जब भीड़ का शोरगुल हो, किसी चुप्पे की तलाश करो। तमाम चीखते लोगों के बीच कुछ खामोश लोग भी मिल जाएंगे। उस ख़ामोशी को पढ़कर ही समझ सकोगे भीड़ क्या कह रही है।
नौ नवंबर को अयोध्या पर फैसले के दिन भी शोर मचाने वालों की कमी न थी, लेकिन संयमित रहकर चिंतन-मंथन की कोशिश करते बहुतायत लोगों की खामोशी सराहनीय रही। आज के भारत की यह ताकत है।
छह दिसंबर की तरह नौ नवंबर भी ऐतिहासिक दिन हो गया, लेकिन छह दिसंबर को विवादित ढांचा विध्वंस के बाद अप्रिय घटनाएं हुईं। नौ नवंबर के सकुशल गुजरने का श्रेय संयमित लोगों को जाएगा।
कोई शोर में शामिल होना चाहे, तो अब साधनों की कमी नहीं। अनंत अवसर हैं। सोशल मीडिया में ‘तुरंत फॉरवर्ड करो’ का उकसावा भी है। इसके बावजूद नौ नवंबर की खामोशी कोई बड़ा संदेश देती है। वह क्या है, खुद सोचने की बात है। संभव है, हरेक को कुछ खास समझने का अवसर मिल जाए।
छह दिसंबर के विध्वंस पर फैसला आना बाकी है। उसकी अलग सुनवाई चल रही है। अदालती प्रक्रिया दुरुस्त होती तो नौ नवंबर के इस फैसले से पहले उस पर विचार हो चुका होता। उस फैसले से पहले इस फैसले का आना कोई टीस जरूर छोड़ेगा। आपराधिक मामले का नतीजा दीवानी मामले से पहले न आ सका, तो साथ ही आ जाना ज्यादा गरिमापूर्ण होता।
किसी मामले का 27 साल घिसटना सबको थकाने वाली बात है। अभियुक्तों और पीड़ित पक्ष, दोनों का जीवन बंधक हो जाता है, लेकिन उम्मीद करें कि नौ नवंबर का फैसला अयोध्या विवाद से बंधक देश को मुक्त कराएगा। इसका श्रेय किसी अदालत या सरकार को नहीं, देश के बहुतायत संयमित लोगों को जाएगा।
हम सिर्फ फायरब्रांड नेताओं की न सुनें। टीआरपी के भूखे एंकरों तक सीमित न रहें। किसी आइटी सेल के प्रोपगैंडा का शिकार न हों। ऐसे वक्त में हम चुप लोगों और सोच समझकर बोलने वालों को सुनें। संभव है, शोरगुल में वह बोले ही नहीं। या फिर आवाज दब जाए। मौन की मुखरता को समझ लें, तो इस बंधक जिंदगी से आजाद होकर जरूरी सवालों का हल कर पाएंगे।
विष्णु राजगढ़िया
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