जहां ईमान ही पर टिकना संदिग्ध हो वहां पॉलिटिक्स में भी क्या सदाक़त रह जाएगी: असद जैदी

(कल कवि और पत्रकार अजय सिंह की कविताओं के नये संकलन ‘यह स्मृति को बचाने का वक्त है’ का विमोचन था। इस मौके पर कवि और साहित्यकार असद जैदी नहीं पहुंच पाए थे। लेकिन उन्होंने इस मौके पर अपना लिखित वक्तव्य भेज दिया था जिसको यहां प्रकाशित किया जा रहा है-संपादक)  

“हमें अपने देश को नये सिरे से ढूँढ़ना चाहिए” हमारे महबूब साथी और प्रिय कवि अजय सिंह की एक कविता का यह मूल वाक्य है। यह एक वैकल्पिक विचारशीलता के साथ बुनियादी पुनर्विचार का आमंत्रण है। आज के दौर में दरअसल यह अकेलेपन को बुलावा देना भी है। और यह साहस का मामला है। ख़ुद को बचाए रखना, जो आप हैं और जहाँ आप रहे वहाँ बने रहना, आपनी प्रतिज्ञा को न भूलना आज अपने आप में एक क्रांतिकारी काम है। बल्कि एक क्रांतिकारी फ़र्ज़ है। इसे निभाते हुए जो बात कही जाए उसी बात में सदाक़त होती है। जैसा कि मिर्ज़ा कह गए हैं : “वफ़ादारी ब-शर्ते उस्तुवारी अस्ले ईमाँ है।”

अजय सिंह जो बातें कविता में कह सकते हैं वह उनकी या आने वाली पीढ़ियों में किसी ने नहीं कही। ये बातें हमारे कुछ सोचने समझने वाले साथियों–कवि लेखकों और चंद पढ़े लिखे शिक्षकों–के बीच निजी या अनौपचारिक विमर्श का हिस्सा तो रही हैं, पर सार्वजनिक मंच से या अपने लेखन में कहने से और निष्कर्ष तक ले जाने से लोग हिचकते हैं। वह प्रेमचंद के उस सरल से सवाल का सामना नहीं कर सकते–कि क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? एक दूसरा बुनियादी और ज़्यादा कठिन सवाल है जिसे केन्द्र में लाने का श्रेय मुक्तिबोध को है: पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? दिलचस्प बात यह है कि हम वाम-क्षेत्र के लोग इस कठिनतर सवाल का जवाब तो बड़ी आसानी से दे देते हैं, लेकिन उस सरल सवाल के जवाब में बग़लें झाँकते हैं। जहाँ ईमान ही पर टिकना संदिग्ध हो वहाँ पॉलिटिक्स में भी क्या सदाक़त रह जाएगी? आज हम, यानी बेशतर प्रगतिशील लोग और वामपंथ का दम भरने वाले आंदोलन और संगठन, इसी नैतिक अँधेरे की गिरफ़्त में हैं।

अजय अपने पुराने वामपंथी और बाद को राह भूल जाने वाले कवि मित्र को एक कविता में याद करते हैं। बेशर्मी से वह अवसरवादी मित्र कहता कि हम जहाँ भी हों, दिल तो हमारा उसी पुराने ठिकाने पर हे। ‘समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा!’ हाल ही में एक स्वनामधन्य कवि आलोचक बनारस जाता है। कई तरह से बनारस का महिमागान करने के बाद वह एक पंडे से अपने माथे पर चंदन पुतवाता है और सबको गर्व से दिखलाता है ताकि सनद रहे। एक वरिष्ठ लेखक पिछले ही साल राम मंदिर के लिए चंदा देकर रसीद की तस्वीर फ़ेसबुक पर लहराते हैं। ये सभी वामक्षेत्र के, वाम आंदोलनों की पैदाकर्दा शख़्सियतें हैं। ज़रा सी कोई तम्बीह करे तो बहुत से लोग उनके पक्ष में लामबंद हो जाते हैं। बाक़ी प्रगतिशील ख़ामोश रहने में ही भलाई समझते हैं कि कौन इनसे उलझे!

यह समस्या अचानक नहीं खड़ी हो गई है। इसकी जड़ें गहरी हैं, दूर तक जाती हैं। अजय सिंह की कविता इसी इतिहासबोध को साथ लेकर चलने वाली कविता है। यह हिन्दी साहित्य विमर्श और हिन्दी साहित्य की वामधारा का दुर्भागय है कि उसी के भीतर बैठे सिद्धान्तकारों ने ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी नवजागरण’ और ‘जातीय स्मृति’ के मिथक खड़े किए और उन्हें पाला पोसा, और हर तरह के पुनरुत्थानवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवादी निर्मितियों को प्रगतिशील जामे पहनाए। उन्होंने वे सारे काम कर दिखाए जो प्रतिक्रियावादी ख़ेमे को करने चाहिए थे। वाम के भीतर दक्षिण का काम करने का काम जितने बड़े पैमाने पर हिन्दी साहित्यालोचना और शिक्षण संस्थानों में हुआ है, किसी और भाषा या देश में न हुआ होगा। इस हक़ीक़त की शिनाख़्त रखने का विवेक और कविता में उसे कह देने का हौसला हमारे इस वरिष्ठ में है। वह सचमुच एक सच्चे कवि हैं।

हिन्दी में कोई और कवि स्मृति की बात करता या किताब का नाम ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’ रखता तो मेरा माथा ज़रूर ठनकता। मैं घबराता कि अब कौन से प्रेत जगाए जा रहे हैं। स्मृति हिन्दी में एक बहुत ‘काम्प्रोमाइज़्ड शब्द है, बल्कि एक बदनाम शब्द। अजय उसे उसके मूल आशय में पुनर्स्थापित कर रहे हैं। उसमें सपनों की स्मृति है, ‘पवित्र आवारगी’ की स्मृति है, संघर्षों की याद है, गिरावट और पतन का इतिहास है, राजकीय दमन और अंधराष्ट्रवाद की स्मृति है, कुल मिलाकर उस रास्ते का बयान है जिस पर चलकर हम आज के फ़ासिस्ट मक़ाम तक पहुँचे हैं।

उनकी किताब को हाथ में लेकर मुझे यही ख़ुशी है कि मैं एक वरिष्ठ का हमख़याल हूँ। कविताएँ पढ़ता हूँ और ग़ालिब के उस मशहूर कथन को दोहराए बग़ैर नहीं रह  सकता −− “देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा / मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।”

Janchowk
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