-शिक्षा हासिल करने का दरवाजा उन ‘अछूत’ कही जाने वाली जातियों के लिए भी खोल दिया, जिनके लिए ज्ञान-शिक्षा के दरवाजे ब्राह्मणवाद एवं ब्राह्मणों ने बंद कर रखा था। यह कार्य ब्रिटिश सत्ता ने प्रत्यक्ष तौर पर और ईसाई मिशनरियों ने उनके सहयोग से किया। शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त खुद को, अपने समुदाय को और पूरे समाज को ब्राह्मणवाद के चंगुल से मुक्त कराने के इस अवसर का इस्तेमाल अयोथी थास  बखूबी किया, जिनका जन्म परियाह (अछूत) जाति में हुआ था और जिनके लिए शिक्षा के दरवाजे एवं खिड़कियां ब्राह्मणवाद एवं ब्राह्मणों ने बंद कर रखे थे। 

अयोथी थास ने ब्रिटिश सत्ता के आगमन से पैदा हुए नए अवसरों का भरपूर इस्तेमाल किया और अनार्य-द्रविड़, गैर-ब्राह्मणवादी न्याय, समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता-आधारित राष्ट्र-समाज के निर्माण के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। 

आइए, उनके 175 वें जन्मदिन पर बहुजन मुक्ति आंदोलन के प्रणेता आयोथी थास को याद करते हुए उन्हें नमन करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ-  

1- वी. गीता एडं एस.वी. राजादुरई और    ‘‘टुवर्ड्स, अ नॉन-ब्राह्मिन मिलीनियमः फ्रॉम आयोथी थास टू पेरियार’’,  दूसरा संशोधित संस्करण, 2008, पुनर्मुद्रण, 2011, प्रकाशक- मंदिरा सेन फॉर सम्या, कोलकता।

2- दलित-सबाल्टर्न इमर्जेंस इन रिलिजियो-कल्चरल सबजेक्टीविटी, आयोथी थसार इमैनिसिपेटरी बुद्धिज्म, जी. अलोयसिएस, क्रिटिकल क्वेस्ट, नई दिल्ली।

3-दलित-सबाल्टर्न, सेल्फ आइडेंटिफिकेशन्स, आयोथी थसार एडं तिमजॉन, जी. अलोयसिएस, क्रिटिकल क्वेस्ट, नई दिल्ली।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...