Friday, March 29, 2024

हंसाते हुए संजीदा कर देने वाले शायर अकबर इलाहाबादी

दबंग फिल्म में सलमान खान का dialogue आपने सुना होगा ‘मैं दिल में आता हूं समझ में नहीं’। गुलाम अली की वो गज़ल भी कभी न कभी आपके कानों से होकर गुज़री होगी, ‘हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है’, दोनों उदाहरण दो बिल्कुल अलग खेमों के बावजूद एक नाम पर आकर जुड़ जाते हैं- अकबर इलाहाबादी।
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
तू दिल में आता है समझ में नहीं आता

सलमान का डायलॉग अकबर इलाहाबादी के इस शेर की बहुत मुमकिन नक़ल है। गज़ल तो समूची जस की तस है सिवाय एक फेरबदल के।
हंगामा है क्यूं बरपा
थोड़ी सी जो पी ली है
डाक़ा तो नहीं मारा
चोरी तो नहीं की है

गजल में अकबर इलाहाबादी ने डाक़ा ‘मारने’ की बात की थी जबकि गज़ल गायक गुलाम अली डाक़ा ‘डालने’ में ज़्यादा कमफ़रटेबल रहे।

16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद के क़रीब बारा में जन्में सैयद अकबर हुसैन रिज़वी उर्दू पट्टी से आते तंज़ ओ मज़ाह (हास्य-व्यंग्य) के शायर थे। मशहूर हुए अकबर इलाहाबादी के नाम से।

तफ़ज़्ज़ुल हुसैन के घर जन्में अकबर का कुल लेखन इलाहाबादी अमरूद की तरह है। उनके तमाम शेर इस क़दर ज़माने भर में महकते रहे कि अकबर का नाम ही छूट जाता रहा। मसलन, क़लम की ताक़त के लिये इस शेर को बारहा दोहराया गया लेकिन याद नहीं रहा कि यह भी अकबर का शेर है-
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हों तो अखबार निकालो

ध्यान दीजिएगा यह शेर तब लिखा गया जब टीवी देश में नहीं था। वरना हिंदू-मुस्लिम डिबेट के सामने किसी अखबार की हैसियत ही क्या है!

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

अकबर ने शुरुआती तालीम घर पर ही हासिल की। 15 साल की उम्र में अचानक उन्होंने अपने से 2-3 साल बड़ी लड़की से शादी कर ली। मामला यहीं नहीं थमा। कुछ ही सालों में एक और ब्याह किया। दोनों बीवियों से 2-2 बेटों के अब्बा हुए। अकबर भरे-पूरे परिवार में यक़ीन रखने वाले शख्स थे। उन्होंने क़ानून की पढ़ाई की थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट में सेशन जज हुए। रिटायरमेंट तक कार्यरत रहे।

अकबर हुसैन रिज़वी फ़ितरती तौर पर शायर अकबर इलाहाबादी हैं। यह कम महत्वपूर्ण तो नहीं वे अपने दोनों रूपों में बैलेंस बना ले जाते हैं। तभी जहां एक तरफ ब्रिटिश हुकुमत पेशे के मद्देनज़र उन्हें ‘खान बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित करती है, वहीं दूसरी तरफ़ शायरी से मुतास्सिर उस वक़्त की मशहूर गायिका गौहर जान कलकत्ता से चली आती हैं मुलाक़ात करने। तवायफ़ जानकी बाई इंट्रोडक्शन कराते हुए कहतीं है, यह आपसे मिलना चाहती थीं। लिहाज़ा लिए चली आई। जवाब में अकबर कहते हैं,
ज़हे नसीब! वर्ना मैं न नबी हूं न इमाम। न ग़ौस, न क़ुतुब और न कोई वली जो क़ाबिल-ए-ज़यारत (दर्शन के लायक़) ख़्याल किया जाऊं। पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ़ अकबर रह गया हूं। हैरान हूं कि आपकी ख़िदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूं। ख़ैर एक शेर बतौर यादगार लिखे देता हूं-
ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा

