Thursday, April 18, 2024

जन्मदिन पर विशेष: लंदन विश्वविद्यालय ने दी बैरिस्टर की डिग्री, शहर और पुस्तकालयों ने बना दिया कम्युनिस्ट

(आज ज्योति बसु का 106वां जन्मदिन है। ज्योति बसु भारतीय राजनीति और कम्युनिस्ट आंदोलन के उन पुरोधाओं में शामिल हैं, जिन्होंने राजनीति में रहते अलग राह बनाने की कोशिश की। पश्चिम बंगाल की सत्ता में रहते उन्होंने गरीब जनता के लिए कुछ ऐसे फैसले लिए हैं जो इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो चुके हैं। देश में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड अगर उनके नाम है तो हाथ आयी देश की सबसे ताकतवर कुर्सी यानी प्रधानमंत्री के सर्वोच्च पद को ठुकराने का गौरव भी उन्हें ही हासिल है। आधुनिक भारत का कोई भी इतिहास भारतीय राजनीतिक आकाश के इस ध्रुव तारे के बगैर अधूरा रहेगा। वरिष्ठ पत्रकार और एक दौर में सहारा अखबार के हिस्से के तौर पर निकलने वाले ‘हस्तक्षेप’ के चेहरे रहे अरुण पांडेय ने ‘ज्योति बसु-एक आलोचनात्मक अध्ययन’ शीर्षक से एक किताब लिखी है। नीचे दिया गया अंश उसी किताब से साभार लिया गया है-संपादक)

ज्योति बसु का जन्म उस समय हुआ जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। उनका बचपन कलकत्ता शहर में गुजरा जो भारत में अंग्रेजों की व्यापारिक-वाणिज्यिक राजधानी थी। साम्राज्यवादियों की राजधानी लंदन थी और उसी लंदन में जाकर ज्योति बसु कम्युनिस्ट बने। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा कलकत्ता के उस लोरेंटो स्कूल से ग्रहण की जो मूलत: लड़कियों का स्कूल था। खुद ज्योति बसु अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “इस अंग्रेजी स्कूल में मैं अकेला लड़का था। बाकी सारी लड़कियां थीं जो आंग्ल भारतीय या अंग्रेज परिवारों से आती थीं।” तीन साल बाद उनका दाखिला कलकत्ता के उस मशहूर सेंट जेवियर्स स्कूल में हुआ जो मूलत: अंग्रेज अफसरों के बेटों का स्कूल था। बसु की कक्षा में कुल तीस छात्र थे।

जिसमें उन समेत मात्र दो छात्र ही बंगाली थे और बाकी सब या तो अंग्रेज थे या आंग्ल भारतीय। सेंट जेवियर्स के दिनों से ही उन्होंने चटगांव शस्त्रागार दखल आंदोलन, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के अभियानों की खबरें सुनीं। 1926 में शरतचंद्र के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘पाथेर दाबों’ पर प्रतिबंध लगने से पूर्व ही बसु ने उसे पढ़ डाला था। उनके बड़े भाई सुरिंद्र किरण बसु ने अमेरिका में पढ़ाई की और वे जयप्रकाश नारायण के रूम पार्टनर भी रहे। ज्योति बसु ने स्नातक की डिग्री प्रेसीडेंसी कॉलेज से ग्रहण की। उनके मां-बाप उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्हें पढ़ने के लिए लंदन भेजा गया। उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि बैरिस्टरी के साथ-साथ वे आईसीएस की परीक्षा में भी बैठें। 

स्वतंत्रता संघर्ष की खबरें सुनने के अलावा लंदन जाने से पूर्व उनके दिल दिमाग के किसी भी कोने में ‘राजनीति’ नाम का शब्द नहीं था। अक्तूबर 1935 में लंदन पहुंचने के बाद बसु ने आईसीएस प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लिया लेकिन वे असफल रहे और उन्होंने बैरिस्टर बनने का फैसला लिया। बैरिस्टरी की पढ़ाई करते समय ही उनके भीतर राजनीतिक अभिरुचि पैदा हुई और अंतत: वे कम्युनिस्ट बने।

