Saturday, April 20, 2024

कृष्णा सोबती: फासीवाद के खिलाफ गूंजती रही एक आवाज

साहित्य-संस्कृति के इतिहास ने कृष्णा सोबती के नाम बहुत कुछ दर्ज किया है। उनके लिखे अल्फाज जिंदगी के हर अंधेरे कोने में दिया बनके कंदीलें जलाने को बेचैन, बाजिद और तत्पर रहते मिलते हैं। फूलों को अतत: सूखना ही होता है, बेशक जीवन के फूलों को भी। लेकिन एक समर्थ और सार्थक कलम उन्हें सदैव महकाए रखती है। ‘उम्मीद’ शब्द को अपने तईं जिंदा रखने के लिए ताउम्र संघर्षरत और रचनात्मकता से आंदोलनरत रहती है।

ऐसी एक कलम का नाम कृष्णा सोबती था, जिनका जन्म 18 फरवरी 1925 में पाकिस्तानी गुजरात में हुआ था। जिस्मानी अंत 25 जनवरी 2019 में तब हुआ; जब देश औपचारिक रूप से गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियों में मसरूफ था। तब भी ‘तंत्र’ हावी था और ‘गण’ गौण। इन्हीं चिंताओं के साथ गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, कृष्णा जी ने आखरी सांसें ली थीं।

अंधकार में खड़े उनके साथी, समकालीन (लेखक) और पाठक-प्रशंसक, एक साल बाद उनका गहरी शिद्दत के साथ पुण्य स्मरण कर रहे हैं कि असहिष्णुता का अंधकार पहले से कहीं ज्यादा गहरा गया है और अराजकता ने संगठित व्यवस्था का रूप विधिवत धारण कर लिया है।

इस कुचक्र के खिलाफ लिखने-बोलने वालों के इर्द-गिर्द घेराबंदी की जा रही है, मनोवैज्ञानिक खौफ की लकीरें खींची जा रही हैं और उन्हें खामोश करने के पैंतरे बनाए जा रहे हैं। कृष्णा सोबती आज जिस्मानी तौर पर होतीं तथा उनकी कलम 25 जनवरी, 2019 में हमेशा के लिए खामोश न हो गई होती तो उनका कहा, लिखा और बोला यकीनन मशाल का काम करता। 

कृष्णाजी का जीवन उम्र के तकाज़ों के चलते जब ढलान पर था, ठीक तब फासीवादी शक्तियों का नंगा नाच शुरू हो गया था। अपने अंतिम दौर में उन्होंने अपनी चिंतनधारा और यथार्थवादी अनुभवों से उन पर खूब जमकर प्रहार किए। उन तमाम खतरों से बादलील बदस्तूर आगाह किया जो आज दरपेश हैं और अंधराष्ट्रवादी हथियारों-औजारों से राष्ट्र को गृह युद्ध में झोंक रहे हैं।

अपने अंतिम दिनों में कृष्णा सोबती ने रचनात्मक लेखन स्थगित कर दिया था और वैचारिक लेखन को बतौर ‘हस्तक्षेपकारी’ तरजीह दी। आवामी अदीब और बुद्धिजीवी होने का सच्चा धर्म निभाया। भीतर की रोशनी बेशक तेज हो गई थी लेकिन आंखों ने देह का साथ लगभग छोड़ सा दिया था। बहुत मोटे लेंस के साथ बामुश्किल वह पढ़ती-लिखती थीं। आंखें थकतीं थीं लेकिन दिलो-दिमाग की रोशनी जीवनपर्यंत ताजा रही।

कृष्णा सोबती

तब का ‘जनसत्ता’ आज वाला जनसत्ता नहीं था, कहीं न कहीं प्रतिरोध की आवाज का एक मंच था। तब उनके लेख, जिन्हें वह अपने मोटे लेंस के जरिए हाथ से लिखती थीं, जनसत्ता के पहले पन्ने पर ‘बैनर न्यूज़’ की जगह छपते थे। जुल्मत की खिलाफत में एक-एक लफ्ज को उन्होंने कैसी वैज्ञानिक संवेदना और तार्किक क्रोध के साथ लिखा, इसे तब के उनके लेख पढ़कर ही जाना जा सकता है।