अकबर ने 1866 में जब शायरी शुरू की, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ सन ’57 में पहली क्रांति का बिगुल फूंका जा चुका था। सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर देश में उथल-पुथल की स्थिति और हलचल का माहौल था। आम जनजीवन में अंग्रेज़ियत के बढ़ते प्रभाव और उसके परिणाम की धमक, बल्कि अक्सर खौफ़ को अकबर की शायरी में देखा जा सकता है।

छोड़ लिटरेचर को अपनी हिस्ट्री को भूल जा
शेख़-ओ-मस्जिद से तअ’ल्लुक़ तर्क कर स्कूल जा
चार-दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त से क्या फ़ायदा
खा डबल रोटी क्लर्की कर ख़ुशी से फूल जा


इस क़तए (उर्दू कविता की एक विधा) को पढ़कर ज़हन सोचता है कि अकबर शिक्षा विरोधी हैं क्या? जवाब है नहीं। बात की पुख़्तगी के लिए एक क़िस्सा सुनिए- जब सर सैयद अहमद खां (एएमयू के संस्थापक) इंग्लैंड की तमाम यूनिवर्सिटीज़ के दौरे पर जा रहे थे। ठीक तभी उनके दोस्त मोलवी इमदाद अली हज के लिए मक्का जा रहे थे। अकबर ने इस मौक़े पर एक दोहा कहा-
सिधारें शेख काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे
वो देखें घर खुदा का हम खुदा की शान देखेंगे

तालीम के हिमायती अकबर ने अपने बेटे इशरत को भी इंग्लैंड पढ़ने भेजा। चाहते थे उनका बेटा (बल्कि पूरा हिन्दुस्तान ही) पश्चिमी तौर-तरीक़ों, खान-पान, रहन-सहन, त्योहार का लबादा आधुनिकता के नाम पर ओढ़ न ले। बेटे के लिए खत में उन्होंनें लिखा-
इशरती’ घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
खा के लंदन की हवा अहद-ए-वफ़ा भूल गए
पहुंचे होटल में तो फिर ईद की परवाह न रही
केक को चख के सेवइयों का मज़ा भूल गए

यह लाईनें तंज़ से कहीं ज़्यादा सात समंदर पार बसे बेटे द्वारा इलाहाबादी पिता को ठुकरा दिए जाने की संभावना का डर भी है। अब असल तंज़ देखिए-
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

अकबर ने फिर भी बार-बार तालीम की हिमायत की है-
स्माल नहीं ग्रेट होना अच्छा
दिल होना बुरा है पेट होना अच्छा
पंडित हो कि मोलवी हो दोनों बे-कार
इंसां को ग्रेजुएट होना अच्छा

औरतों के संदर्भ में बेहद मशहूर हुए इस क़त’ए को लोग अक्सर बुर्क़ा विरुद्ध मानसिकता समझते हैं जबकि अकबर ईसाई मेमों के प्रभाव में आई औरतों के बुर्क़ा उतरने से खासे नाराज़ और हतप्रभ थे। चूंकि शायर तंज़ ओ मज़ाह के हैं तो लहज़े में गुस्से के बजाय टॉन्ट किया। लिखा-
बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियां
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो मैं ने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया

इससे इतर कई दफ़ा यही अकबर फ्लर्टी भी हो जाते हैं-
लिपट भी जा ना रुक ‘अकबर’ गज़ब की ब्यूटी है
नहीं-नहीं पे न जा यह हया की ड्यूटी है

कहां के जाऊं दिल दोनों जहां में इसकी मुश्किल है
यहां परियों का मजमा है वहां हूरों की महफ़िल है
इलाही कैसी कैसी सूरतें तूने बनाई हैं
के हर सूरत कलेजे से लगाने के क़ाबिल है

मखमल में लपेट कर शेर मारने की अपनी इसी अदा से उन्होंने धार्मिक मूढ़ताओं पर कटाक्ष भी किया- खिलाफ़-ए-शरा कभी शेख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में कभी चूकता भी नहीं

मय भी होटल में पियो
चंदा भी दो मस्जिद में
शेख़ भी खुश रहे
शैतान भी बेज़ार ना हो

सिर्फ क़ौम ही क्यूं समाज के हर धर्म, हर तबक़े, हर वर्ग पर क़लम चलाते हुए अकबर कई दफ़ा हिंदी के कबीरदास का उर्दू वर्ज़न लगते हैं।

