Friday, April 19, 2024

जयंतीः मधुशाला कविता से आगे समाज और इंसानियत के उच्च मुकाम का पैमाना बन गई

जीवित है तू आज मरा सा, पर मेरी यह अभिलाषा
चिता निकट भी पहुंच सकूं अपने पैरों-पैरों चलकर

यह पक्तियां दर्शाती हैं कि हरिवंश राय बच्चन किस जिजीविषा, जीवटता के कवि-गीतकार थे। छायावाद के बाद जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो गई थी और कविता में नित्य नए-नए प्रयोग हो रहे थे, वे हरिवंश राय बच्चन ही थे, जिन्होंने किसी भी धारा में न बहते हुए अपनी एक जुदा राह बनाई। निःसंदेह बच्चन हालावाद के प्रवर्तक थे। हाला को जीवन का प्रतीक बनाकर, उन्होंने अपनी कविताओं में जो जीवन दर्शन दिया, वह पाठकों के सामने मधुशाला के रूप में आया।

बच्चन की कविताओं में हाला जीवन की कटुताओं, विषमताओं, कुंठाओं तथा अतृप्तियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आई। हाला जीवन के विक्षोभ को प्रकट करने का साधन और रूढ़िवादियों, संप्रदायवादियों एवं धर्म के ठेकेदारों पर चोट करने का उनका प्रमुख अस्त्र बन गई। हरिवंश राय बच्चन की कविताओं में शराब कहीं जीवन, कहीं मस्ती, कहीं मादकता और अद्वैतवाद का पर्याय बनकर प्रस्तुत की गई।

घृणा का देते हैं उपदेश यहां धर्म के ठेकेदार
खुला है सबके हित, सब काल हमारी मधुशाला का द्वार

27 नवंबर, 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव बाबूपट्टी में जन्मे हरिवंश राय बच्चन पर उमर खैयाम की रुबाईयों और सूफी मत का असर शुरू से ही था। सूफियों के जीवन दर्शन का तो शराब एक अंग थी। हालांकि, लौकिक प्रेम के समान उसे भी ‘शराबे मारिफत’ के रूप में अलौकिक बना दिया गया था।

बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला

बच्चन की रचनाओं में जीवन के प्रति अनुराग है, न कि शराब पीने की हिमायत। सच बात तो यह है कि उनकी रचनाओं में हाला, प्रतीकात्मक रूप में आकर आध्यात्मिक रहस्यों के पर्दों को खोलती है।

मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूं, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूं
जिसको सुनकर जरा झूम चुके लहराएं, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं

‘मधुशाला’ का सबसे पहला प्रकाशन साल 1933 में उस समय की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के हीरक अंक में हुआ था। तब से लेकर आज तक इसके देश और दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद आ चुके हैं। किताब के कई संस्करण निकल चुके हैं, लेकिन मधुशाला का पाठकों के दिल-ओ-दिमाग पर छाया खुमार आज भी तारी है। बच्चन और मधुशाला एक-दूसरे के पर्याय हैं।

हरिवंश राय बच्चन ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लूबी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएचडी पूरी की। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कई साल अध्यापन किया। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में वे हिंदी विशेषज्ञ रहे।

बच्चन की साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए, सरकार ने उन्हें राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बनाया। नई पीढ़ी इस बात को भी शायद ही जानती होगी कि हरिवंश राय बच्चन अपने अध्ययन काल में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से भी जुड़े रहे। क्रांतिकारी भगत सिंह के प्रभाव से वे एथिस्ट बने, तो कविता और जीवन में भी उसका प्रभाव रहा। बच्चन अपनी एक कविता में कहते हैं,

दूर स्थित स्वर्गों की छाया में विश्व गया है बहलाया
हम क्यों उन पर विश्वास करें, जब देख नहीं कोई आया
अब तो इस पृथ्वी पर ही, सुख स्वर्ग बसाने हम आए

उन्होंने अपनी रचनाओं में सदैव धार्मिक जकड़बंदियों और कठमुल्लापन की मुखालफत की।

पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला

यही नहीं वे अपनी रचनाओं में धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों, आडंबरों का भी विरोध करते हैं।

और चिता पर जाए उड़ेला, पात्र न घृत का पर प्याला
घट बंधे अंगूर लता में, मय न जल हो पर हाला
प्राण प्रिय यदि श्राद्ध करो तुम, मेरा तो ऐसा करना
पीने वालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला

हरिवंश राय बच्चन की कविताओं ने सैंकड़ों नौजवानों के जीवन समर में आत्मबल दिया है। भाषागत बिंबवाद, कल्पना की उड़ान के बरक्स सरल-सहज, सीधी भाषा शैली में अपनी बात कहने के कारण बच्चन नौजवानों में बहुत लोकप्रिय हुए। छायावादी कवियों ने उस समय लाक्षणिक वक्रता से भाषा को दुरूह बना दिया था। बच्चन ने संस्कृत की तत्समता पर निर्भर न रहकर, तद्भव बहुल आम जन की बोलचाल वाली हिंदी का प्रयोग अपने काव्य में किया। वे बोलचाल की भाषा और लय को कविता के केंद्र में लाए। आधुनिक कविता की भाषा को तद्भवमुखी बनाने में बच्चन का अमिट योगदान है।

आधुनिक गीति काव्य में हरिवंश राय बच्चन प्रथम अध्याय हैं। उनके गीतों में अनुभूति और कल्पना का अद्भुत संयोग है। उनके गीतों के प्राणतत्व में संगीत, वेदना और करुणा है। वहीं भाषा और भाव, शब्द और स्वर, छंद और लय, अनुभूति और अभिव्यक्ति का उचित संयोग उनकी सहज प्रमाणिक विशिष्टता है। ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, ‘मिलन यामिनी’, ‘आकुल अंतर’, ‘एकांत संगीत’, ‘सतरंगिनी’, ‘विकल विश्व’, ‘खादी के फूल’, ‘सूत की माला’, ‘मिलन’, ‘दो चट्टानें’, ‘आरती और अंगारे’ इत्यादि बच्चन की मुख्य कृतियां हैं।

कविता संग्रह ‘दो चट्टानें’ के लिए उन्हें साल 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसी साल उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ तथा एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के ‘कमल पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में हरिवंश राय बच्चन के उल्लेखनीय कार्यों के लिए भारत सरकार ने साल 1976 में उन्हें अपने तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया।


हे लिखे मधुगीत मैंने हो, खड़े जीवन समर में
इस पार तुम हो, मधु है, उस पार ना जाने क्या होगा

कहां मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया
इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

जैसे गीतों ने हरिवंश राय बच्चन को जन-जन का चहेता कवि बना दिया। चार दशक तक वे कवि सम्मेलन मंचों की प्रमुख और गरिमामय आवाज बने रहे। कवि सम्मेलन मंच की लोकप्रियता बढ़ाने में बच्चन का प्रमुख योगदान है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि उन्होंने हिंदी में वाचिक परंपरा को स्थापित किया।

हरिवंश राय बच्चन के काव्य संग्रहों की तरह उनकी आत्मकथा, जो कि चार खंडों ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, उसने भी लोकप्रियता के कई कीर्तिमान बनाए। ‘दशद्वार से सोपान तक’ को साहित्यकार धर्मवीर भारती ने हिंदी के हजार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया, जब अपने बारे में इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कहा हो। बच्चन की इस बेमिसाल आत्मकथा के लिये उन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित ‘सरस्वती सम्मान’ भी मिला।

(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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