Friday, April 19, 2024

जोहरा सहगल: जिंदगी की प्रतिबद्धता की बेबाक किताब

शख्सियतें जिंदगी की प्रतिबद्धता की वह खुली किताब होती हैं जिनके जिए का एक-एक लफ्ज़ धड़कता है और अपना होना दर्ज करता है। गुजर जाने के बाद भी। साहिबजादी जोहरा बेगम मुमताजुल्ला खान उर्फ जोहरा सहगल ऐसी ही एक नायाब शख्सियत थीं। स्त्री अस्मिता की अजब जिंदा मिसाल और एक जानदार (यकीनन शानदार भी) लौ! दस दशक और दो साल यानी 102 वर्ष के अपने लंबे-गहरे जिस्मानी सफर को उन्होंने जिस जिंदादिली और खुदमुख्त्यारी के साथ जिया-निभाया, वैसा उनकी किसी अन्य समकालीन महिला हस्ती ने नहीं। दंभ नहीं बल्कि मजाक में वह कहा करती थीं कि दुनिया में सिर्फ और सिर्फ ‘एक’ जोहरा सहगल है!

उनके लिए यह कथन बेशक मजाक होगा लेकिन हकीकत से इसका रिश्ता बेहद गहरा था। इतना गहरा कि अस्सी साल के अपने कलात्मक पड़ावों में जाने-अनजाने अथवा नैसर्गिकता के बूते ऐसा बहुत कुछ किया जो किसी भी प्रतिभाशाली एवं रचनात्मक कलाकार को खुद-ब-खुद महान किंवदंती में तब्दील कर देता है। आम तौर पर उन्हें बतौर अभिनेत्री जाना जाता है लेकिन जोहरा सहगल की प्रतिभा के बेशुमार अजब-गजब आयाम थे। अभिनय उनकी धरा सरीखी विशाल प्रतिभा का एक अहम पहलू जरूर था लेकिन वह महज एक अभिनेत्री नहीं थीं। खासतौर से सिने अभिनेत्री।                                       

जोहरा की पैदाइश उस दौर (1912) की है जब पुरुष सत्ता अपनी तमाम अलामतों के साथ शिखर पर थी। बीस के दशक में उन्होंने लाहौर के क्वीन मैरी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी वालिदा ‘अप्रकट प्रगतिशील’ थीं और ख्वाहिशमंद थीं कि किसी भी सूरत में उनकी लाडली आला से आला तालीम हासिल करे। क्वीन मैरी कॉलेज में बुर्का अपरिहार्य था। सो किशोरावस्था से ही कुछ बागी तबीयत की जोहरा सहगल ने मजबूरी में उसे पहना और फिर छोड़ भी दिया। उस दौर में मर्द-औरत के बीच संवाद दुर्लभतम था लेकिन जोहरा बगैर सकुचाए सबसे पूरे आत्मविश्वास के साथ बात और बहस करती थीं। वाद-विवाद-संवाद से उन्होंने अपने तईं लैंगिक सीमाओं को लांघा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नारीवाद की अवधारणा बाद में आई। जोहरा सहगल पहले ही उसमें ढल चुकी थीं।                                    

1930 में उन्होंने एक लगभग और अस्वाभाविक-सा फैसला लिया। अस्वभाविक इसलिए भी कि वह एक ‘भारतीय युवती’ थीं और पारिवारिक पृष्ठभूमि नवाबों की थी। वह ड्रेस्डेन, जर्मनी में विगमैन के डांस-स्कूल में आधुनिक नृत्य का प्रशिक्षण लेने के लिए गईं। 1933 में वह वापस आईं। भारत और विदेश के बीच उनकी आवाजाही ताउम्र बदस्तूर जारी रही। गोया वह कोई हवा हों और हर मुल्क पर उनका अख्तियार हो!                    

उनकी रचनात्मक जिंदगी में ‘भापा’ और ‘दादा’ की अहम भूमिका थी। इस भूमिका को उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी बार-बार रेखांकित किया है। पूरे ऐहतराम के साथ। भापा थे पृथ्वीराज कपूर और दादा उदयशंकर! कला जगत अपनी इन दोनों महान विभूतियों को इसी आत्मीयता से संबोधित करता था। एक उस दौर का रंगमंचीय अभिनय-सम्राट था तो दूसरा अभिनय के साथ-साथ नृत्य-कला का विलक्षण साधक। पृथ्वीराज कपूर इप्टा के सिरमौर थे तो उदयशंकर अपनी अतिख्यात नाट्य संस्था के रहनुमा।                                            