जब वे लंदन पहुंचे तो उस समय समूचे यूरोप में भारी उथल-पुथल मची हुई थी। तीस के दशक ने यूरोप को एक नाजुक मोड़ पर ला खड़ा किया था। एक देश से दूसरे देश में जातीय घृणा और तानाशाही की प्रवृत्तियां पैर फैला रही थीं। इटली में मुसोलिनी और उसके फासिस्टों का दबदबा था। जनरल फ्रांको और उसके फार्लेंगिस्टो ने समूचे स्पेन को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया था। हिटलर और नाजियों ने पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में अपने प्रभाव का विस्तार करना प्रारंभ कर दिया था। जनरल फ्रांको को उसने खुले तौर पर समर्थन दिया था। ताकि वह स्पेन में जनतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार को सैन्य बल से अपदस्थ कर सके। 1922 में ही इटली की बागडोर मुसोलिनी के हाथ में आ गयी थी और उसका जलवा शुरू हो गया था। इटली के राजा को अपदस्थ कर प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मुसोलिनी ने इटली की तमाम जनतांत्रिक संस्थाओं का गला घोंट दिया। 1926 तक आते-आते उसने अपनी पार्टी छोड़ सारी पार्टियां भंग कर दीं।

वर्ष 1936 में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। 1936 में ही मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर कब्जा कर लिया। इसी वर्ष जापान ने चीन पर हमला किया और हटलर की नाजी पार्टी ने जर्मनी में सत्ता दखल करने के बाद समूची दुनिया को अपने पैरों तले कुचलने का अभियान प्रारंभ कर दिया। इन सभी तानाशाहों और उनकी पार्टियों की न तो जनतंत्र में आस्था थी और न ही समाजवाद में। यह बात दीगर है कि हिटलर ने अपनी पार्टी के नाम में समाजवाद शब्द जोड़ा था। अप्रैल 1920 तक हिटलर की पार्टी का नाम ‘जर्मन वर्कर्स’ पार्टी था। जिसे बाद में बदलकर ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी’ यानी ‘नाजी पार्टी’ कर दिया गया था।

हिटलर के दिमाग में नाजी पार्टी के गठन का ख्याल क्यों आया- इसे जानने के लिए उसके सैनिक जीवन के साथी रुडोल्फ ओल्डेन की लिखी चंद पंक्तियां ही पर्याप्त हैं। ओल्डेन लिखता है-

“प्रथम विश्वयुद्ध में जब जर्मनी परास्त हो गया तब 1918 के नवंबर महीने में एक सैनिक के रूप में हिटलर बुरी तरह हताश और उत्तेजित था। अचानक वह उछल पड़ा और उत्तेजना में दौड़ते हुए उसने कहा कि इतनी बड़ी-बड़ी तोपें होने के बावजूद हम इसलिए हार गए क्योंकि जर्मनी के अदृश्य शत्रु यहूदियों से हम सावधान न रह सके”। हिटलर ने खुद अपनी आत्मकथा में लिखा है, “सैनिक अस्पताल से निकलने के बाद जब मैं राजधानी बर्लिन और म्यूनिख की यात्रा पर गया तो देखा कि वहां हर क्लर्क यहूदी था और हर यहूदी क्लर्क था।……यहूदियों ने सारे राष्ट्र को लूट लिया था और उसे गुलाम बना दिया था।”

हिटलर की यही सोच उसकी पार्टी की विचारधारा बन गयी और 1936 के आस-पास समूचे जर्मनी से यहूदियों को समाप्त कर देने का उसने एलान कर दिया। हिटलर के दूसरे दुश्मन कम्युनिस्ट और रूसी थे। 1937-38 में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड आदि देशों पर कब्जा कर लिया।