मुस्लिम का मियांपन सोख़्त करो हिन्दू की भी ठकुराई न रहे
बन जावो हर इक के बाप यहां दावे को कोई भाई न रहे

डॉक्टर के लिए कहा-
इनको क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख से यह मुंह न मोड़ेंगे
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फीस को न छोड़ेंगे

खुद जज होकर भी वकीलों के लिए लिखा-
पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा
लो आज हम भी साहिब ए औलाद हो गए

तरकश में उनकी नेताओं के लिए भी तीर कम न थे-
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज बहुत है लीडर को मगर आराम के साथ

आखिरकार आस्तिक अकबर ने अल्लाह से भी शिकायत कर ही डाली-
आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

बाद वाला शेर हिंदू-मुस्लिम पर डिबेट खेलने वाले लोग अमल में ले आएं तो देश का माहौल सुधर जाए।

यह मज़ाहिया शेर पढ़िए-
बूढ़ों के साथ लोग कहां तक वफ़ा करें
बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें

दूसरा उदाहरण देखिए-
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहां रही बाक़ी
ज़रीया बातों का जब सिर्फ़ टेलिफ़ोन हुआ

निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसंबर भी माह-ए-जून हुआ

अकबर शेर कहते हुए भाषा की शुद्धता पर अड़ते नहीं हैं। इंग्लिश, हिंदी जो भी आसानी से आया, समेट लिया। अकबर समझते हैं अंग्रेज़ियत के असर से न बचा जा सकता है। न दूर हुआ जा सकता है। बेहतर है (अपनी मूल सभ्यता-संस्कृति में बदलाव किए बगैर) उसे वक़्त रहते स्वीकार कर लिया जाए। अकबर अपनी नज्मों, गज़लों, रूबाईयों के ज़रिए नये प्रयोगों, टेक्नोलॉजी की आमदों को संशय से देखते हैं। फिर स्वीकार भी करते हैं। अकबर के रूमानी क़लाम सुनकर आप धीमे से मुस्कुराते हैं-

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

कभी यह मुंह से वाह निकलवाते हैं-
जो कहा मैंने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
हंस के कहने लगा और आप को आता क्या है

तुम ने बीमार-ए-मोहब्बत को अभी क्या देखा
जो ये कहते हुए जाते हो कि देखा देखा

तिफ़्ल-ए-दिल को मिरे क्या जाने लगी किस की नज़र
मैं ने कम्बख़्त को दो दिन भी न अच्छा देखा

मिर्ज़ा ग़ालिब की ही तरह अकबर इलाहाबादी को भी आम बहुत पसंद थेl अपने दोस्त मुंशी निसार हुसैन को एक ख़त लिखा। आम भेजने की दरख़्वास्त की। अब आप उनका स्टाइल देखिए-
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए


कम उम्र में बेटे और पोते की मौत के दुख ने अकबर की हंसी ठिठोली, खिलंदड़पन को कम करते हुए संजीदा बना दिया। शायरी फिर भी जारी रही। संजीदा ही सही-
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाजार से गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं
जिंदा हूं मगर जीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूं होश में होशियार नहीं हूं

आह जो दिल से निकाली जाएगी
क्या समझते हो खाली जाएगी

अकबर इलाहाबादी, जिसने मुशायरा सुनने-देखने वाले तमाम लोगों को हंसाया। संजीदा किया। सोचने पे मजबूर किया। उनका आशियाना ‘इशरत ए मंज़िल’ उजाड़खाने की तरह पड़ा है। किसी विधायक-नेता ने देखने-सुनने की ज़रूरत ना समझी। तब जबकि उनके मकान से प्रभावित होकर पंडित नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने आनंद भवन बनाया था। नाम बदलने के इस स्वर्णिम युग में भी प्रयागराजी न होकर अकबर ‘इलाहाबादी’ ही थे और रहेंगे।

(नाजिश अंसारी स्वतंत्र लेखिका हैं।)

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