जोहरा सहगल 1935 में उदयशंकर की अल्मोड़ा स्थित संस्था से जुड़ीं। इसी कंपनी में कामेश्वर सहगल भी थे जिनसे 1942 में उनकी शादी हुई। तभी से वह जोहरा बेगम से जोहरा सहगल हो गईं। उदयशंकर की टीम की सदस्या होकर उन्होंने जापान, जर्मन, फ्रांस, मिस्र और अमेरिका सहित कई  योरोपियन देशों में जाकर प्रस्तुतियां दीं तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के समीक्षकों से खुली वाहवाही हासिल कीं। उदयशंकर की अल्मोड़ा में नृत्यशाला थी। वहां उन्होंने प्रशिक्षक का काम भी किया। कुछ समय बाद वह पति कामेश्वर सहगल के साथ लाहौर के जोरेश डांस इंस्टीट्यूट में सह-निर्देशक रहीं। 1947 के विभाजन के वक्त उन्होंने हिंदुस्तान रहना तय किया। प्रगतिशील रुझान ने उन्हें वाया इप्टा पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर से जोड़ा। पृथ्वी थिएटर में वह अभिनेत्री और नृत्य निर्देशिका दोनों थीं। चौदह महत्वपूर्ण साल उन्होंने वहां बिताए। इप्टा का बनना और फिर निष्क्रिय हो जाना नजदीक से देखा।                      

जोहरा सहगल का सिनेमाई सफर ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘धरती के लाल’ से शुरू हुआ। इसके बाद ‘नीचा नगर’ में काम किया। इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्याति हासिल हुई और जोहरा को 1946 में कान फिल्म फेस्टिवल अवॉर्ड मिला। यह उन्हें मिला पहला बड़ा अवार्ड था। तब तक किसी अन्य भारतीय अभिनेत्री को कॉन फिल्म फेस्टिवल अवार्ड नहीं मिला था।                                           

वह इंग्लैंड में बीबीसी टेलीविजन और ब्रिटिश ड्रामा लीग की स्थाई कलाकार रहीं। साथ ही कई अन्य विदेशी फिल्मों और धारावाहिकों में उल्लेखनीय अभिनय किया। ब्रिटिश रंगमंच की कतिपय महान हस्तियां उनकी करीबी दोस्त थीं। विदेश में उनके 6 नाटक, 8 फिल्में और 4 टेलीविजन सीरीज विशेष चर्चा में रहे-जिनका जिक्र आज भी वहां के सिनेमा और नाट्य पाठ्यक्रमों में बखूबी होता है। भारत में उन्होंने इब्राहिम अल्काजी, हबीब तनवीर, अमीर रजा हुसैन, मदीहा गौहर, रूद्रदीप चक्रवर्ती, एम के रैना, गौहर रजा, मणि रत्नम, अनुराग बोस, निखिल आडवाणी, बालाकृष्णन, संजय लीला भंसाली, केतन आनंद और आदित्य चोपड़ा आदि ख्यात नाटक-फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया। 1990 से लेकर 2002 तक उनके 10 टेलीविजन धारावाहिक बहुचर्चित रहे। कई विज्ञापन फिल्में भी कीं। जोहरा सहगल की कविता में खास दिलचस्पी थी। हिंदुस्तान तथा सुदूर देशों में उन्होंने कई एकल कविता पाठ कार्यक्रम प्रस्तुत किए।                                             

सफदर हाशमी के साथ उनका गहरा आत्मीय रिश्ता था। सफदर की हत्या के बाद उन्होंने विरोध तथा श्रद्धांजलि सभा में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर प्रतिरोधी नज़्म ‘इंतिसाब’ पढ़ी थी। रंगमंच और सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें संगीत नाटक अकादमी, (यूनाइटेड किंगडम में बहु सांस्कृतिक फिल्म वे रंगमंच के विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए) नॉर्मन बेटन अवार्ड, आजीवन उपलब्धियों के लिए संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, पद्मश्री तथा पद्म विभूषण उल्लेखनीय हैं।                                     

वह नास्तिक थीं। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था, “जब मैं मरूं तो मैं नहीं चाहती कि तब किसी तरह का धार्मिक या कला से जुड़ा कार्यक्रम हो। अगर शवगृह के लोग मेरी राख रखने से मना करें तो मेरे बच्चे उसे घर लाकर टॉयलेट में बहा दें।… इससे ज्यादा घिनौना कुछ नहीं हो सकता कि किसी मरे हुए आदमी का कोई हिस्सा किसी जार में रखकर सजाया गया हो। अगर जिंदगी के बाद कुछ नहीं है तो फिर किसी चीज की चिंता करने की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर उसके बाद कुछ है तो… मेरी तथाकथित आत्मा जन्नत में घूमेगी। मैं अपने प्यारे कामेश्वर, अपने बहुत बूढ़े हो चुके अब्बाजान और अपने गुरुओं, जिन्हें मैं बहुत चाहती हूं, दादा (उदयशंकर) और पापा जी (पृथ्वीराज कपूर) से मिलूंगी।”                       

चार पीढ़ियों के साथ काम करने वालीं जोहरा आपा का जिस्मानी अंत 102 साल की उम्र में 10 जुलाई, 2014 को हुआ। यह युगों की एक महान सहयात्री की विदाई भी थी

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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