नाजियों और फासीवादियों के इन आक्रमणों का सबसे मुखर विरोधी सोवियत संघ था। जोसेफ स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी ने हिटलर और मुसोलिनी के खिलाफ निर्णायक संघर्ष छेड़ने की तैयारियां शुरू कर दी थी। उस वक्त तक ब्रिटेन और अमेरिका भी हिटलर के खिलाफ नहीं थे। फासीवाद विरोधी संघर्षों की स्मृतियों को याद करते हुए ज्योति बसु खुद लिखते हैं-

“फासीवाद के खिलाफ न तो ब्रिटेन खड़ा होना चाहता था और न ही अमेरिका। वास्तव में इन दोनों देशों ने विभिन्न तरीकों से हिटलर के प्रति अपना झुकाव प्रदर्शित किया था।इन्हें लगता था कि हिटलर इन पर आक्रमण नहीं करेगा। उसकी लड़ाई सोवियत संघ से होगी, जिसमें हम दोनों का कुछ नुकसान नहीं होगा। जर्मनी तथा सोवियत संघ आपस में लड़कर नष्ट हो जाएंगे और तब समूची दुनिया में ब्रिटेन और अमेरिका ही सिक्का चलेगा”।

ज्योति बसु ने अपनी आत्मकथा में यह भी लिखा कि ब्रिटेन की चैंबरलेन सरकार हिटलर या जर्मनी को नहीं बल्कि सोवियत संघ को अपना मुख्य दुश्मन मानती थी। इसलिए वह हिटलर के साथ युद्ध के लिए तैयार नहीं थी। चैंबरलेन के हटने के बाद जब चर्चिल प्रधानमंत्री हुए तब स्थितियां बदलीं और युद्ध के लिए ब्रेटन की रक्षा व सैन्य व्यवस्था को फिर से संगठित किया गया। यूं तो चर्चिल भी कम्युनिस्ट विरोधी थे लेकिन नाजी जर्मनी के खतरे को समझ लेने के बाद उन्होंने सोवियत संघ से समझौता किया और युद्ध में जर्मनी के खिलाफ खड़े हुए।

फासीवादी उभार और हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे तानाशाहों के उदय वाले दौर का सीधा साक्षात्कार ज्योति बसु को हुआ। लंदन के विभिन्न विश्वविद्यालय युद्ध विरोधी अभियानों और फासीवादी विरोधी आंदोलनों के केंद्र में थे। विश्व के सुप्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री हेरोल्ड लास्की का भाषण सुनने का सौभाग्य ज्योति बसु को प्राप्त हुआ। लंदन में ही उनका संपर्क ग्रेट ब्रिटेन कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीजीबी) के नेताओं और सिद्धांतकारों से हुआ। 1936 में भूपेश गुप्त भी पढ़ने के लिए लंदन पहुंच गए थे।

गुप्त बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता बने। सीपीजीबी के नेताओं हैरी पालिट, रजनी पाम दत्त और बेन ब्रैडले से ज्योति बसु का मिलना-जुलना शुरू हुआ। लंदन में ही उन्होंने थोक के भाव कम्युनिस्ट साहित्य पढ़ा। कार्ल मार्क्स के दास कैपिटल और फ्रेडरिक एंगल्स के एंटी ड्यूहरिंग समेत न जाने कितने ग्रंथों का अध्ययन उन्होंने लंदन प्रवास के अपने चार वर्षों में कर लिया। स्तालिन द्वारा लिखित सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास उनकी सर्वाधिक पसंदीदा पुस्तकों में से एक थी, जिसे छिपाकर वे लंदन से हिंदुस्तान भी ले आए थे।  