या तब जाना जाएगा जब अंतिम दिनों का उनका वैचारिक लेखन किताबों की शक्ल में सामने आएगा। अपने समकालीन तथा अपने समकक्ष कद वाले हिंदी लेखकों में वह अकेली और पहली थीं जिन्होंने अराजकता-असहिष्णुता के विरुद्ध इस तरह कलम चलाई कि असाहित्यिक पाठकों को भी सही ‘परख’ के लिए नई दशा-दिशा मिली। हालांकि वे सीमित थे पर आज के जन आंदोलन बताते हैं कि अब वे कितने महत्वपूर्ण हैं।

माफ कीजिए, 2014 के बाद कृष्णा सोबती जब वैचारिक लेखन कर रही थीं और मौखिक भी, तब उनके ज्यादातर समकालीन लेखक आराम कुर्सियों पर बैठे विपरीत समय को बगल से गुजरते देख रहे थे या कहानियां-कविताएं लिखते-लिखते ऊब रहे थे। कृष्णाजी कभी भी उन संस्कृति कर्मियों की कतार का हिस्सा नहीं रहीं जो यह मानते हैं कि एक (रचनात्मक) ‘लेखक’ का काम सिर्फ लिखना होता है, सामाजिक सरोकारों में जमीनी स्तर पर आकर हिस्सेदारी करना नहीं।

अपनी जीवन संध्या में उन्होंने खुलकर उन वर्गों के हक में लिखा-बोला, जो आज क्रूर सत्ता के निशाने पर हैं। सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों की बेशर्म लूटपाट और जोड़ तोड़ के बीच प्रतिरोध की प्रतिनिधि आवाज बनते हुए कृष्णा सोबती ने भारतीय साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता एक पल में छोड़ दी।

इस सदस्यता को लेखन का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता के लिए इसे वापस लौटाना उन्होंने अनिवार्य माना। वह इस सोच पर अडिग थीं कि लोकतंत्र मरेगा तो मनुष्यता के मरने का संक्रमण भी शुरू हो जाएगा। उनकी किताब ‘शब्दों के आलोक में’ इसी चिंतनधारा के साथ प्रारंभ और समाप्त होती है। यह उनके ‘जिंदगीनामा’ के फलसफे का अपना सच था।

कृष्णा सोबती की कृति ‘जिंदगीनामा’ का कवर

2014 के बाद दक्षिणपंथी ताकतों के नापाक मंसूबों के खिलाफ हिंदी समाज से पहली बड़ी आवाज कृष्णा सोबती की उठी थी। उठी क्या, गूंजी थी। प्रतिरोध की उस गूंज में इतनी तीव्रता थी कि कतिपय बड़े वामपंथी लेखक भी उनसे किनारा कर गए कि कहीं सत्ता के कहर का शिकार न होना पड़ जाए। हालांकि भारतीय भाषाओं के बेशुमार बड़े लेखक-संस्कृतिकर्मी कृष्णा जी के साथ आते गए। तभी पुरस्कार वापसी का अभियान चला जिसे अवॉर्ड वापसी गिरोह कहकर लांछित किया गया।

दिल्ली में ‘प्रतिरोध’ के नाम से एक विशाल सेमिनार आयोजित किया गया जिसमें देश से अलग-अलग भाषाओं के बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की। रोमिला थापर, डॉ कृष्ण कुमार, अशोक बाजपेयी, गणेश देवी और कन्हैया कुमार आदि भी इसमें शामिल थे।

कृष्णा सोबती बीमारी की हालत में इस सेमिनार की अध्यक्षता करने व्हील चेयर पर आईं थीं। उनका शरीर कमजोर था लेकिन प्रतिरोध की आवाज बेहद-बेहद बुलंद। वह एक घंटा से ज्यादा समय इतना प्रभावशाली और उर्जस्वित बोलीं कि मौजूद तमाम लोग कुर्सियों से खड़े होकर देर तक तालियां बजाते रहे।

वैसा निर्भीक और सहास भरा जोशीला भाषण शायद ही कभी किसी हिंदी लेखक ने शासन-व्यवस्था के खिलाफ दिया हो। उनका दो टूक मानना था कि सच्चे लेखक की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है जो दरबारी-सरकारी सत्ता से कहीं ज्यादा सशक्त और पाक-पावन होती है।             

लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था और उसकी हिफाजत का जज्बा उनके खून में था। कालजयी स्तर के लेखन की लेखिका का पहला उपन्यास ‘चन्ना’ था जो बाकायदा छपकर तब आया जब वह मृत्युशैया पर थीं। आधी सदी पहले लिखे इस उपन्यास को 50 साल पहले उन्होंने प्रकाशक को अपनी जेब से पैसे देकर इसलिए अधछपा वापिस उठा लिया था कि प्रकाशक उसमें से पंजाबी-उर्दू के कुछ शब्द हटाना चाहता था। कृष्णा जी को यह मंजूर नहीं हुआ और छपाई का हर्जाना देकर उन्होंने इसे ‘विड्रा’ कर लिया।

2019 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। यह उनकी जिंदगी रहते छपी आखिरी किताब है जो सबसे पहले लिखी गई थी लेकिन उन्होंने अपनी लेखकीय आजादी की हिफाजत करते हुए नहीं छपवाया। यह प्रकरण अपने आप में इकलौती मिसाल है। इस बात की भी कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए वह अपनी आखिरी सांस तक कायम थीं, उन्हीं के लिए अपने लेखकीय जन्म के वक्त भी थीं। 

कृष्णा सोबती की कृति मित्रो मरजानी का कवर

कृष्णा सोबती हिंदी शब्द संसार में अकेली हैं जिन्होंने अपने समकालीनों पर सबसे ज्यादा और विस्तार से लिखा है। यहां भी उनकी ‘लोकतांत्रिक लेखनी’ कि दृढ़ता दीखती है। उन्होंने अपनी उम्र से छोटे और उपलब्धियों के लिहाज से कमतर माने जाने वाले लेखकों पर भी खूब लिखा। ईमानदार प्रतिभा की वह कायल थीं और इस धारणा की पक्की कि उनकी वजह से कोई फूल सूख ना जाए।

बलवंत सिंह, रमेश पटेरिया, अमजद भट्टी, महेंद्र भल्ला, रतिकांत झा, खान गुलाम अहमद, उमाशंकर जोशी, देवेंद्र इस्सर, गिरधर राठी, सौमित्र मोहन, स्वदेश दीपक और सत्येन कुमार सरीखी विलक्षण प्रतिभाओं समग्रता से इतना डूबकर किसने लिखा है? कृष्णाजी लिख सकती थीं और उन्होंने ही लिखा। 

यह भी कृष्णा सोबती कर सकती थीं कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से मिली 11 लाख रुपए की राशि साहित्यसेवियों के सहयोगार्थ रज़ा फाउंडेशन को सौंप दें। वह भी तब, जब खुद उन्हें आर्थिक दिक्कतें घेरे हुए थीं। वसीयत में उन्होंने (करीब एक करोड़ रुपए का) फ्लैट भी रज़ा फाउंडेशन के नाम कर दिया। 

तो यह हैं जिंदगीनामा, दिलो-दानिश, ऐ लड़की, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, सूरजमुखी अंधेरे के, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान, चन्ना, बादलों के घेरे, हम हशमत, शब्दों के आलोक में, बुद्ध का कमंडल: लद्दाख, मार्फत दिल्ली, मुक्तिबोध: एक व्यक्तित्व सही की तलाश में की लेखिका के जिंदगीनामे के सदा जिंदा रहने वाले चंद पहलू। 

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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मनोज़ 'निडर'
मनोज़ 'निडर'
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1 year ago

कृष्णा सोबती जी की याद दिला पत्रकार अमरीक सिंह सिरसा ने साबित कर दिया कि ज्महूरियत की जडें आज भी उतनी ही मजबूती से गहरी हैं, जितनी 9 साल पहले याने 2014 के इन्हीं दिनों में थी। लेकिन 26 मई 2014 के बाद झूठ के सैलाब ने लोकतंत्र को कमजोर करने की नाकाम कोशिश जरुर की। लेकिन कृष्णा जी की किताबें, यादें लोकतंत्र की अलंबरदार रहेगी। थैंकयू अमरीक सिंह सिरसा और जनचौक।

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