Friday, March 29, 2024

फांसी के फंदे पर चढ़ते वक्त क्रांतिकारी खुदीराम बोस के हाथ में नहीं थी गीता

यह सुयोग ही है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस का शहादत दिवस मनाने के चौथे दिन बाद ही भारत की आज़ादी का उत्सव मनाया जाता है। आज जब भारत के हुक्मरान आज़ादी दिवस के जश्न में मग्न हैं। हम खुदीराम बोस के शहादत दिवस की चर्चा क्यों कर रहे हैं। राष्ट्रवाद और देशभक्ति शब्द को सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाली भारतीय  हुकूमत के लिए खुदीराम बोस एक भूले बिसरे गुमनाम क्रांतिकारी से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। खुदीराम बोस का शहादत स्थल आज़ादी के 73 वर्ष बाद भी मुजफ्फरपुर जेल की ऊँची दीवारों के अंदर कैद है।

आजाद भारत में महान क्रांतिकारी के शहादत स्थल तक उनके दीवानों को पहुंचने की इजाजत नहीं होना उनकी क़ुरबानी का अपमान ही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने 15 वर्ष के शासन काल में कभी खुदीराम को फूल नहीं चढ़ाया, शायद इसलिए कि इससे उनके वोट बैंक में संवर्धन मुमकिन नहीं था। वतन के लिए फांसी को चूमने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी खुदीराम बोस के 112 वें शहादत दिवस के अवसर पर पश्चिम बंगाल, झारखंड, राजस्थान और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने अमर शहीद को नमन किया है। एसयूसीआई (कम्युनिस्ट) ने बंगाल और बिहार के हर जिले में खुदीराम बोस को याद किया। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने भी संपूर्ण झारखंड में अमर शहीद को नमन किया है।

मुख्यधारा की भारतीय मीडिया ने खुदीराम बोस की शहादत के 112 वें वर्ष में एक काल्पनिक कथा खुदीराम बोस के साथ जोड़ने की कोशिश की है। एनडीटीवी, आजतक, टाइम्स नाऊ, न्यूज़-18 सहित सत्याग्रह की वेबसाइट में खुदीराम बोस की 112 वीं शहादत दिवस के अवसर पर प्रकाशित खबरों के अनुसार भागवत गीता हाथ में लिए हुए खुदीराम ने फांसी को चूमा था।

टाइम्स नाऊ का शीर्षक है- एक किशोर क्रांतिकारी हाथ में गीता लिए फांसी के फंदे पर झूल गया। टीवी-9 की खबर है- ‘हाथ में गीता, सीने में देशभक्ति’। एनडीटीवी के अंग्रेजी पोर्टल में प्रकाशित खबर के अनुसार – After the historical trial of the assassination attempt, when Khudiram Bose was hanged, reports in newspapers of those times said, he went to the gallows with a smile and the Bhagavad Gita in his hand.

Many freedom fighters were deeply influenced by the Bhagavad Gita. Lala Lajpat Rai, Bal Gangadhar Tilak, Netaji Subhash Chandra Bose, Aurobindo Ghosh, Bipin Chandra Pal among others were deeply influenced by the Bhagavad Gita. It is said that Mahatma Gandhi turned to the Bhagavad Gita whenever he was disturbed. 

मैंने जानने की कोशिश की कि भारतीय मीडिया के सबसे सजग समूह को महान भारतीय क्रांतिकारी की शहादत के 111 वर्ष बाद इतनी महत्वपूर्ण जानकारी कहां से प्राप्त हुई। ज्ञात हो कि खुदीराम बोस भारत के उन महान  क्रांतिकारियों में हैं, जिनकी शहादत से भगत सिंह ने प्रेरणा ली थी। बावजूद इसके भारत में क्रांति और क्रांतिकारियों को सम्मान देने वाले मुख्यधारा के कम्युनिस्ट संगठनों में अगर खुदीराम को प्रतीक नहीं माना जाएगा तो शहादत के 111 वर्ष बाद उनके हाथ में भागवत गीता थमा देना बहुत मुश्किल नहीं है। 