आखिरी कैबिनेट की बैठक।

लंदन में पढ़ाई के दिनों में ही उनकी राजनीतिक सक्रियता भी बढ़ी। हिरेन मुखर्र्जी, सज्जाद जहीर, डॉक्टर जेड ए अहमद, निहारेन्दु दत्त मजूमदार जैसे प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को लंदन से भारत वापसी के बाद ब्रिटेन में मौजूद भारती छात्रों को गोलबंद करने की जिम्मेदारी अब ज्योति बसु सरीखों की थी। उसी दौरान लंदन आक्सफोर्ड एवं कैंब्रिज विश्वविद्यालयों में कम्युनिस्ट छात्रों के ग्रुप बने। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन के लिए लंदन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों ने मिलकर ‘लंदन मजलिस’ बनाई और इसी नाम से एक पत्रिका भी निकालनी शुरू की जिसके पहले संपादक ज्योति बसु बने।

कृष्ण मेनन और फिरोज गांधी आदि ने इंडिया लीग बनाई थी जिसका मुख्य काम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रवासी भारतीयों का समर्थन हासिल करना था। उस समय ब्रिटेन के भारतीय छात्रों द्वारा बनाए गए कम्युनिस्ट ग्रुपों में रजनी पटेल, पीएन हक्सर, मोहन कुमारमंगलम, इंद्रजीत गुप्त, रेणु चक्रवर्ती और अरुण बोस सरीखे छात्र भी थे। जिन्होंने भारतीय राजनीति को विभिन्न तरीके से प्रभावित किया। ज्योति बसु का इन लोगों से संवाद लंदन में ही स्थापित हुआ था। इंदिरा गांधी से भी उनका परिचय लंदन में ही हुआ था जब वे वहां पढ़ने गई थीं। ज्योति बसु कहते हैं कि फिरोज और इंदिरा के बीच प्यार का सिलसिला लंदन से ही प्रारंभ हुआ था।

लंदन में ही ज्योति बसु की मुलाकात सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू सरीखे दिग्गजों से तब हुई जब वे दोनों नेता विभिन्न अवसरों पर लंदन पधारे। विजय लक्ष्मी पंडित, भूलाभाई देसाई, यूसुफ मेहर अली और अन्य कई सोशलिस्ट तथा कांग्रेसी नेताओं से भी बसु लंदन में ही मिले। लंदन मजलिस के एक प्रमुख कार्यकर्ता होने के नाते भारत का जो भी बड़ा नेता लंदन जाता था उससे बसु की मुलाकात अवश्य होती थी। जुलाई 1938 में जब वहां नेहरू पहुंचे थे तो उनके स्वागत की मुख्य जिम्मेदारी लंदन मजलिस की ओर से ज्योति बसु को ही दी गयी थी। यहां उनकी नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के साथ हुई एक संक्षिप्त बातचीत का ब्योरा देना प्रासंगिक होगा। 15-16 जुलाई 1938 को इंडिया लीग और लंदन फेडरेशन ऑफ पीस काउंसिल के संयुक्त तत्वावधान में ‘शांति और साम्राज्य’ विषय पर लंदन में एक सम्मेलन आयोजित था। इस सम्मेलन में भाषण देते हुए नेहरू ने शांति और साम्राज्यवाद को दो विपरीत ध्रुव बताकर कहा था कि साम्राज्यवादी सोच कभी शांति स्थापित नहीं कर सकती।

फासीवाद के खिलाफ भी उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। और कहा था कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनके इस भाषण के बाद ज्योति बसु ने यह निष्कर्ष निकाला कि पंडित नेहरू के विचार समाजवाद के करीब हैं। उस वक्त तक ज्योति बसु कम्युनिस्ट विचारधारा से काफी प्रभावित हो चुके थे। नेहरू ने जब अपना भाषण खत्म किया तो बसु की नेहरू से पहली बार सीधी बातचीत हुई। बसु ने नेहरू से कहा, “हम भारत में समाजवाद का विस्तार करना चाहते हैं।” नेहरू ने उत्तर दिया, “पहले हिंदुस्तान की आजादी की जंग जीत लेने दो फिर हम समाजवाद के बारे में सोचेंगे।” कुछ ऐसे ही विचार सुभाष चंद्र बोस के भी थे। जब रजनी पाम दत्त और ज्योति बसु ने उनसे मिलकर समाजवाद के बारे में उनकी राय जाननी चाही थी। 