खुदीराम बोस कोलकाता से मुजफ्फरपुर क्यों आए 

भारत में सशस्त्र संघर्ष की नींव रखने वाले अनुशीलन समिति और युगांतर के सदस्य प्रफुल्ल चंद चाकी ने कोलकाता में क्रांतिकारियों के साथ क्रूरता बरतने वाले जज किंग्सफोर्ड से बदला साधने का फैसला लिया था। किंग्सफोर्ड कोलकाता की बजाय अब मुजफ्फरपुर के सेशन जज थे। संगठन ने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा देने वाले जज को कठोर सजा देने का निर्णय लिया था। खुदीराम बोस ने अपने साथी प्रफुल्लचंद चाकी के साथ मिलकर सेशन जज किंग्सफोर्ड से बदला लेने की योजना बनाई।

दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिला कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं, जिसका खुदीराम और प्रफुल्ल चंद चाकी को बेहद अफसोस हुआ। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और मुजफ्फरपुर से समस्तीपुर की राह में वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रफुल्लचंद चाकी ने मोकामा घाट में  खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी। और खुदीराम को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र 19 साल से भी कम थी।

महान क्रांतिकारी की उपेक्षा

खुदीराम बोस की अभिभावक उनकी बहन थीं। जीजा की सरकारी नौकरी खोने के भय से बहन ना ही भाई से मिलने जेल तक आईं, ना ही उनके परिवारजन उनकी मृत काया ग्रहण करने मुजफ्फरपुर आए। उनके वकील और एक पत्रकार ने उनकी मृत काया की अंत्येष्टि की थी। बिहार में बंगाल से अलग होने का आन्दोलन जोरों से जारी था इसलिए बिहार के एक भी कांग्रेसी नेता खुदीराम बोस से मिलने जेल तक नहीं आया था। बिहार के विरासत की गौरव गाथाओं के गीत गाने वालों के पास इस बात का क्या जवाब होगा कि महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस 112 वर्षों से मुजफ्फरपुर जेल के कैद खाने में क्यों बंद हैं?

महान क्रांतिकारी के फांसी स्थल को राष्ट्रीय स्मारक बनाने के लिए अगर जेल को स्थानांतरित करने की जरूरत हो तो  इसके लिए ब्रिटिश सरकार से अनुमति की दरकार तो नहीं है। खुदीराम बोस का शहादत स्थल तो कैदखाने के भीतर सुरक्षित है। प्रफुल्ल चंद चाकी का शहादत स्थल कहां है, आने वाली पीढ़ी को आप क्या जवाब देंगे? प्रफुल्ल चंद चाकी की सूरत कैसी थी। हाय, उनकी एक अदद प्रतिमा-स्मारक भी बिहार में मुमकिन ना हुआ।

जिलाधीश वुडमैन को खुदीराम से सहानुभूति हो गई थी। वकीलों को खुदीराम से मिलने की छूट दी गई। वुडमैन कि अनुमति मिलने पर ही उपेंद्र नाथ सेन मैजिनी, गैरीबाल्डी की जीवनी और रवींद्र नाथ टैगोर के लेखों को खुदीराम तक पहुंचा सके थे। ‘खुदीराम बोस ‘,संवाद प्रकाशन -2006,लेखक –अरुण सिंह, (पेज 41,पैरा -2)

जिस दिन खुदीराम को फांसी होनी थी, उस दिन बहुत सख्त इंतजाम किया गया था। उनमें से एक ‘बंगाली ‘ के संवाददाता उपेन्द्र नाथ सेन थे। उन्होंने अपनी रपट में लिखा है, ’11 अगस्त को सुबह 6 बजे फांसी होनी थी। हम लोगों ने फांसी के वक्त जेल के अन्दर उपस्थित रहने की अनुमति मांगी थी। साथ ही खुदीराम की हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम क्रियाकर्म करने की भी। वुडमैन ने इसके लिए दो लोगों को अनुमति दी। उन्होंने बारह लोगों को मृत शरीर ले जाने के लिए और अन्य बारह लोगों को अंत्येष्टि में शामिल होने की अनुमति दी। शवयात्रा के लिए मार्ग का निर्धारण भी कर दिया गया था।

‘मुझे और क्षेत्रनाथ बनर्जी को फांसी के वक्त मौजूद रहने की अनुमति मिली। बहुत ही गुप्त रूप से मैंने अपने घर में एक अर्थी (मृत शरीर को ले जाया जाने वाला बांस का बना ढांचा) बनाई थी। उसके सिरहाने मैंने नुकीले चाकू से वन्देमातरम खोद दिया था। करीब 5 बजे अंत्येष्टि से संबंधित सामग्रियों के साथ मैं जेल के गेट पर पहुंचा।

‘मैंने देखा कि चारों ओर के रास्ते लोगों से भरे थे। बहुतों के हाथों में फूल-मालायें थीं। जैसे ही जेल के दूसरे दरवाजे से हम अन्दर आए, हमारी नजर थोड़ी दूरी पर दाहिनी ओर जमीन से करीब पंद्रह फीट ऊँचे फांसी के तख्ते पर पड़ी। लोहे के दो मोटे खंभों पर, लोहे की एक छड़ बंधी हुई थी। उस पर छड़ के बीचों-बीच एक मोटी रस्सी लटकी थी, जिसके दूसरे सिरे पर फंदा था। तभी हमने देखा कि चार सिपाही खुदीराम को अपने साथ ला रहे हैं। खुदीराम आगे थे। ऐसा लग रहा था कि वे ही सिपाहियों को अपने साथ फांसी के तख्ते पर ले जा रहे हों। हमारी ओर देख वे मुस्कुराए। उन्होंने स्नान कर लिया था। अपनी अंगुलियों से अपने काले, लंबे घुंघराले बालों को, जो जेल में ज्यादा लंबे हो गए थे, संवार लिया था।

‘एक बार फिर उन्होंने हम लोगों की तरफ देखा। फिर उनके कदम दृढ़ता के साथ फांसी के तख्ते की ओर बढ़ गए। जब वे ऊपर चढ़े, उनके हाथ रस्सियों से पीछे की ओर बाँध दिए गए। एक हरी टोपी सर पर डाल दी गई। अब उनका चेहरा गर्दन तक ढँक गया था। फंदे को गर्दन में डाल कर उसे कस दिया गया। खुदीराम उसी तरह खड़े रहे- निश्छल, जरा भी नहीं हिले। वुडमैन ने जल्लाद की तरफ देखा और रुमाल हिलाकर संकेत दिया ….जल्लाद ने वहां कोने में लगे हैंडिल को घुमा दिया –तख्ता खिसक चुका था। कुछ ही क्षणों में खुदीराम का शरीर आँखों से ओझल हो गया।

‘हम जेल से बाहर आ गए। करीब आधे घंटे के बाद जेल के युवा डॉक्टर अर्थी और नए कपड़े, जो हम मृत शरीर के लिए लाए थे, हमसे मांगकर ले गए ……..उन्होंने नए कपड़े बदल दिए थे और मृत शरीर को अर्थी पर डाल जेल के बाहर हमारे हाथों में सौंप दिया था। ‘खुदीराम बोस ‘,संवाद प्रकाशन -2006,लेखक –अरुण सिंह,(पेज-46, पैरा -3)

खुदीराम बोस के फांसी स्थल पर मौजूद पत्रकार उपेन्द्र नाथ सेन की रपट के आधार पर प्रकाशित प्रामाणिक जीवनी में मुझे खुदीराम बोस के हाथ में भागवत गीता होने की बात पूरी तरह से मनगढ़ंत व खुदीराम को धार्मिक प्रतीक बनाने के षड्यंत्र का हिस्सा प्रतीत होता है। वरिष्ठ पत्रकार और खुदीराम के जीवनी कार अरुण सिंह ने महान खुदीराम बोस के हाथ में गीता दिखाने की खबर को प्रायोजित पत्रकारिता का हिस्सा व खुदीराम बोस का अपमान बताया है। आनंद बाजार कोलकाता के संपादक सुब्रत बसु ने खुदीराम बोस के हाथ में गीता थमाने की कोशिश को खतरनाक बताया है। सुब्रत के अनुसार खुदीराम बोस के बारे में उपलब्ध तमाम पुस्तकों में कहीं भी  उनके हाथ में गीता का जिक्र नहीं है।

यह वाकया इस बात का सबूत है कि मुख्यधारा की मीडिया का वह सबसे सजग हिस्सा, जिस पर हम सबसे ज्यादा यकीन करते हैं, उसके भीतर प्रायोजित खबरों के  पड़ताल करने की परख कमजोर पड़ती जा रही है। खुदीराम बोस के हाथ में गीता की खबर ने मुझे  शर्मसार किया है। क्या हमारी पत्रकारिता भी कभी शर्मसार होना सीख जाएगी? 

(पुष्पराज वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आप बिहार के रहने वाले हैं।)

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