इन दोनों बड़े नेताओं के इन संक्षिप्त उत्तरों का ज्योति बसु पर और कोई असर पड़ा हो या नहीं, उन्हें इतना तो अवश्य ही लग गया था कि समाजवाद कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लंदन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखे मार्क्स-लेनिन के मोटे-मोटे ग्रंथों को पढ़कर उसे एक देश से दूसरे देश में प्रसारित-प्रचारित किया जा सकता हो। संभवत: ज्योति बसु के शैक्षिक जीवन का यही वह क्षण रहा होगा जब उन्होंने राजनीति के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया होगा।

उन्हें अब फैसला लेना था कि उनका जीवन हिंदुस्तान की कचहरियों में बीतेगा या कि वे बैरिस्टरी छोड़ राजनीति की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चल निकलेंगे। उन्हें निर्णय लेने में देर नहीं लगी। फैसला राजनीति के पक्ष में गया और उन्होंने तय किया कि वे बैरिस्टरी के अंतिम साल की परीक्षा नहीं देंगे। उन्होंने कानून की डिग्री लिए बिना लंदन से वापस लौट जाने की घोषणा अपने मित्रों के बीच कर दी। ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बेन ब्रैडले ने उनकी इस घोषणा पर आपत्ति की। ब्रैडले ने बसु से कहा, “बिना डिग्री लिए भारत वापसी को बंगाली समाज तुम्हारी असफलता के रूप में देखेगा। समाज इसे स्वीकार नहीं करेगा। जिसे राजनीति को अपना कैरियर बनाना है उसे समझना चाहिए कि समाज की स्वीकृति उसके इस अभियान की अनिवार्य शर्त है।” बेन ब्रैडले के इस वाक्य ने ज्योति बसु को अपने इस फैसले पर विचार करने के लिए बाध्य कर दिया। बसु को अपना निर्णय बदलना पड़ा। उन्होंने अंतिम साल की परीक्षा दी। वे पास हुए और उन्हें बैरिस्टरी की डिग्री मिल गयी। 

लंदन विश्वविद्यालय ने तो उन्हें बैरिस्टर बनाया लेकिन लंदन शहर और विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों ने उन्हें कम्युनिस्ट बना दिया। 1 जनवरी 1940 को उन्हें भारत लौटना था। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल उनके अपने मां-बाप थे। उनके मां-बाप ने यह कभी नहीं सोचा था कि उनका बेटा बैरिस्टर के साथ-साथ कम्युनिस्ट भी बन जाएगा। ज्योति बसु के सामने सवाल था आखिर वे क्या कहेंगे अपने पिता और मां से? वे कैसे कहेंगे कि अब उनका बेटा काला कोट और टाई नहीं पहनेगा बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्ण कालिक कार्यकर्ता बन झोपड़पट्टियों और गरीबों के बीच रहेगा और पार्टी का काम करेगा? अगर वे ऐसा कहेंगे तो उनके मां-बाप की प्रतिक्रिया क्या होगी? इन्हीं सारे सवालों का उत्तर तलाशते ज्योति बसु 1940 की पहली तारीख को लंदन में चार वर्ष में बिताने के बाद भारत पहुंचे।

लंदन वापसी के बाद अपने परिवार के साथ कलकत्ता वाले घर की पहले दिन की स्मृतियां। बताते हुए ज्योति बसु अपनी अधिकृत जीवनी में कहते हैं, “जब मैंने अपने पिता को अपनी राजनीतिक सक्रियता की बात बतायी तो वे थोड़े चौंके जरूर लेकिन यह कहते हुए उन्होंने मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया कि तुम चितरंजन दास की तरह बैरिस्टरी करते हुए भी राजनीति कर सकते हो।”

दरअसल, उन्हें नहीं मालूम था कि चितरंजन दास की राजनीति और ज्योति बसु की राजनीति में कितना फर्क है।  

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